Friday, August 15, 2014

सीमा प्रहरियों के अकेलेपन की आग- मृदुला शुक्ला

" जब नहीं छिड़ी होती जंग सरहदों पर तब भी तो जूझते रहते हो तुम लड़ते रहते हो अनेको जंग भीतर और बाहर जब पड़ रही होती है बाहर भयानक बर्फ सीने में धधकता सा रहता है कुछ और रेत के बवंडरों में मन में उमड़ घुमड़ बरसता सा रहता है कुछ जाने कैसे निभाते हो...

Wednesday, August 06, 2014

तुम्हारे समय के लोग अब नहीं बचे हैं

बुद्ध और नदी::----------------------- जंगल बुद्ध को पुकार रहे थे आओ कि बचा लो हमें जंगल औरत होकर चिल्ला रहे थे   और पहले से भी ज्यादा काली पड़ गई थी उनकी देह 'देखो, चितगोंग में मैं गिरा और टूट गया अपने ही बामियान...

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