निर्मला ठाकुर की कविताएँ
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जब फेसबुक पर सभी
वरिष्ठ कथाकार दूधनाथ सिंह की पत्नी निर्मला जी को श्रद्धांजलि दे रहे थे,
स्त्रीवादी रचनाकार सुधा अरोड़ा ने निर्मला ठाकुर के बारे में यह लिखा था --
सब
उन्हें कथाकार दूधनाथ सिंह की पत्नी के रूप में ही जानते हैं! बहुत कम लोग
जानते हैं कि वे बहुत अच्छी कवयित्री और एक बेबाक समीक्षक भी थीं! मेरी
पहली किताब ''बगैर तराशे हुए'' की पहली समीक्षा उन्होंने ही लिखी थी --
श्रीपत राय सम्पादित ''कहानी'' पत्रिका में -- तब मुझे नहीं मालूम था कि वे
दूधनाथ सिंह की पत्नी हैं !
बहुत
स्नेही माँ और समर्पित पत्नी तो थीं ही! अक्सर अपने नामचीन पतियों के
प्रभामंडल से तृप्त पत्नियां, अपने आप को गुमनामी के घेरे में आसानी से
सरका देती हैं। निर्मला भाभी ने भी यही किया पर इधर उनका कवि मन बाहर आने
को आकुल था। एक बार उन्होंने बताया कि एक हफ्ते में उन्होंने दस बारह
कवितायेँ लिखीं। सन 2001 में कथादेश में जब मैंने मन्नू जी के बारे में एक
टिप्पणी लिखी थी ''कलाकार की पत्नी होना अंगारों भरी डगर पर नंगे पाँव
चलना है !'' तो उन्होंने कहा - यह हम सब जानते हैं।
फोन पर उनकी ममतामयी मीठी आवाज़ को भुला पाना मुश्किल है !
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आज जब मध्यवर्ग के परिवारों की हम एक ऐसी पीढ़ी को देख रहे हैं जो घर से
बगावत करके वहां की चहारदीवारी से बाहर निकल आई है और बाहर की दुनिया में
अपने लिए जगह बना रही है , हम उस पिछली पीढ़ी को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते
जिसने नई पीढ़ी के लिए यह ज़मीन तैयार की ! वरिष्ठ कथाकार दूधनाथ सिंह की
पत्नी निर्मला ठाकुर अपने एकांत में अपनी व्यथा ऐसी कविताओं में रचती रहीं
और किताब में छपवा कर चुप हो रहीं ! फेसबुक का एक बड़ा पाठकवर्ग इन रचनाओं
से अनजान ही रहा ! फरगुदिया के पाठक पाठिकाएं पढ़ें और देखें कि सीधी सहज
शब्दावली के भीतर छिपी परतों में आम औरत की कितनी गाथाएं छिपी हैं ! वरिष्ठ
कवयित्री निर्मला ठाकुर को उन्हीं की पंक्तियों के पत्र- पुष्प समर्पित
करते हुए यह श्रद्धांजलि !--------------------------------------------------------------------------------
मध्यमवर्गीय परिवार की औरत
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मैं कभी जी नहीं सकी
अपना जीना
बचपन में माँ ने सिखाया
ऐसे जियो
जैसे मैं कहती हूँ
पिता ने
जैसा मैं चाहता हूँ
भाई-
तुझे सबकी सुननी है
मैं सुनती रही सबका कहना
भाग-भागकर पूरी करना
सबकी मांग
पिता को चाय
तो भाई को कॉफ़ी
बहन को दूध की बोतल
तो माँ को पेट का चूरन
सब मर्ज़ की जैसे
मैं ही थी दवा
इन सबके बीच
चूल्हा - चक्की
माँ के बार -बार माँ बनने की त्रासदी में
अपने भाई-बहनों को
सहेजती
होती गई मैं बड़ी
बीच-बीच
छत के नीरभ्र एकांत में
उड़ान भरते युवा सपने
मामूली थे वे
सपने
नौकरी की इक्षा
आत्मनिर्भरता की चाहत
ऐसा कुछ कर गुजरने की ख़्वाहिश
जो देता संतोष मुझे
और जीना की सार्थकता
देखते ही देखते
पीले हुए हाथ
भर मांग सिंदूर ले
मैं अब पूरी तरह अधिकार में थी
अपने पति - परमेश्वर के
गुलाम
बिन खरीदी
कौड़ियों के मोल ...
उसने कहा
भूल जाओ अपना वह घर बार
अब सब कुछ तुम्हारा
यहीं है
यही है असली घर- ठिकाना
जैसा मैं चाहूँ
उसी तरह जियो ...
देखते-देखते
भूल गई सपने
भूलने की कोशिश की तमाम बरस
जो थे मेरे अपने
भूल गई अपने लिए
जीना
धीरे -धीरे
उतर आई झुर्रियां
शरीर था
थकता गया
बेटा साधिकार बोला एक दिन
माँ, अब मैं हूँ
मेरी ही सुननी होगी बात
जैसा मैं कहूँ -
आह, किस-किस की सुनूँ मैं
जीवन भर सुना ही सूना तो
थक गई हूँ | बेहद
थकान - अथाह
आह, अब तो मांगती हूँ - दुआ
कि मेरे साथ जो हुआ
सो हुआ
पर अगली पीढ़ी की
कोई भी लड़की
कोई भी औरत
अपना जीवन जिए
और अगली सदी में
मेरी तरह
किसी की शर्तों पर
ना जिए |
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जीवित रहूंगी मैं
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जीवित रहूंगी मैं
अपने बच्चों में
बेटी बताएगी अपने बचपन की बातें
जब भी अपने बेटे से
जब
वहीं कहीं मैं भी हूंगी
उन चर्चाओं में
उन यादों में।
बेटियां कभी नहीं भूलतीं
अपनी मांओं को
उनके सुख-दुख को
क्योंकि बेटियां बनती हैं एक दिन
मेरी तरह एक
मां
और मांएं
नानी बन
सजीव हो जाती हैं
किस्से-कहानियों में
जीवित रहूंगी मैं।
संगम की धारा को जब भी देखेगा बेटा
मुझे क्या भूल पाएगा ?
जानती हूं
उसकी स्मृतियों में
मैं
संगम बन रहूंगी
जिसे समय-असमय
उम्र की सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ते
वह दुहराएगा जरूर।
कल मैं न रहूं
पर रहूंगी जीवित तब भी
उनकी धमनियों में
घुलमिलकर।
वक्त की धार
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कहां से कहां पहुंचा देती है
वक्त की यह धार
एक फूल की तरह खामोश
प्यार!
हवाएं के बीच सहेजने की कोशिश
बार-बार
टूटता जाता है मन का यह
तार
सांझ गिरती है
और उदास
रात चुपके से आती है
और-और
पास।
दाम्पत्य
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वे झगड़ते हैं
आपस में लगाते हैं
आरोप-प्रत्यारोप चीखते चिल्लाते हैं
अन्त में बदहवास
थककर
36 की संख्या में
सो जाते हैं(शायद)
लेकिन एक तस्वीर है
ड्राइंग रूम में
जहां वे अभी भी
एक दूसरे को तकते
मुस्कराते विभोर
63 की संख्या में मुखातिब है
कौन सी संख्या सच है
बताएंगे आप!
कोई भी चीज़
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कोई भी चीज़
बेअसर हो ही जाती है।
आख़िरकार
तुम भी।
दुखी होना न तुम्हारे वश में
था
न मेरे।
जीने के लिए
मरना तो पड़ता ही है।
एक न एक दिन
हर किसी को
राह निकालनी ही होती है
एक रोटी
एक घर।
प्रेम
या अविश्वास
कभी न कभी
हर चीज़ बदल जाती है।
तुम भी।
तुम तगड़े हो रहे हो
भविष्योन्मुख।
मैं घरेलू
आत्मोन्मुख।
क्योकि दुखी होना न तुम्हारे वश में था
न मेरे।
बिटिया
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फूलों-भरे पेड़ की डाली सी
मेरी बिटिया
हँसती है
होठों से
आँखों से
कपोलों के गहवर से
दूर दिगन्त तक उसकी हँसी फैलती है
और
मीठी खुशबू बिखेरती चली जाती है
इस कमरे, उस खिड़की
इस बिस्तर, उस कुर्सी
किताबें, फूलदान, मोमबत्ती
सब महक- महक उठतें हैं
आलोकित हो जातें हैं
वह हँसी
वह आँखें
कपोलों के नन्हे गहवर
मुझमें भरतें हैं जीवन
पुनर्जन्म इसी तरह होता है।
बेटे के लिए
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(1)
कहीं फूल के खिलने की एक मुद्रा
मुझे मुग्ध करती है
वह नन्हा- सा मुखड़ा
गुलाब है
जूही है
कुंदकली है
झर-झर झरता निर्झर है
मुझे आप्लावित करता
खिलखिल रोशनी है
अपनी नन्ही बाहों को फैलाता हुआ
यह एक जाड़े की मीठी धूप है
यह मेरी कविता है
मुझे ही रचती है
अनेको बार।
(2)
वह जो अपनी बड़ी-बड़ी आँखों में
संजोये हुए हैं- ढेर सारे सपने
अपने
माँ के, पिता के, भाई- बहन के
शुभ आशीर्वाद- सा
छाया रहता है घर के हर कोने में
वह उत्सव है
वह वसंत है
यह मौसम है
वह आकाश- यहां से वहाँ अनंत विस्तार में
सागर- तरंगित होता हुआ
दुनिया को हिला देने की ऊर्जा लिए
एक सार्थक लड़ाई के लिए सन्नद्ध
वह जागृति है
वह मशाल है
वह वर्तमान है।
जिन्दगी
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(1)
धीमे धीमे
सरकती जा रही यह
जिन्दगी
जाड़ों की धूप सी
प्यारी और प्यारी
लगती जा रही
यह जिन्दगी
लेकिन अजब है यह
कि बस
बन्द मुट्ठी में बंधी ज्यों रेत-सी
खिसकती जा रही
यह जिन्दगी।
(2)
जिन्दगी
स्वीट पी की खुशबू है
फैलती है यहां से वहां
आदिम चाह-सी
जिन्दगी जो खुला प्रांगण है
जिन्दगी जो
धूल, धूप, हवा
और पानी
गृहस्थी का उत्सव
और आंगन है
मात्र यही तो हर क्षण
धड़कनों का साक्षी
साथी है
फिर भी
अब, कहां
साथ छोड़ जाए
भरोसा नहीं
यह जिन्दगी।
(3)
बीतते जा रहे हैं
बरस पर बरस
रीतते जा रहे हैं
मौसम दर-मौसम
चुक जाएगा यह जीवन भी
एक दिन
एकाएक।
......यूं ही सोचते रह जाएंगे
अब करेंगे ऐसा कुछ
जाने कब से अपेक्षित था जो
ऐसा कुछ.........।
एक मनःस्थिति
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देखो तो
अब निहार सकती हूं
मैं आकाश का विस्तार
धरती का रूप
अकेली सड़क का मधुर एकान्त
सुन सकती हूं
झरते हुए पत्तों का
उदास, आत्मीय संगीत
नए पत्तों की लय
यह दुनिया कितनी खूबसूरत हो गई है
देखो तो
क्या से क्या हो गई हूं
मैं!
तुम्हारे जाने पर
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(1)
अच्छा हुआ तुम चले गए
अब कुछ सोच समझ सकती हूं
उन संवादहीन दिनों को
एक नाम दे सकती हूं
रिक्तता की खाई
मौन से भर सकती हूं।
चलो, तुम छोड़ गए
गहरे पानी में
(कोई बात नहीं)
(2)
कहीं कुछ नहीं होता
और बहुत कुछ घटता
काटता चलता है
अंधकार में
लहरों के उत्थान-पतन में
अरारों का गिरना
किसने जाना ?
-जिसने बांधा
वही
फिर-फिर उसी का टूटना
किसने तब जाना
घहरा कर
दम तोड़ना
एक नाटक
बिना मंच, बिना संयोजन के
होता है
मैं पात्र हूं (पर कहां हूं)
मेरे इर्द-गिर्द जो है
जो कुछ हो रहा है
वहां तो नहीं हूं
किन-किन व्यथाओं में
अभिभूत
उदास और रिक्त
और-
नामहीन हूं।
(3)
हंसी आती है अब प्रेम-प्रदर्शन पर
और विश्वास की बात
उदास कर जाती है
खुशियां हर बार
आहत हो
मौन के द्वार
टूट गिरती हैं।
राग जो अपना है
धुंध में डूबा है
वसन्त का अन्त
समझ में आता है।
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