Sunday, September 14, 2014

हमारी आज़ादी की लडाई की भाषा फैसलों की भाषा नहीं थी - स्वाती ठाकुर

हमारी आज़ादी की लडाई की भाषा फैसलों की भाषा नहीं थी -  स्वाती ठाकुर 


14 सितंबर को हम देश भर में प्रतिवर्ष हिंदी दिवस के रूप में मनाते हैं
एक तरह का उत्सव का सा माहौल सभी सरकारी संस्थाओं में दिखाई देता है। इस दौरान कभी एक हफ्तेकहीं एक पखवाड़े या फिर एक महीने तक ये उत्सव चलता रहता है। इस दौरान हिंदी को लगभग पूजा-अर्चना या फिर एक तरह की श्रद्धा के भाव से देखा जाता है। इस तरह की उत्सवधर्मिता का विरोध इस आलेख का उद्देश्य कतई नहीं है। पर इन सबके पीछे वस्तुस्थिति को यथार्थपरक रूप से समझना अधिक उपयुक्त होगा। उत्सव मना लेने से कर्तव्यों की इतिश्री नहीं हो जाती। साथ ही यह भी कि भाषा का विकास इन उत्सवों का मोहताज़ नहीं। किसी भाषा के लिए एक दिन मुकर्रर कर देने से कुछ नहीं होने वालाहर दिन व्यवहार के स्तर पर भाषा के प्रयोग में ही उसका सम्मान हैउसका विकास है। इस तरह के उत्सव भाषा की वास्तविक स्थिति दिखाते हैंजिस दिन हमें याद करना पड़ता है अपनी भाषा की उस समृद्ध परंपरा कोजो आज खोती जा रही है। इस दिन हम अमूमन अपनी भाषा के प्रति अपने कर्तव्यों को याद करतेकराते हैं। पर भाषा के प्रति अपना दायित्व हमारे ज़ेहन में हमेशा होना चाहिए। किसी भी भाषा का विकास अतीतजीवी होकर परंपरा के गौरवगान कर देने भर से संभव नहीं है और न एक दिन विशेष को हिंदी की वस्तुस्थिति पर चिंता ज़ाहिर कर के। समस्याओं पर चिंता ज़रूरी हैयह चिंता पहला कदम है किंतु उनके निवारण की दिशा में किए जाने वाले निरंतर प्रयास ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण है जिसे हम उत्सव समापन कर भुला देते हैं। और इस तरह से हम अपनी भाषाओं का दिवसपखवाड़ा और माह और अब तो शपथ समारोह मनाकर एक ऐसा संसार बना रहें हैंजो मुझे तो डरावना ही लग रहा है।
हिंदी राजभाषा के रूप में स्वीकृत हो चुकी है बावज़ूद इसके हिंदी अपने ही देश में सम्मानजनक स्थिति में नहीं है। यह सच है कि भारत विविधताओं वाला देश हैजिसके बारे में कहा भी गया है:
चार कोस पर पानी बदले
आठ कोस पर बानी

यहाँ कई भाषाएँ है। संविधान की आठवीं अनुसूची के ही अंतर्गत 22 भाषाओं को स्थान प्राप्त है। फिर सभी भाषाओं के तहत ढेर सारी बोलियाँ। पर हम सब यह भली भाँति जानते हैं कि हिंदी पर वरीयता या हिंदी की वर्तमान स्थिति की वजह भारत की अन्य भाषाएँ नहीं हैं वरन् उस अंग्रेज़ी भाषा को मिली है जो गैर भारतीय है और जिस भाषा के ज़रिए हम पर शासन किया गया था।
हिंदी के राजभाषा होने की वजह से एक तरह की संवैधानिक बाध्यता अवश्य दीखती हैसरकारी कार्यालयों व संस्थाओं मेंपर यदि हम थोड़ी तह में जाकर इसकी पड़ताल करेंतो पाएँगे कि अधिकांश कार्य मूलत: अंग्रेज़ी में हो रहा हैहिंदी में कार्य करने की बाध्यता यहाँ अनुवाद के माध्यम से पूरी की जा रही है।

विधा के साथ साथ विषय के रूप में विकसित होते अनुवाद की भूमिका निश्चय ही महत्वपूर्ण हैजो कि व्यक्ति के भाषाई ज्ञान की सीमा को ज्ञान की सीमा नहीं बनने देता और इस तरह से हमारी भाषा से इतर भाषा में व्यक्त ज्ञानसाहित्य तक हमारी पहुँच को संभव बनाता हैपर यह सोचने की बात तो ज़रूर है कि हमारे अपने देश में हमारी भारतीय भाषाएँ  अनुवाद की भाषा बन के रह गयी हैंसरकारी परीक्षाओं से लेकर सरकारी दफ्तरों तक में  हम अपनी भाषाओं को अनुवाद की भाषा बनते देख ही रहें हैंजहाँ यह साफ़ लिख दिया जाता हैकि किसी भी तरह की विसंगति होने पर अंग्रेज़ी मान्य होगी।
अभी हाल ही में आंदोलन का रूप ले चुके यूपीएससी के भाषा संबंधी विवाद को भी इस परिप्रेक्ष्य में समझे जाने की ज़रूरत है। यूपीएससी भारत की सर्वोच्च प्रशासनिक संस्था है। जिसमें जाने का ख्वाब लगभग हर तबके के लोग देखते हैं। एक छोटे तबके की होने के नाते मैं इतना तो कह सकती हूँ कि वहाँ इस सेवा का कुछ अधिक ही क्रेज़ हैजिसे लोग 'लाल बत्ती वाली गाड़ी' से जोड़ते हैं। ऐसे तबके जहाँ के लोगों का अंग्रेज़ी ज्ञान अपेक्षाकृत कमज़ोर हो सकता हैक्योंकि जिस परिवेश में वे रहे हैं और जिसमें उन्होंने शिक्षा पाई हैवहाँ न उन्हें व्यवहार में अंग्रेज़ियत मिली और न शिक्षा मेंइस वजह से वे बहुतों की नज़र में गँवई बने रहे और उस भद्रता से वंचित रहेजो तथाकथित अंग्रेज़ी शिक्षा और परिवेश से आती है। किसी एक भाषा की जानकारी न होना या उस भाषा में प्रवीणता प्राप्त न हो पाने का अभिप्राय किसी सेवा के लिए अपात्र हो जाना कतई नहीं होता खासकर तब तो बिलकुल नहीं जब वह भाषा उस देश की न हो। देश की शीर्षस्थ प्रशासनिक संस्था मानी जाने वाली यूपीएससी में यही हुआ। बहसों के उस दौर में बहुत सारे प्रबुद्ध पूर्व प्रशासनिक सेवकों ने स्पष्ट रूप से अपनी राय ज़ाहिर की जिसका अभिप्राय स्पष्ट रूप से अंग्रेज़ी को वरीयता देना था। भारत में भारत की ही भाषाओं के माध्यम से परीक्षा न दे पाना और यदि ऐसा हो भी पाता हैतो जाँच करने के लिए सिर्फ अंग्रेज़ी के मॉडल पेपरों का प्रयोग काफी दुखद है और यह कहीं न कहीं अवसरों की समानता को बाधित करता है।
किसी भी भाषा का कोई दोष नहीं होता है और न ही कोई भाषा ऊपर-नीचे हुआ करती है। ऐसी सोच जो भारत में बुरी तरह से व्याप्त हैउसके पीछे एक खास तरह की मानसिकता कार्य करती है। अपनी भाषा के प्रयोग को लेकर कुंठा या असम्मान का भाव स्वाभाविक कतई नहीं है। यह कहना कि हिंदी भाषा में रोज़गार के अवसर नहीं हैं या कि अंग्रेज़ी ऐसे कई अवसर प्रदान करता है कतई सही नहीं जान पड़ता। ये ज़रूरतें तैयार की गई हैं नहीं तो क्या वज़ह हो सकती है कि सरकारी संस्थाओं में लिपिकों के लिए ली जाने वाली परीक्षाओं में अंग्रेज़ी की ही जाँच की जाती है। जहाँ तक रोज़गार की संभावनाओं की बात है उसे हिंदी माध्यम में सृजित किया जा सकता है यदि व्यवस्था चाहे तो। पर समस्या यह है कि हिंदी पर अंग्रेज़ी को वरीयता देने की प्रवृत्ति भी वहीं से तैयार की गई है। और इसी प्रवृत्ति की वज़ह से हिंदी का न्यूनतम प्रयोग दीखता है और जो दीखता है वह भी या तो बनावटी या फिर ढेरों त्रुटियों से युक्त। अंग्रेज़ी बोलते या लिखते वक़्त हमारे यहाँ जो सचेतता दिखाई देती हैहिंदी के प्रयोग के प्रति उसका नितांत अभाव है।
कभी हिंदी के प्रख्यात कथाकार प्रेमचंद ने कहा था भाषिक गुलामी से मुक्त हुए बिना वास्तविक आज़ादी संभव नहीं है। इस लिहाज़ से हम आज़ादी के वास्तविक मायने तभी हासिल कर पाएँगे जब कि हम इस भाषिक गुलामी से आज़ाद न हो जाएँ।
भारत की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा जिसमें बड़ी बड़ी संस्थाओं में कार्यरत लोग भी शामिल हैंइस बात से अनभिज्ञ हैं कि हिन्दी भारत की राजभाषा है। एक अनुभव मेरा यह भी रहा है जब हिन्दी के प्रयोग सम्बन्धी मेरे आग्रह के ज़वाब में मुझे यह कहा गया कि द्विभाषिक रूप से काम करने में बिना वजह समय और संसाधन की बर्बादी हैसाथ ही यह भी कि हिन्दी भी हमारी भाषा नहीं है। दक्षिण भारत में यह स्थिति बहुत आम है और वस्तुस्थिति यह है कि वे हिन्दी को अपनी भाषा नहीं मान पाए हैं। इसे बहुत अस्वाभाविक भी नहीं कहा जा सकता और ऐसी स्थिति में उनपर हिन्दी थोपा जाना सही नहीं होगा।पर मैं उस मानसिकता से हैरान अवश्य हूँजो अंग्रेज़ी के प्रयोग को सहर्ष स्वीकार रहा है और उसे विकास से जोड़ रहा है।ऐसा करके वह अपनी भाषा को भी दरकिनार ही कर रहा है।
कभी कभी मुझे लगता है कि हमारा समाज एक ओढी हुईजिसे हम आयातित भी कह सकते हैंमानसिकता से संचालित हो रहा है। तभी तो हमें अपनी भाषा में विकास के तत्व नज़र नहीं आते और हम खुद अपनी भाषाओं को मरने दे रहे हैं और हमें इस बात का तनिक भी अफसोस नहीं क्योंकि हम विकसित (?) हो गए हैंक्या हम अपनी भाषाओं के विकास के साथ अपना विकास नहीं कर सकते..??
मैं यहाँ राजेश जोशी की लंबी कविता भाषा की आवाज़’ को उद्धृत करना चाहती हूँ:
बोलते बोलते एकाएक
मुझे अपनी आवाज़ पुराने दासों की तरह लगी
मुझे एकाएक लगा कि यह अधीनों की भाषा है
जिसमें मैं सोच रहा हूँ और बोल रहा हूँ
लेकिन यह कब हुआ और कैसे हुआ?हमें तो लगता था कि यह हमारी आज़ादी की लड़ाई की भाषा है
स्वतंत्रता और नए नगरों के बनने की प्रक्रिया के बीच
लाखों लोगों ने अपने पुराने डेरों के उजड़ने और नए डेरों के बसने
के साथ-साथ बनाया है हमारी इस भाषा को
कि इसमें उनके आपस में बतियाने और गाने-बजाने की आवाजें हैं
कि उनके काम -धंधों की दिक्कतोंउनकी खुशियों और दुःख से बनी है यह भाषा
कि रोटी बेटी के सम्बन्धों के साथ बनाए हैं उसने नए कुटुंब
पर शायद हमीं से हुई थी चूक हम ही नहीं देख पाए थे
कि हमारी आज़ादी की लडाई की भाषा फैसलों की भाषा नहीं थी
आधी रात के अँधेरे में
फैसले तो उसी शासक की भाषा में लिखे गए थे
जिसके खिलाफ हम लड़े थे
बाज़ार पहले ही चुरा चुका था हमारी जेब में रखे सिक्कों को
और अब वह सौदा कर रहा था हमारी भाषा का
और हमारे सपनों का
पुराने अनुभव की कमीज़ पहन कर
नए विमर्श की शब्दावली के सामने खड़ा था मैं अकबकाया हुआ
और नए बाज़ार में सौदा-सुलुफ करता एक विदूषक की तरह लग रहा था
महत्वाकांक्षाओं के मायालोक में कहीं नहीं थी हमारी भाषा
कहीं दूर कोने-कुचालों से कभी-कभी सुनाई पड़ती थी
उसकी बहुत धीमी और पराजित आवाज़
बिना लड़े ही हम हार रहे थे अपनी लडाई!

यहाँ बस यही कहना चाहूंगी की बिना लड़े हमें अपनी यह लड़ाई नहीं हारनी है। और इस लड़ाई को हम अपनी भाषाओं के अधिकाधिक प्रयोग से निश्चय ही जीत सकते हैं और इस बात को झुठला भी सकते हैं कि विकास के अवसर का हमारी भाषा में अभाव है।
हिंदी भाषा एवं क्षेत्रीय भाषाओं के अधिकाधिक प्रयोग से अंग्रेज़ी का प्रभाव स्वत: ही कम हो जाएगा जो कि राजभाषा कार्यान्वयन नीति एवं दिशानिर्देश का निहितार्थ है। हम सभी जानते हैं कि भाषा का प्रसार व विकास एक सामूहिक कार्य होता है। आइए हम यह संकल्प लेते हैं कि आज के दिन से हम सभी पहले से और अधिक प्रतिबद्ध होते हुए एकजुट होकर पूरी सकारात्मकता व उत्साह के साथ अपने अपने स्तर पर राजभाषा के प्रयोग को और अधिक बढ़ाएँगे। अपने अपने स्तर पर हम सभी सभी क्षेत्रों से संबंधित ज्ञान को अपनी भाषा में सृजित करने का प्रयास करेंगे। ताकि आने वाले समय में हमें अपनी भाषा के लिए एक दिन तय न करना पड़ेऔर मेरे लिहाज़ से हमारी ज़िम्मेदारी किसी एक भाषा के प्रति न होकर अपने देश की हर भाषाओं को लेकर होनी चाहिए।


स्वाती ठाकुर
शोधार्थी-हिंदी विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय

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