बुद्ध और नदी::
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जंगल बुद्ध को पुकार रहे थे
आओ कि बचा लो हमें
जंगल औरत होकर चिल्ला रहे थे
और पहले से भी ज्यादा काली पड़ गई थी उनकी देह
'देखो, चितगोंग में मैं गिरा और टूट गया अपने ही बामियान में
कुशीनारा से जाकर पूछो -
सारनाथ से उठने वाली मेरी आवाज़ का क्या हुआ ?
कहते हुए बुद्ध जंगल की जड़ों में खो गए
पेड़ और परिंदे मौन !
जानवर और हवाएं चुप !
जड़ें आर्द्र थीं बुद्ध की आँखों से
या बुद्ध की ऑंखें जड़ों की नमीं से भीग गई थीं
एक नदी पास से गुज़र रही थी
पहले ठिठकी
फिर रुकी
अपने किनारे पर दोनों का सिर रखा और सहलाती रही देर तक
तपते हुए सिर
उसका सूखा चेहरा अब भी उम्मीद से भरा था
और कंठ से आती थी धीमी धीमी आवाज़
कल -कल कल
नदी बुद्ध की माँ थी
स्वप्न देखते हुए एक युग को जन्म दिया
और मर गई।
बुद्ध::
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बुद्ध क्या तुम मेरे घर आओगी
सुना है तुम उद्विग्न नहीं होतीं
सुना है तुम घर घर घूम रही हो धरती पर
पर मेरा पता हिंसा और अहिंसा के बीच अंधी गली के
आखिरी कोने पर है
मकान नंबर बारिश से मिट गया है
छत बची नहीं है
दीवारों में महुआ और अर्जुन, नीम उग आये हैं
तुम्हारे समय के लोग अब नहीं बचे हैं
नए लोग , नए दरवेश चले आये हैं यहाँ और अब हम पहले से भी ज्यादा हिंसा के अभ्यस्त हो गए है
अंगुलिमाल आणविक ताकत को गर्दन में लपेटे घूम रहा है
जंगल के भीतर उसने बच्चों के स्कूल तबाह किये हैं।
उनकी औरतों को नक्सल से सरोगेट किया है
मैं प्रसव पीड़ा से बेहाश हूँ बुद्ध
सरोगेट माँ नहीं हूँ मैं
प्रेम ने मुझे विधर्मी किया
मेरा प्रेमी निडर हो मेरा पेट सहला रहा है
हमारे क़त्ल से पहले तुम पैदा हो जाना बुद्ध
मैं तुम्हें भ्रमण से नहीं रोकूंगी पुत्री -बुद्ध
बुद्ध तुम्हारे गुण- सूत्र में एक्स एक्स है
बत्तीस गुणों के साथ तुम पैदा होने वाली हो
देखो कुश से मैं अपनी नाल काटने वाली हूँ
मैं तुम्हें कहीं फेंक कर नहीं आउंगी
डरना मत तुम।
थेरी गाथा: यशोधरा ::
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मैंने अपना सिर मुंडा लिया है
आश्वासन देती हूँ
कि कामना की हर बूँद को मैंने
कर दिया है निर्वासित
राहुल को अपनी पीठ पर बांधे मैं चल पड़ी हूँ
तुम्हारी तलाश में
सत्य के उस पेड़ के नीचे
जहाँ मार को तुमने किया था पराजित
हर उस राह तक मैं गई जहाँ दुनिया की भीड़ में
तुम घिरे थे
उज्ज्वल था तुम्हारा रूप और कद कुछ और ऊँचा
सारी भविष्यवाणियां सच हो चुकी थीं।
इतनी बड़ी जीत के बाद भी क्या तुम मुझे माया कहोगे ?
इतना भुरभुरा है मेरा कांच, मेरी देह
तो क्यों तुम मेरे ही कांच में कैद करने का मुझे
यत्न करते रहे बार-बार
क्यों इस कांच से डरते रहे
मेरे ही कांच से मुझे डराते रहे
कांच छोड़कर तुम जिस यात्रा पर निकल पड़े हो
वहाँ मेरे भी घुमंतू पैरों के निशान हैं
और मेरी टापू सी आँखें आकाशदीप की तरह जलती
तुम्हारे सच के जहाज़ की प्रतीक्षा में
तुम जा रहे हो दूर
बांधो न नाव इस ठाँव
अहिंसा की पौध गाते हुए निकल रही है
वन के वन उगे, साथ चल पड़े हैं
बुद्धम शरणम गच्छामि
किन्तु यश को धारण करने वाली मैं
इतिहास का रथ मेरी देह से गुज़र गया
लो गुज़र ही गया हंता।
मेरी पीठ से बंधा रहा राहुल
मैं नहीं जानती उसका क्या हुआ ?
दस शील आचरणों वाली मैं
बुद्ध अब भी मैं तृष्णा हूँ
दुःख का कारण हूँ !
तुम्हारा मोक्ष नलिनाक्ष……
समय गुज़र गया
दो विश्वयुद्ध हुए
आतंक भी आया और लौट गया
बाज़ार की चमक-दमक में
अक्सर लौट आते हैं लोग तुम तक
घुंघराले बालों वाली तुम्हारी मूर्तियां
तुम्हारी रूप सज्जा कुछ बदल गई है अब
पत्थर ,कांसे और ताम्बे में कसी
और पीतल में बंधी तुम्हारी देह
अप्पो दीपो भव
मेरे कांच से मेरी ही लौ बाहर निकल चली है
तुम्हारे कुंडल के वलय में अपने सूरज बनाती
फुसफुसा रही है
बुद्ध मेरे बुद्ध ,हिंसा के इस समय में
चलो मेरे साथ मेरे घुमंतू
सुजाता के दर्द का पता पूछ आयें
इस बार तुम्हारे साथ मेरी भी जरुरत है जंगल -जंगल को
कई बुद्ध ::
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अब कहाँ हैं बुद्ध
बैलगाड़ियों में लदकर जा रहे हैं बुद्ध
गाँव से शहर को
उनकी कांसे की देह के पास एक गज़ लोहे का फावड़ा पड़ा है
फावड़ा है बस ;दूर-दूर तक कोई कुंआ नहीं है।
प्यासे हैं बुद्ध और शहर की नदी सूख गई है
मिट्टी हो गए हैं बुद्ध
कोई हल चलाओ ,बीज गिराओ
चिड़ियों को चीखकर पुकारो कि वेआयें बार-बार
बुद्ध को हरा करें
बुद्ध की देह पर राख नहीं सरसों के फूल मलें
बुद्ध कपास और बिनौले में लेटे हैं
विदर्भ कैसे चले आये लुम्बिनी से ?
लेटे हैं बुद्ध क्यों चुप-चाप काली मिट्टी में
पेड़ की शाखा उनकी गर्दन पर कसी है
पेड़ झुककर ज़मीन हो गया है
ज़मीन चुप पड़ी है
क्यों इतने चुप हैं बुद्ध ?
कुछ बोलते नहीं क्यों ?
बुद्ध क्या अब और जात्रा नहीं करोगे ?
जात्रा जंतरमंतर से नहीं डरती
किसी घड़ी से भी नहीं ....
जात्रा डरती है खुद से
कि वह छूटे हुए गाँव नगर की
पल्ले में बंधी चाबी है
जिसका ताला कहीं छूट गया है
जात्रा में सब छूट ही जाता है बुद्ध।
अब तुम आ ही गए हो विदर्भ
सब छोड़ के
तो लुम्बिनी की चाबियों से हमारे सीने खोलना
क्या हमने सच में आत्महत्या की थी ?
बुद्ध तुम्हारे ओंठ पृथ्वी हैं
और जीभ…
उम्मीद
आधे बुद्ध ::
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बुद्ध तुम लेटे तो लेटे ही रह गए
बेचैन ,डबडबायी आँखों से।
मुझे तुम्हारी आँखों की नींद से पूछना है
तुम्हारे गालों पर लुढ़क आये आंसुओं से अर्थ लेना है
बुद्ध मैंने किसी पुरुष को रोते नहीं देखा
अच्छा लगा कि तुम्हारे गाल गीले हैं और आँखें हिरण्यवती
बुद्ध रुंधे कंठ से ही सही ,पर बताओ मुझे सच
क्या तब भी सब वैसा था जैसा आज है ?
तुम फाल्गु के प्रपातों में जिस सच के दाने डाल आये थे
काली -भूरी छोटी मछलियां उसे खाकर बोधिसत्व हो गई थीं
मैं आम्रपाली और सुजाता की बात नहीं कर रही सखा
मैं तो सारे जंगल की बात कर रही हूँ
परिंदों की
साल के पेड़ों की
अर्धनग्न स्त्रियों की
काले-चिकने पुरुषों की
मैं बात कर रही हूँ इटखोरी की भग्न एक सौ चार तुम्हारी प्रतिमाओं की
जो कोयले के दलदल में बार-बार मर रही हैं
तुम किस पर मुकदमा दायर करोगे बुद्ध ?
तुम अल्पसंख्यक हो बुद्ध
संविधान में तुम हो
नक़्शे में भी हो तुम
कुशीनगर में तो तुम हो ही
चौरासी हज़ार स्तूपों में तुम हो
और तुम्हारा महापरिनिर्वाण हो चुका है।
फिर तुम कहाँ नहीं हो ?
तुम्हारी जनगणना करते हुए मैंने पाया
कि आधी नंगी औरतें आधी रह गईं अब
जिन पत्तों से वे पत्तलें बनाती थीं वे पेड़ उन औरतों से भी आधे रह गए
उन पेड़ों से भी आधे बचे परिंदे -कर्लू, पिग्मी हंस के जोड़े
परिंदों से भी आधा रह गया पानी
बुद्ध तुम हर जगह से धकेल दिए गए
लुम्बिनी के राज प्रासादों में क्या इतनी जगह है
कि अल्पसंख्यक बुद्ध सो सके चैन से ?
बंजारे मेरे,यशोधरा और राहुल के पास लौट जाओ
उस सच में दूसरा मोक्ष प्रतीक्षारत आधे बुद्ध।
बुद्ध और दीपघर ::
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बुद्ध, स्वप्न में भी दीप नहीं जलता अब
कि तुम दिखो प्रकाश में
कि तुम कहो हम दिख रहे हैं तुम्हें
कि तुम दीखते हो हमें
कि तुम्हारी आवाज़ कहे चलो साथ
पर
कहाँ जायेंगे बुद्ध हम और तुम ?
बनारस के घाट की सीढ़ियों पर सत्य की कोई संधि वेला नज़र नहीं आती
झूठ के उलटे पांवों पर चलते हुए हम कौन -से पुरखों का सामना करेंगे बुद्ध ?
मजबूरियां गिद्धों की तरह आयीं
हमारे कन्धों ,जाँघों ,टखनों का मांस ले उड़ीं
प्राण अटके रह गए बुद्ध
तुम्हारी आँख में
बुद्ध क्या सारी धरती को काले ताबीज़ से बांधेंगे हम
क्या अवधूत की तरह धरती को आधा नग्न गाढ़ देंगे हम
क्या पीर की मज़ार हो जायेगी पृथ्वी
क्या हमारे शव लौट आयेंगे इस लोक में
क्या फिर - फिर पुकारेंगे तुम्हें हम
और तुम नहीं आओगे
न हिमाद्रि से
न उतरोगे शिवालिक से तुम
हिमाचल और तिब्बत से तुम्हारे दोनों हाथ ओझल हो जायेंगे
नेपाल में हम तुम्हारे पैरों को ढूंढेंगे
पर तुम न मिलोगे
अपनी छाया को अपनी देह से मिटाते हम
खुद से ही डरने लगेंगे
हमारी स्मृतियों का लोप होगा
कहाँ कुशीनारा ?
कहाँ लुम्बिनी ?
कहाँ बुद्ध ?
हम एक दूसरे के सीनों में मर जायेंगे
कोई दीपघर न होगा
बुद्ध और बारिश ::
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नए मकान बन गए हैं बुद्ध
मेरा गाँव दीखता नहीं अब
सूरज की धूप नयी ईंटों में पक रही है
खेतों की शाम धूल से अट गई है
रात सीमेंट और लोहे के बिस्तर पर लेटी है खामोश
एक उदास बीड़ी की गंध फेफड़े से उठती है
मैं मर रहा हूँ
अपनी बीड़ी की आग से मर रहा हूँ
अपने खेतों में भी मरता था
लेकिन ज्यादा मर रहा हूँ अब
मेरे सीने में बीज की गंध
मेरे ओंठ धान से भीगे
मेरी उँगलियों पर हंसिए के निशान
मेरे पैर मिट्टी में धंसे
मेरी गर्दन पर बैलों के घुंघरुओं का स्पर्श
मेरे कंधे पर हल की कोमल लकीरें
मेरे बालों पर गिर रहा है मचान का फूस
एक मौसम आकाश से टूटकर गिरा है
और मैं महकने लगा हूँ अब
बुद्ध ओ बुद्ध अपने ही दीप में जलते हुए बुद्ध
बड़ी आँखों वाले बुद्ध
मुस्कराते हुए बुद्ध
उठते हुए बुद्ध
लेटे हुए बुद्ध
निहारते हुए
न जाने क्या न जाने क्या
मेरी देह की सीढ़ी पर बैठे हुए बुद्ध
बुद्ध मेरे कान रहट
सुन रहे हैं भारी क़दमों की आवाज़
क़दमों के नीचे मेरी आत्मा रेहन पड़ी है
उसे जूते की कील नहीं चुभती अब
और आँखें
क्या कहूँ उनकी !
वे ही तो खेत थीं
पलकें सीवान
बुद्ध पलकें झपकाते हुए पाता हूँ
कि अब कोई और मेरी देह में रह रहा है
जिसे मैं पहचानता नहीं
मेरी भूख को मेरा पेट तगारी में भर कर
सींव पर छान रहा है
और वैराग्य की दुनिया में
मैं तुमसे पहले आया बुद्ध
तुमसे बहुत पहले
बुद्ध जब तुम राजप्रासाद से बाहर आ रहे थे
उन्हीं दिनों मैं भूख से मरा अपने खेत में
मेरा जन्म हुआ फिर
अतृप्तियां पुनर्जन्म का कारण हैं
मैं बहुत से देशों से मर कर आया हूँ
इस बार फिर मरूँगा बुद्ध
तुम्हारी करुणा की गोद में
दुनिया के चूल्हे को अपने पेट में लेकर मर रहा हूँ बुद्ध
मैं सूखी लकड़ी हूँ
मैं ही दूर तक फैली सूखी घास
खूब जलती हुई
बारिश और अँधेरे में।
अपर्णा मनोज :
कवयित्री , कहानीकार,अनुवादक
'मेरे क्षण ' कविता संग्रह प्रकाशित
कत्थक, लोकनृत्य में विशेष योग्यता, ब्लागिंग में सक्रिय
संपादन : 'आपका साथ साथ फूलों का '
उम्दा व निशब्द करती रचना ...
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