समाज का आईना है दलित लेखिकाओं की आत्मकथाए ,अभी तक दलित साहित्य में दलित साहित्यकारों द्वारा लिखित हिन्दी सहित अन्य भाषाओं में दर्जनों आत्मकथाएं आ चुकी है, और सभी चर्चित भी रही है। परन्तु खेद की बात है कि, इन दर्जनों भर आत्मकथाओं से समृद्ध दलित साहित्य में दलित लेखिकाओं की आत्मकथाएं अंगुलियों पर गिनने लायक भी नही हैं। दलित महिलाओं द्वारा लिखी ये गिनी-चुनी आत्मकथाएं समाज में आईने की भाँति उनकी समाज में स्पष्ट तस्वीर पेश करती है। दलित महिलाओं की स्थिति अपने घर-परिवार-समाज से लेकर हर जगह दोयम दर्जे की है। यही स्थिति साहित्य के क्षेत्र में भी बनी हुई है। फिर भी तमाम तरह के सामाजिक व व्यक्तिगत आक्षेप, लांछन और विरोध सहते हुए भी वे बिना रुके, बिना डरें साहित्य की प्रत्येक विधा में सामाजिक प्रतिबद्धता के साथ शिद्दत से अपने तथा अपने समाज के बारे में लिखते हुए वह अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवा रही है।
साहित्य में प्रमुख रुप से जिन दलित लेखिकाओं की आत्मकथाओं की चर्चा रही है या हो रही है उनमें प्रमुख रुप से बेबी ताई कांबले की ‘जीवन हमारा’, कौशल्या बैसन्त्री की ‘दोहरा अभिशाप’, उर्मिला पवार की ‘आयदान’, कुमुद पावडे की ‘अंतस्फोट’ शांताबाई कृष्ण कांबले की ‘माझी जन्माची चित्रकथा’ और सुशीला टांकभौरे की ‘शिकंजे का दर्द’ है। यह मात्र आत्मकथाएं ही नही है बल्कि यह दलित-स्त्रियों के जीवन और उनके समाज की दुख-दर्द-पी़डा की अभिव्यक्ति के मार्मिक दस्तावेज भी है। एक ऐसी घनीभूत दुख-दर्द जनित पीड़ा जिन्हें वे सदियों से सहती आई हैं। उनकी आत्मकथाओं में स्वतंत्रता के लिए तड़प है, समता के लिए कभी ना मिटने वाली प्यास है और न्याय के लिये आक्रोश से भरी हुई हुंकार है। अपनी आत्मकथाओं में ये लेखिकाएं अपनी इन इच्छाओं-आकांक्षाओं-पीडा-आक्रोश और अपनी कडवाहट का बडी ही निडरता और बहादुरी से चित्रण कर रही है।
इसमें कोई शक नही कि दलित लेखिकाओं की आत्मकथाएं व्यक्तिगत होते हुए भी सामाजिक है, और सामाजिक होते हुए भी व्यक्तिगत है। उनका संघर्ष ‘मैं’ के लिये ना होकर ‘हम’ यानि संपूर्ण स्त्री जाति की मुक्ति की कामना के लिए है। इसलिए उनकी आत्मकथाओं का स्वर दलित-चेतना से पूर्ण होने के साथ-साथ स्त्रीवादी चेतना से भी लबरेज है। लेखिका कौशल्या बैसन्त्री जब अपनी आत्मकथा ‘दोहरा अभिशाप’ की भूमिका में अपनी भोगी पीडा को व्यक्त करते हुए कहती है- “पुत्र,भाई,पति सब मुझ से नाराज हो सकते है ,परंतु मुझे भी तो स्वंत्रता चाहिए कि मैं अपनी बात समाज के सामने रख सकूं। मेरे जैसे अनुभव और भी महिलाओं को आए होगें परंतु समाज और परिवार के भय से अपने अनुभव समाज के सामने उजागर करने से ड़रती और जीवन भर घुटन में जीती है। समाज की आँखे खोलने के लिए ऐसे अनुभव सामने आने की जरुरत है”। यह चंद लेकिन एकदम सच और महत्वपूर्ण पंक्तियां समाज में दलित स्त्री के अलावा संपूर्ण स्त्री- जाति के खिलाफ समाज में गहरे तक बैठी जातीय पूर्वाग्रह से पूर्ण ब्राह्मणवादी पित़ृसत्ता की विभिन्न परतों को एक साथ खोलकर सबके सामने रखने का काम करती है। दलित लेखिकाओं की आत्मकथाएं बिना किसी लाग-लपेट के सीधे-सीधे-सरल शब्दों में भारतीय व्यवस्था के मर्दवादी और शोषक-उत्पीड़क रुप पर हमला करती है।
किसी के लिए भी अपनी आत्मकथा लिखना आसान काम नही है, यह उन कठिन परिस्थितियों से दुबारा गुजरने के बराबर है, जिनसे हम एक बार अतीत में गुजर चुके है। इसलिए यह अपने दुखों-विरोधों-संघर्षों को दुबारा जीने जैसा होता है। ऐसी स्थिति में खासकर जो वंचित तबका है जिसमें यदि हम विशेष रुप से दलित-महिलाओं की बात करें जो कि अपने दलित समाज के अलावा अन्य समाजों से भी निरंतर मानसिक-शारीरिक-आर्थिक शोषण और उत्पीडन सहती रही हैं। जब वे अपनी आत्मकथाओँ में अपने मानसिक-दैहिक-आर्थिक शोषण, उत्पीडन व अत्याचार करने वाले समाज या व्यक्तियों का चरित्र उजागर करने लगती है तो संबधित समाज या व्यक्तियों का तिलमिलाना स्वाभाविक है। पर खुशी इस बात की है कि ये दलित लेखिकाएं विभिन्न रुपों में व्यक्त उनकी खीझ और तिलमिलाहट की परवाह ना करते हुए, अपनी अस्मिता व अस्तित्व की पहचान के लिए निरंतर संघर्षशील है। और अपने तथा अपने समाज की मुक्ति का सपना देखते हुए अपनी आत्मकथाएं लिखना जारी रखती है। दलित स्त्री के खिलाफ दमन या हिंसा घरेलू और सामाजिक दोनों समान रुप से होती है। वह लगातार अपने ऊपर हो रहे सामाजिक और घरेलू हिंसा व दमन का सशक्त विरोध उस हिंसा को सबके सामने बाहर लाकर कर रही है। वह ना केवल उस हिंसा और उत्पीडन को बाहर ला रही है अपितु उसे और ना बर्दास्त करने अपने आप से वादा ले अपनी आजादी का बिगुल बजा समाज में नये मानदंड स्थापित कर रही है।
अन्य साहित्यकारों द्वारा लिखित आत्मकथाओँ से इतर दलित लेखिकाओं की आत्मकथाओँ में संघर्ष के बहुआयामी चित्र बेहद मार्मिकता से उकेरे गए है। घर-बार व बच्चों को संभालती दलित स्त्री, पति व दलित व सवर्ण समाज के जुल्मों-सितम सहती दलित स्त्री, बाकी समाज के साथ कदम से कदम मिलाती दलित स्त्री. वह निरंतर संघर्षशील है। मुसीबतों से नही घबराती है। वह समाज में अन्य महिलाओं के दुख-दर्द-पीडा-अपमान के साथ खडी नजर आती है।
प्रसिद्ध लेखिका बेबी ताई काबले की आत्मकथा ‘जीवन हमारा’ जिसमें दलित समाज की भंयकर गरीबी के अनेक भयावह चित्र है। और खासकर दलित महिलाएं जिन कंगाल-हाल परिस्थियों में जीती है वह स्थिति तो बहुत ही भयानक है। कौशल्या बैसंत्री और बेबी ताई कांबले ने अनेक ऐसी कुरीतियों और अंधविश्वास का वर्णन किया है जिसके कारण दलित महिलाओं पर अमानुषिक अत्याचार होते है। ‘जीवन हमारा’ में बेबी ताई कांबले ‘खोडा प्रथा’ का वर्णन करते हुए कहती है-“आदमी अपना प्रभु्त्व साबित करने के लिए बहू को पीटता. अत्याचारों से तंग आकर बहू अगर मायके भाग जाती तो उसे पुन ससुराल लाया जाता। ससुराल पहुंचने पर उस पर एक नया कहर टूट पडता। पाँच किलों बजन की लकडी बढई के पास ले जाकर गोल आकार में कटवाई जाती। उस गोल लकडी के बीचोबीच पांव घुसने जितना छेद वनवाया जाता। पाँव में पहनाने के बाद वह निकल ना जाए इसलिए छेद के बीचोंबीच एक सरिया लगा दिया जाता। इसे बहू के सीधे पांव में पहना दिया जाता। वह ‘खोडा’ पहनकर बहू को सारा काम करना पडता। उसके पांव जख्मी होते और उसमें से अक्सर खून बहता निकलता रहता”। बेबी ताई कांबले अपनी पूरी संवेदना के साथ इस जख्मी औरत के साथ खडी नजर आती है।
‘आयदान’ की लेखिका उर्मिला पवार ने अपनी माँ के जीवन- संघर्ष को आधार बना कर अपनी आत्मकथा का नाम ‘आयदान’ रखा है। लेखिका की माँ दिन भर ‘आयदान’ यानि टोकरिया बुना करती थी। लेखिका अपने आत्मभान में कहती है-‘आये आयदान बनाती थी। आये का आयदान और मेरे लेखन की बुनाई मुझे एक-सी दिखायी देती है, जो पीडा के धागे से बुनी हुई है’। लेखिका के जीवन-संघर्ष और उनके मजबूत निर्णयों के संदर्भ में ‘आयदान’ के एक प्रसंग का वर्णन अनिवार्य है, जिसमें वह शादी से ऐन वक्त पहले जाहिर इच्छा सुनकर समाज की परवाह ना करते हुए अपनी बेटी की शादी उसके मनपसंद लडके से करवा देती है। लेखिका के शब्दो में- “ निमंत्रण छपे, पोशाकें बनवाई गई, बेटी को देने का सामान तैयार हुआ, हॉल निश्चित हुआ और ऐन शादी के वक्त बेटी के उस पसन्दीदा लड़के ने अपना प्रेम जाहिर किया, मालविका से शादी की इच्छा प्रकट की, उसका इतना कहना था कि यहां मालविका ने शादी तोडने की इच्छा जाहिर कर दी......मैं देख रही थी नियोजित शादी से तीनों व्यक्ति दुखी होंगे। बेटी की जिन्दगी को दुखी होने से बचाने का यही एक अवसर था... सही निर्णय मुझे आज ही लेना था..आज यदि मैं अपनी बेटी का साथ दूं तो नियोजित वर के साथ अन्याय जरुर होगा पर अन्याय तो शादी के बाद भी होगा....नियोजित शादी हॉल पर ही टूट गई....मेरी काफी थुक्का-फजीहत हुई.. सबने यही कहा कि- बेटी के प्यार के बारे में माँ को तो पता ही होना चाहिए। कैसी औरत है ये, जो सभा-सम्मेलनों,कार्यक्रमों में ही व्यस्त रहती है?..... मेरे मातृत्व की धज्जियाँ उडा दी गयीं ”। समाज में बदलाव लाने की लडाई सबसे पहले अपने घर से शुरु करनी पडती है। दलित लेखिकाओं की आत्मकथाएं इस विचार को पुष्ट करती है। ये लेखिकाएं अपने जीवन में जो कुछ भी झेलती है उससे सीखकर वह किसी के सामने ना झुकने वाली चट्टान के समान खडी हो जाती है।
अंतत यह कहना अनुचित नही होगा कि दलित लेखिकाओं की आत्मकथाओं का मुख्य स्वर समता-स्वतंत्रता-न्याय की पुकार है। वह दलित-चेतना से ओत-प्रोत है। सामाजिक-धार्मिक अंधविश्वास-रुढियों-कुरीतियों के खिलाफ वैज्ञानिक और तार्किक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। यह आत्मकथाएं समाज में हो रहे किसी भी तरह के अन्याय, उत्पीडन,दमन के खिलाफ चेतना जगाने का काम कर रही है। उनकी अपनी आवाज एक पूरे वर्ग की आवाज बनकर संपूर्ण वर्ग के लिए न्याय-समानता-स्वतंत्रता- की माँग का प्रतिबिम्ब है।
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कालेज में
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बारहवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा में पूरे विद्यालय में मेरे हिन्दी में सबसे अधिक नम्बर आए थे, मैं इस बात से बहुत खुश थी। मुझे भविष्य में क्या करना है,क्या बनना है, क्या कोर्स लेना है इके बारे में जितनी चिंता मुझे होनी चाहिए थी उससे कहीं अधिक चिंता मेरी समानसिक रुप से अस्वस्थ माँ को थी। वे कई बार घर में मेरे बडे भाई-बहनों से कह चुकी थी कि अनिता ने बारहवीं पास कर ली है अब इसका किसी कालेज में दाखिला दिलवाओ। शायद माँ इस बात को लेकर बेहद क्षुब्द थी कि मेरे कालेज जाने को लेकर कोई बात घर में नहीं हो रही है। मेरे से बडे चार भाई-बहनों में से मेरा एक बडा भाई नौकरी कर रहा था तथा बाकि तीनों आगे पढ़ रहे थे पर मैं रिजल्ट आने के बाद भी घर में बैठी थी। मुझे वक्त पर दाखिला मिले इसके लिए माँ पिताजी के रोज सुबह-सुबह कान खाती थी। मुझे पता नही था कि मेरा बड़ा भाई अशोक जो उस समय दिल्ली कालेज ऑफ इंजीनियरिंग में पढ़ रहा था उसने अपने आप दिल्ली विश्वविद्यालय के ही एक महिला कालेज माता सुन्दरी कॉलेज में मेरा फार्म भर दिया था। कालेज की लिस्ट आउट होने पर मेरा नाम हिन्दी ऑनर्स के विद्यार्थियों की लिस्ट में सबसे ऊपर लिखा था। अपना नाम सबसे ऊपर देख मुझे बड़ी खुशी हुई। भाई ने मुझे अपने साथ लेजाकर कालेज में मेरा दाखिला दिलवा दिया। मेरा कालेज में दाखिला आराम से हो गया।
दाखिला लेने के बाद एक चिंता मुझे बराबर खाए जा रही थी कि मैं कालेज अपने आप अकेले कैसे जाऊंगी। कालेज जाने से पहले तक मैंने कभी भी अकेले बस में सफर नही किया था। मैं बचपन में एक बार खो चुकी थी इसलिए खोने का डर मेरे मन से तब तक नही निकल पाया था। मेरे मन की अजीब स्थिति थी एक तरफ कालेज जाने का उत्साह तो दूसरी तरफ अंजाना भय। ऐसे में ही घर में दबाब बना कि अकेले ही जाओ कोई साथ नही जाएगा। पिताजी और सबसे बडे भाई मनोहर ने कहा सब बच्चे अकेले जाते है तुम भी जाओ। सो जाना तो था ही।
कालेज का पहला दिन यानि कालेज पहुंचने के लिए पहली बार अकेले अपने आप बस में सफर करने का दिन। पहली बार कालेज जाने के लिए किया गया बस का सफर मेरे लिए हमेशा यादगार रह गया। यहां बात 1983 यानि आज से 29 साल पहले की हो रही है। उस समय सार्वजनिक यातायात व्यवस्था बहुत लचर हुआ करती थी। बस के लिए घंटों खडे रहो तब कोई एक बस नजर आती थी. कई बार वह लोगों से ठसाठस भरी होती और बस स्टॉप पर रुके बिना ही सबको टा-टा करती हुई चली जाती थी। हमेशा किसी भी तरह की लचर व्यवस्था का खामियाजा सबसे ज्यादा कमजोर वर्ग जिनमें महिलाएं भी शामिल है उनको भुगतना पड़ता है। जब बस स्टॉप पर खूब भीड इकट्ठी हो जाती, तब यदि कोई बस दिखाई दे जाती तो उसमें मर्द तो दौड-दौड कर चढ जाते औरते उस चढती भीड को देखकर घबरा कर वहीं खडी रह जाती। हुआ यूं कि बस नबंर देखकर मैं जिस बस में चढी वह लोगों से खचाखच भरी थी। बस में घुसते ही पहला अनुभव हुआ कि जैसे हम सब बस में सवार भेड-बकरियां है। जिनको जबर्दस्ती ढूंसकर कही जिबह होने के लिए ले जाया जा रहा है। एक तो जुलाई की उमस भरी गरमी, उपर से ताकतवर लोगों को कमजोर लोगों को दिए जा रहे धक्के मुक्के, पसीने की बदबू, फिर कालेज जा रही लडकियों से छेडखानी करने वाले जवान से लेकर बूढे यानि हरेक की उम्र के लोग। तरह-तरह के फिकरे, तरह-तरह के भद्दे अश्लील मजाक। सब सहते बर्दाश्त करते करते चालीस-पैंतालिस मिनट का समय ऐसे लगा जैसे पता नही कब से हम इस यातना यान में सवार है। बस किसी तरह कालेज के पास पहुँची। हम सब लडकियां आसपास के लोगों से धक्के खाती उन्हें धकियाती- अपने कपडे-लत्ते संभालती, गिरती पडती-लडखडाती दरवाजे तक पहुँची।उतरते समय एक लड़की की चप्पल बस में रह गई। मैं जब उतरी तो मैने देखा मेरा चुन्नी मेरे पास नही है शायद बस में ही गिर गई होगी। बस में से अपने सुरक्षित उतर आने की खुशी में चुन्नी दुबारा जाकर ढूंढ लेने की हिम्मत ही नही पडी। खैर जब कालेज से घर लौटी तो पिताजी को अपनी दुर्दशा सारी कह सुनाई। पिताजी ने मेरी बात को पूरी गंभीरता से सुना। सारी बात सुनने के बाद एक काम जो सबसे पहले किया वो यह कि उन्होने कॉलर और कमर पर बेल्ट लगाने वाले मेरे दो सूट अपने हाथ से बैठकर सिले, जिनमें चुन्नी की कोई जरुरत नही थी। बात बहुत छोटी सी थी. चुन्नी की जगह गले में कॉलर और कमर मे कपडे की बेल्ट। आज जब मैं उन बातों को सोचती हूँ कि मेरे पिता ने मेरी ड्रैस में बस थोडी हेरफेर करके मुझे ऐसी ड्रैस बना दी जिसने मुझमें इतना आत्मविश्वास भर दिया। अब बस में केवल बैग ही संभालना होता था चुन्नी नही। बेल्ट और कॉलर वाले सूट ने मुझे शरीर से जितना मुक्त किया उतना मन से भी मुक्त किया। जिसकी आभा मेरे आगे के जीवन पर भी खूब पडी। मैं अब भी बिना चुन्नी वाले कपडे पहनना पसंद करती हूँ। क्योंकि यह कपडे मेरे अंदर की स्त्री से ज्यादा एक इंसान होने का अहसास दिलाते है। बाद में मेरी यह आदत शादी के बाद भी बनी रही। मैने शादी के बाद ससुराल में किसी के भी सामने चुन्नी ओढने की जरुरत को महसूस नही किया।
कॉलेज में दाखिले के बाद मेरे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण मोड़ आया। यहीं मैंने सांस्कृतिक कार्यक्रमों जैसे वाद-विवाद तथा नाटक में खूब बढ़-चढ़कर भाग लेना शुरु कर दिया था। एन.एस.एस में खूब सक्रिय भूमिका निभाई। एक साल जूड़ो भी सीखी। नाटक आदि तो मैं बी.ए के तृतीय वर्ष खत्म होने के बाद तक लगातार करती रही पर जूडों मुझसे एक साल से ज्यादा नही चल पाई। खेल को अपना कैरियर बनाने के लिए ना केवल शारीरिक ताकत की जरुरत होती है बल्कि अच्छे भोजन की भी आवश्यकता होती है। मैं बचपन से ही खिलाडी प्रवृति की रही। बारहवीं कक्षा करने के बाद तक बिना किसी हिचक, घबराहट और शर्म के मैं सडकों पर तमाम तरह के खो-खो, कबड्डी, क्रिकेट, उंच-नीच का पापडा, छुपन-छुपाई खेल खेलती रही। मुझे याद है कभी कभी तो टीम में मैं अकेली लड़की होती थी। पिताजी मुझे यो लड़को के साथ खेलते देखकर बहुत गुस्सा होते थे। पर मैं खेल के मामले में किसी की परवाह नही करती थी। जब कालेज ज्वाईन किया तो जूडों-कराटे की क्लास ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। मैने जूडों की क्लास ज्वाईन कर ली। जूडों सीखने के लिए सुबह-सुबह कालेज जाना होता था। माँ चूंकि बीमार रहती थी इसलिए सुबह घर में खाने के लिए कुछ नही बना होता था। और फिर कालेज से भी कोई रिफ्रेशमेंन्ट नही मिलती थी। सो सुबह-सुबह भूखे पेट जाकर अभ्यास करना पडता था। पहले-पहले के शुरुआती दिनों में तो मैं अपने से कई वजनदार लडकियों को पटक देती थी, मेरा कालेज की टीम में चुनाव भी इसी आधार पर हुआ था, परन्तु कुछ महिनों बाद ही मैं अपने अंदर कमजोरी महसूस करने लगी। मुझे लगने लगा कि धीरे-धीरे मेरी शारीरिक क्षमता कम हो रही है और इसका मेरी सेहत पर प्रतिकूल प्रभाव पडने लगा है। शारीरिक मेहनत बढने के बाबजूद खाने-पीने की मात्रा वही रहने पर मुझमें कमजोरी आ गई, मुझे जल्दी थकान हो जाती थी। इस बात का पता मुझे इस तरह चला कि एक बार मैं कालेज में ही नाटक की रिहर्सल के दौरान बेहोश हो गई। उसी दौरान एक बार बस में बेहोश होकर गिर पडी। घर आने पर डाक्टर को दिखाया तो उसने मुझे ग्लूकोज का इंजेक्शन लगाते हुए कहा कि तुम्हारा ब्लड प्रैशर बहुत कम है। अपनी सेहत का ध्यान रखो और खूब खाओ पीओ। लेकिन मुझे उनकी दोनों ही शर्ते पूरी करना मुश्किल लग रहा था । तो इन सब कारणों के कारण मुझसे जूडों एक साल में ही छूट गई। मुझे बडा दुख हुआ। हमारे जैसे निम्नमध्यम वर्ग के परिवार के बच्चों की ऐसी ही हालत होती है। मेरा आज भी विश्वास है कि यदि मेरी सेहत का कोई ध्यान रखने वाला होता और मुझे अच्छा खाने-पीने को मिलता तो शायद आज मैं अध्यापिका या लेखिका बनने की बजाय जूडों चैपियन होती। जूड़ो तो मैने छोड दी या मुझसे छूट गई पर मैं नाटक में काम करना नही छोड सकती थी। नाटक के साथ मैं एन.एस.एस में भी सक्रिय रुप से जुडी रही। मैंने महसूस किया कि नाटकों के प्रति मेरा शौक दिवानगी की हद तक बढ़ता जा रहा है, किसी नशे के आदी नशेडी की तरह। हमने कॉलेज में “जंगीराम की हवेली” नाटक के कई शो किए और लगभग सभी कालेजों में यह नाटक प्रथम आता था। इस नाटक को एन.एस.डी के एक अध्यापक सुरेश भारद्वाज ने तैयार करवाया था। नाटकों में भाग लेने से मेरा दब्बूपन कम हुआ और मैं सार्वजनिक रुप से कुछ-कुछ अपनी राय व्यक्त करने लगी। इसमें शक नही कि मेरी संकोच हटाने और मुझे बोल्ड बनाने में थोडा मेरे बडे भाई अशोक का भी योगदान रहा है। वह कालेज के दौरान होने वाले इन्टर कालेज काम्पीटशिन में कालेज में आकर मुझे मंच पर बोलने के लिए प्रोत्साहित करता था। एक तो वह इंजीनियरिंग कालेज में था दूसरे वह देखने में भी स्मार्ट था तो मेरी कई सहेलियां उसे देखकर प्रभावित हो जाय़ा करती थी। और मुझे कहती थी कि मैं कितनी लक्की हूँ कि मुझे ऐसा भाई मिला। बीए के पहले साल में मेरी तीन सहेलिया बनी जिनमें सुधा, सरिता तो ब्राह्मण परिवार से थी और रजनी अग्रवाल परिवार से थी। कालेज में आकर हमारी हालत ऐसी थी जैसे खूंटे से बंधी गाय, जिसे बरसों बांधकर अचानक खोल दिया गया हो। और खुलने के बाद जो रात-दिन चारों तरफ डगर-डगर घूमती रहे, पर बस अपने घर ही ना जाने चाहे। हम चारों भी खूंटे से खुली गाय के सामान चारों तरफ घूमते-फिरते रहते थे। कभी फिल्म तो कभी किसी के घर या फिर कभी बुद्धा गार्डन कभी लोधी गार्डन। इन पार्कों में जाकर हम प्रेमी जोडों की मजाक उडाते। उनके सामने बैठकर जोर-जोर से बातें करते। हमारे आवारापन की इससे ज्यादा क्या हद हो सकती थी कि हम चारों की चौकडी बी.ए प्रथम वर्ष में ही फरवरी के दिनों में राष्ट्रपति भवन में 10-15 दिन के लिए लगने वाली पुष्प प्रदर्शिनी कम से उतने ही दिन जाते थे जितने दिन वह खुली रहती थी। रास्ते पर आते जाते किसी से भी लिफ्ट लेकर बैठ जाते फिर मेरी सहेलियां लगातार उन लिफ्टी लोगों से बातें करना शुरु कर देती थी। एक बार हम चारों ने बुद्धा गार्डन से घर वापिस आने के लिए किसी कार वाले से लिफ्ट ली। थोडी दूर पर ही उसकी चुपडी-चुपडी बातों से अनजाने खतरे का एहसास होने पर हम लोग कार के दरवाजे में लगे हैंडल से दरवाजे को खोलकर यह देखने लगे मान लो यदि कार के मालिक की तरफ से कुछ समस्या आ जाएं तो हम दरवाजा खोलकर कूद पडे। पर यह नौबत नही ही आई और हम बच गए। ऐसी ही एक भरी दोपहरी में, छुट्टी के दिन मैं घर पर थी कि मेरी तीनों सहेलियां मुझे फिल्म देखने के लिए घर बुलाने आ आई और मुझे कहा कि हम तीनों पढने के लिए दरियागंज की हरदयाल लाईब्रेरी जा रहे है तू भी चल। घर में बडा भाई अशोक था। मैने उनसे कहा कि आज छुट्टी है, सबको पता है इसलिए शायद मुझे बाहर जाने की परमिशन ना मिले। तब उन्होंने मुझे कहा – “तू चिंता मत कर हम अभी तेरे भाई को पटाते है।“ मेरी एक सहेली सुधा ने मेरे भाई अशोक से बडे प्रेम से इतराते हुए कहा कि- “भईया हम सब पढ़ने के लिए दरियागंज की हरदयाल लाईब्रेरी जा रहे है, अनिता को साथ लेने आए है। आप प्लीज उसे भेज दो।“ तब भाई ने बिना कुछ कहे मुझे आराम से जाने दिया। लेकिन घर से बाहर निकलते ही उन्होने बताया कि हम कोई लाईब्रेरी-वाईब्रेरी नही जा रहे हम तो “हीरो” फिल्म देखने जा रहे है। इसलिए तुझे लेने आए थे। उस समय “हीरो” फिल्म सुपर हिट जा रही थी। कालेज की सारी लड़कियां फिल्म की खूब तारीफ करते करते मरी जा रही थी। फिल्म जामा मस्जिद के पीछे बने जगत सिनेमाहॉल में लगी हुई थी। हीरो में जैकी श्रॉफ और मिनाक्षी शेषाद्री की जोडी थी। फिल्म देखी खूब मजा आया। जगत सिनेमा के पीछे ही मेरी एक मौसी का घर था। शायद मेरा भाई उनसे मिलने आया होगा। जब हम फिल्म देखकर खूब हो-हल्ला करते हुए निकले तो उसने हमें देख लिया। भाई को अचानक सामने देख मेरी सहेलियों की सिट्टी पिट्टी गुम हो गई। उसने अपने गुस्से को दबाते हुए हमें कहा कि अगर हम सब सच बताकर फिल्म देखने जाती तो क्या वह मना कर देता ? मुझे इस तरह चोरी छुपे-अंजान झूठ का शिकार होकर देखी गई फिल्म का बहुत दिनों मन में मलाल रहा।
प्रथम वर्ष में मेरे कुल चालीस प्रतिशत अंक आए। अपने इतने कम नंबर देख मैंने तय कर लिया कि मैं अब बेकार में घूमना फिरना छोड दूंगी और पढाई में थोडा ध्यान लगाउंगी। मुझे इस बात का अहसास था कि मेरे पिताजी हम सात भाई बहनों की पढाई-परवरिश और बीमार माँ का खर्चा कितनी मुश्किल से उठाते है। घर की गरीबी- बदहाली के कारण ही सबसे बडे भाई मनोहर को अपनी पढाई छोडकर पिताजी की मदद के लिए कटर मास्टर बनना प़डा। यानि दर्जी का बेटा दर्जी। लेकिन बडे भाई की हिम्मत की दाद देनी पडेगी कि पढाई छूटने के बाबजूद उसने अपने किताबें पढने के जुनून को जारी रखा। वह एक पढा-लिखा कटर मास्टर था। इसलिए उससे नाटक की कुछ जानी मानी स्त्री हस्तियां अपने कपडे सिलवाती थी। उसका नाटको में बडा रुझान था। उसे नाटको में कोई बड़ा रोल तो कभी नही मिला पर वह अपनी प्रतिभा- स्वभाव और सुंदरता के कारण नाटक टीम में लोकप्रिय जरुर था।
हमें कॉलेज के तृतीय वर्ष में मन्नू भंडारी का नाटक 'महाभोज' दिखाया था। उसमें डॉली अहलूवालिया एक गर्भवती स्त्री का मुख्य किरदार निभा रही थी। उस नाटक को देखकर और डॉली आहलुवालिया के अभिनय को देखकर मैं इतना अभिभूत हो गई कि मैं कई बार घर में महाभोज नाटक के पात्रों की खासकर डॉली आहलूवालिया की नकल करके कभी अपनी से ढाई साल बड़ी बहन पुष्पा तथा कभी अपने पिताजी को दिखाती। उस समय मेरे मन में एन.एस.डी में दाखिला लेने की तीव्र इच्छा ने जन्म ले लिया था। यह इच्छा मैंने अपने बड़े भाई मनोहर से जाहिर की, उन दिनों वह कुछ नाटकों में काम कर रहा था। जिनमें “एवम् इन्द्रजीत” और “कबीरा खड़ा बाजार में” आदि प्रमुख रुप से मुझे याद है। शायद भाई अभिनेताओं के भविष्य को जानता था इसलिए उसने मुझे हल्का सा डांटते हुए कहा “अभिनय तो शौक होता है, तू उसे कभी भी पूरा कर सकती है पर अभी पढ़ाई बहुत जरूरी है पहले पढ़ाई पूरी कर।“ उस समय मुझे बहुत बुरा लगा और मैंने मन ही मन सोचा कि 'खुद तो नाटकों में काम करते है।
उसी दौरान मैं दलित छात्र संगठन “मुक्ति” में शामिल हुई, मेरे साथ मेरी सहेली अमिता भी थी। इस ग्रुप को मेरे भाई अशोक ने कुछ अन्य दलित छात्र-छात्राओं के साथ मिलकर बनाया था। दिल्ली विश्वविद्यालय में हर साल दलित छात्र-छात्राओं के कालेज में पढाई करने के लिए दाखिले के समय आरक्षित रखी गई सीटों पर केन्द्रीकृत पंजीकरण होता है। इस केन्द्रितकृत पंजीकरण फार्म में दलित छात्र-छात्राएं अपनी पसंद के कालेज व विषय भरते है। बाद में दिल्ली विश्वविद्य़ालय की दाखिला समिति द्वारा विद्य़ार्थी के रहने के स्थान व उनके नंबर व पसंद के विषय के अनुसार कालेज में दाखिले के लिए सूची जारी की जाती है। दाखिले के लिए जारी सूची में हमेशा अनेक गड़बड़िया होती है। जैसे बच्चों के नंबर अच्छे होने के बाबजूद उन्हें कैम्पस के कालेज ना देकर दूर दराज के कालेज में भेज दिया जाता है। या सूची में कालेज और कोर्स का नाम होने पर भी कालेज द्वारा उन्हें अपमानित करते हुए दाखिला देने से मना कर देना। हजारों ऐसी परेशानियां थी जिनसे दलित विद्यार्थी हर साल जूझते रहते थे। उनके प्रति हो रही इन्ही गड़बडियों, तथा उनके साथ बरते जा रहे भेदभाव, प्रताडना के खिलाफ सबसे पहले मुक्ति संगठन ने ही काम करना शुरु किया था। क्योंकि मुक्ति पहला ऐसा दलित छात्र संगठन था जो शुद्ध रुप से दलित विद्यार्थियों के लिए काम कर रहा था। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह थी कि इसमें काम कर रहे सभी विद्यार्थी साथी चाहे किसी भी जाति के हो, सचेत रुप से दलित विद्यार्थियों के लिए जुडकर काम कर रहे थे। संगठन की विचारधारा अम्बेडकरवादी थी।
ऐसे ही एक बार दाखिले के समय स्टीफन कालेज ने दलित विद्यार्थियों को अपने कालेज में दाखिला देने से स्पष्ट मना कर दिया। इस मामले पर संगठन ने प्रिंसीपल से मिलने का समय मांगा तो प्रिसीपल ने वह भी देने से इंकार कर दिया। तब मुक्ति संगठन के सभी कार्यकर्ताओं ने स्टीफन्स कॉलेज के सामने बहुत बडा प्रदर्शन किया और प्रिसींपल से मिलने की खूब कोशिश की। लेकिन प्रिंसीपल ने मुक्ति संगठन के सदस्यों से मिलने इन्कार दिया। प्रिसीपल से मिलने की हर तरह की कोशिश नाकाम होते देख तब उस समय मुक्ति-संगठन का नेतृत्व कर रहे साथी ने प्रिंसीपल और कालेज प्रशासन को चेतावनी देते हुए कहा कि- अगर प्रिंसीपल हमें पांच मिनट में बाहर आकर नहीं मिलते तो हम उनके कमरे का शीशा फोड़कर अन्दर आ जाएगे। पांच मिनट बीत जाने पर भी जब प्रिंसीपल बाहर नहीं निकला तो मुक्ति के एक साथी रमेश ने प्रिंसीपल के कमरे का शीशा फोड़ दिया, जिससे उस साथी का हाथ खूनम-खून हो गया। चारों तरफ एकदम शोर-शराबा, घबराहट फैल गई। प्रिंसीपल ने अपने पद और पॉवर का इस्तेमाल करते हुए पुलिस को बुलवा लिया और हम सब पर कालेज में जबर्दस्ती घुसकर संपत्ति नष्ट करने के आरोप में पुलिस हमे मौरिस नगर के थाने ले गई। थाने जाने वाले छात्र-छात्राओं में अधिकांश संख्या स्कूल से तुरंत बारहवीं पास वालो की थी। वे बहुत घबराए हुए थे। मौरिस नगर थाना का एस.एच.ओ भी कुछ कम जालिम नही था। उसने उन डरे हुए छात्र-छात्राओं को और डराने के लिए सबके सामने थाने में बंद लोगों को विद्यार्थियों के सामने साईकिल की टायर टयूब से बनी बेल्ट से बेदर्दी से पीटना शुरू कर दिया। थाने में लोगों की बेदर्दी से होती हुई पिटाई देखना मेरे लिए बिल्कुल नई बात और भयानक बात थी। हमारे साथ आई लड़कियां बहुत डर गई और रोने लगी क्योंकि उनमें से कुछ तो बिल्कुल ही नई थी, शायद पहली बार ही वे घर से बाहर निकली हो। पर हम सब ने हिम्मत नही हारी और सब साथियों ने थाने में ही मिटिंग करके उस जालिम एस.एच.ओ. द्वारा लोगों को बेरहमी से पीटने के खिलाफ खूब नारे लगाए। शाम तक हमें थाने में भूखा-प्यासा रखकर आईंदा ऐसा ना करने की वार्निग देकर छोड़ दिया गया।
थाने से छूटने के बाद अगले दिन संगठन के सभी साथियों की सभा हुई जिसमें साथ रमेश द्वारा कालेज का शीशा तोडने के बारे में ही चर्चा होती रही। किसी ने साथी रमेश की प्रशंसा की तो किसी ने साथी रमेश की आलोचना। शीशा तोड़ने वाले साथी रमेश का कहना था- अगर हमारे लीडर ने कोई चेतावनी दी है, तो हमें उस चेतावनी को पूरा करना चाहिए। क्योंकि स्वयं लीड़र चेतावनी देकर पीछे हट गया, अत: उसे मुक्ति की लीड़रशीप भी छोड़ देनी चाहिए। लीडरशीप के मुद्दे पर कार्नर मिटिंग होने लगी और कौन लीडर बनेगा इसके लिए अलग-अलग खेमों में अलग-अलग रणनीतियां बनने लगी। चूंकि मैं अशोक की बहन थी , और उस वक्त मुक्ति को वही लीड कर रहा था, ऐसी मैं मेरी बड़ी अजीब हालत थी। उम्र की हिसाब से रमेश मैं और संगठन के अनेक साथी सब एक ही उम्र के थे। हमें उसके ऐसे शीशा तोडने की हिम्मत पर गर्व हो रहा था। इसलिए मैं एक तरह से उसके कदम से बिल्कुल सहमत थी। दूसरे ग्रुप ने खुलकर कहना शुरू कर दिया कि ये तो अशोक की बहनें है असल में ये उसकी कठपुतलियां है, वह जैसे चाहे उन्हें नचाता है, यह उसी की बात मानती है। मुझे रमेश की बात में भी पूरी सच्चाई दिख रही थी। उसका कहना था कि जब संगठन का लीडर कोई चेतावनी देता है तो उस पर लीडर को स्वयं सबसे पहले बढकर अमल करना चाहिए, और अगर चेतावनी कोरी चेतावनी है तो यह बात भी सभी साथियों को पहले से ही पता होनी चाहिए। हालांकि रमेश द्वारा शीशा तोडना था तो भावुकता में उठाया कदम। फिर भी हममें से किसी को भी उसकी ईमानदारी का मजाक उडाने का हक नही था चाहे वह संगठन के वरिष्ठ सदस्य ही क्यों ना हो। उल्टी मेरी राय में उसके इस कदम की सराहना ही की जानी चाहिए थी।
मुक्ति के सभी साथी हर साल 14 अप्रैल को अम्बेड़कर भवन पर 'दलित अत्याचार' विषय पर प्रदर्शनी लगाते थे। 14 अप्रैल आने से दो महिने पहले मुक्ति के अधिकांश साथी इन तैयारियों में जुट जाते थे। अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं से दलित उत्पीडन की खबरों की कटिंग काटना, अत्याचार के आंकडों पर चार्ट बनाना, कविताओं के पोस्टर बनाना, पत्र व्यवहार करना, इन सब कामों में हम सबको बहुत मजा आता था। हम कुछ लड़कियों और कुछ लड़के खूब बातें करते, खूब काम करते और साथ-साथ पढ़ाई भी करते। ऐसे ही एक दिन में अपने दो दोस्तों के साथ प्रदर्शनी के काम करने के लिए एक अन्य साथी सुरेश को बुलाने उसके घर चली गई। सुरेश रेफ्रीजिरेटर का कोर्स कर रहा था। सुरेश के माता-पिता सरकारी विद्यालय में अच्छी नौकरी कर रहे थे। उनका काफी बडा और सुंदर घर था।
मैंने सुरेश के पिता को कहा- “अंकल हम 14 अप्रैल को अम्बेडकर भवन में लगने वाली प्रदर्शिनी की तैयारी के लिए सुरेश को लेने आए है।” मेरी बात सुन सुरेश के पिता ने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा देखो- “तुम्हें तो कुछ करना नहीं है, सुरेश को तो कुछ करने दो। वो तुम्हारे साथ नहीं जायेगा।” हमने सुरेश की तरफ देखा तो उसने अपनी आंखें नीचे कर ली, कुछ नही बोला। उस दिन हम तीनों बहुत दु:खी होकर आए। सबसे ज्यादा दु:ख मुझे हो रहा था। सुरेश हमें बताता था कि उसके माता-पिता को उसका समाज कार्य पसन्द नहीं था। उनकी निगाह में हम कुछ आवारा लड़के-लड़कियां भर ही थे। हमारे सामाजिक कामों का उनकी निगाह में कोई मतलब नही था। सुरेश के माता-पिता दोनों आरक्षण का सहारा लेकर नौकरी पर बने हुए थे और समाज के लिए कुछ करना नहीं चाहते और जो युवा पीढ़ी कुछ करना चाहती है उसको ये आवारा कहते है, वाह रे बाबा साहब के अनुयायियों तुम्हें सौ-सौ सलाम।
मैं दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.एड कर चुकी थी। एम.ए हिन्दी में दाखिला लेना था। नाम रामजस कालेज में आ चुका था पर फीस के लिए पिताजी के पास पैसे नही थे। पिताजी ने जब तक फीस का इंतजाम किया तब तक दाखिले की अंतिम तारीख निकल गई। उस समय पुरुषोत्तम अग्रवाल सर कालेज के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष थे। मेरे एक मित्र वेद ने मदद की। वह मुझे पुरुषोत्तम अग्रवाल सर के पास लेकर गया औऱ मुझे दाखिला देने की गुजारिश की। सर ने वेद की बात मान ली और मेरा दाखिला रामजस कालेज में हो गया। मैं और हमारे अन्य साथी पुरुषोत्तम अग्रावाल सर के साथ पहले मुबाहिसा और बाद में साम्प्रदायिकता विरोधी मंच से जुड़ गई।
एक तरफ तो हम मुक्ति का काम कर रहे थे दूसरे तरफ हम और नए-नए लोगों से मिल रहे थे, बौद्धिक विमर्शों को सुनने और भाग लेने में मजा आने लगा था। उन्हीं दिनों जब रूपकुंवर सती हुई तो हमने उसके खिलाफ टाईम्स ऑफ इन्डिया बिल्डिंग के सामने प्रदर्शन किया। इस नाटक में मैंने सती रुपकुंवर का अभिनय किया था। सती प्रथा के खिलाफ हमने सर के साथ पुरानी दिल्ली के गली मुहल्लों में पर्चे भी बांट रहे थे। एम.ए के दौरान के ऐसी घटना घटी जिसने मुझे हिलाकर रख दिया। उससे मेरे परीक्षा परिणाम पर भी बहुत बुरा असर पड़ा। जब मैं बी.एड कर रही थी तब मेरी दोस्ती सुनीता से हुई जो कि हमारे ही समुदाय से थी, उसका एक दोस्त था बिजेन्द्र। हांलाकि वह नौकरी कर रहा था पर फिर भी आटर्स फैकेल्टी आता रहता था। वह बदमाश किस्म का आदमी था। लडकियों को देखकर फिकरे कसना, मजाक उडाना, मारपीट करना ही उसका काम था। एक बार मेरी एक सहेली रीता उसके पास बैठी हुई थी। बजेन्द्र जैसे गुंडे के पास उसे बैठे देख मैंने मजाक मजाक में रीता को उससे सावधान रहने की बात कह दी। मुझे नही पता था कि यह छोटी सी बात एक भयानक शक्ल ले लेगी। रीता ने मेरे सावधान रहने की सलाह वाली बात जाकर बिजेन्द्र को बता हुए कहा कि-“ अनीता मुझे तुम्हारे साथ बात करने को मना करती है, कहती है तुम लोग गुंडे बदमाश हो।” अपने बारे में मेरी राय सुनकर वह इतना क्रोधित हो गया कि वह मेरे पीछे आर्टसफैकल्टी में खुले आम चाकू लेकर घूमने लगा। जहां मिलता वहीं यह कहकर धमकाने लगा कि- “तुने मुझे रीता से बात करने से मना किया, इसलिए मैं तुझे गोली मारकर भी भाग जाऊंगा तो किसी को पता नहीं चलेगा क्योंकि मैं तो ऑफिस में अपनी हाजिरी दिखा दूंगा।” मैं घर में बिजेन्द्र के बारे में बताने से डर रही थी। मुझे लग रहा था घर में पता चलेगा तो सब क्या सोचेगें? कहीं वे ये ही ना सोचने लगे कि मैं पढाई की जगह आवारागर्दी करने जाती हूं। जबकि मेरा कभी भी इन बातों की तरफ ध्यान नहीं था। मैं भयंकर तनाव से गुजर रही थी। मेरा एम ए का एक प्रश्नपत्र इसी तनाव में खराब हो चुका था। मैं और बर्दास्त नही कर सकती थी। इसलिए अंत में मैंने अपने मुक्ति संगठन के दो साथी किशोर और बंटू को बिजेन्द्र के बारे में और उसकी हरकतों के बारे में बताया। मेरे दोनों साथियों में एक साथी बंटू तो पूरा बदमाश था। वह अपनी गली मुहल्ले में भी बदमाशी के लिए मशहूर था। दोनों ने मेरी बात ध्यान से सुनी और सुनकर मुझसे कहा- तुम चिंता मत करो। कल देखना यही गुंडा तुम्हारे पैर छुऐगा। अब तुम डरना छोडो और अगर अब वो तुमसे कुछ कहे तो तुम उसके सामने निडरता से तनकर खडी हो जाना। अगले दिन बिजेन्द्र मुझे कहीं नही दिखा। सामने से आते हुए किशोर और बंटू दिखे। किशोर ने मुझे हंसकर बताया कि उन्होने उसे बिल्कुल ठीक कर दिया है। फिर पूरी घटना का ब्यौरा देते हुए कहा- “कल शाम को ही हम दोनों ने उसे घेर लिया था। मैंने बिजेन्द्र के दोनों हाथ पीछे मोडकर जोर से पकड़ लिए और बंटू को कहा निकाल चाकू अभी फाड़ते है तेरा पेट सबके सामने। साले पढ़ने वाले बच्चों को सताता है। तू तो उसे कल मारेगा, हम तुझे आज ही जान से मारकर जायेंगे।” फिर किशोर और बंटू दोनो जोर जोर से हँसते हुए कहने लगे- “अरे वो तो हमारी फोक्की धमकी से ही डर गया। हमारे सामने जोर जोर से गिड़गिड़गाने लगा।” खैर मुझे बहुत राहत महसूस हुई। मैंने दोनों को बहुत बहुत धन्यवाद दिया। इसके बाद मेरी परीक्षाएं आराम से गुजरने लगी। मेरे ऊपर से तनाव का पहा़ड उतर गया। और सच में वह कभी लौटकर नहीं आया मैंने रीता से अपना सम्बन्ध हमेशा-हमेशा के लिए तोड़ लिया।
जिस साल मैं एम.ए फाईनल की परीक्षा दे रही थी उस साल दिल्ली विश्व विद्यालय में दलित विद्यार्थियों के दाखिले को लेकर काफी गड़बड़ी हुई थी। लगभग आधे छात्र-छात्राओं को उनकी बिना मर्जी के कोई भी कॉलेज तथा कोई भी कोर्स दे दिया गया था। यहां तक की जिसने कभी उर्दू और फारसी नहीं पढ़ी उसे भी ये विषय दिए गए थे। हम लोगों ने ‘डीन ऑफ स्टूडेन्ट वेलफेयर’ से बात करने की कोशिश की तो उसने हमें जातिसूचक गाली देते हुए धक्का देकर भगाने की कोशिश की, तब सभी स्टूडेन्टस ने गुस्से में भरकर डीन के ऑफिस में तोड़-फोड़ शुरु कर दी। इसी तोड-फोड में हमारे एक साथी महेन्द्र की उँगली का माँस फट गया। उसकी अंगुली से खून की धारा बह निकली। जिससे सभी घबरा गए। तुरंत उसकी पट्टी बंधवाने के लिए एस.एच.ओ ने एक मरियल सा पुलिस वाला हमारे साथ बाडा हिन्दूराव अस्पताल में भेज दिया। उगंली का फटा मांस सीने के लिए कोई डॉक्टर नहीं था, इसलिए कम्पाऊडर उंगली सीने के लिए सुई लेकर आया। सुई देखकर मुझे लगा सुई तो बहुत टेडी है। मैंने कम्पाउंडर को जोर से डांटकर बोला- “उंगली सिलने जा रहे हो पर तुम्हारे यहाँ एक सुई तक सीधी नहीं है।” कम्पाउंडर मेरी तरफ आश्चर्य से देखकर बोला- “मैडम सुई ऐसी ही होती है।” उसकी यह बात सुनकर मुझे बहुत तेज गुस्सा आ गया और मैंने उसको बहुत जोर से डांटा और महेन्द्र को लेकर बाहर आ गई। बाद में महेन्द्र ने खुद ही घर जाकर उस पर टांके लगवाकर पट्टी बंधवा ली। अगले दिन जब साथियों से अस्पताल में टांके लगाने वाली टेडी सूई की चर्चा की तो सब हंस-हंसकर लोट-पोट हो गए। उन्हें मुझपर बेहद आश्चर्य़ हो रहा था कि मैंने कभी टांके वाली सुई नही देखी थी। ना ही मेरे सामने किसी के कभी टांके लगे थे। मेरे जानकारी में कपड़े सिलने वाली सुई और जख्म के टांके सिलने वाली सुई में कोई अंतर नही था। मैं दोनों को एक समझती थी। शायद इसका कारण यह रहा हो कि परिवार या आस-पडौस में किसी के चोट लगने पर अधिकतर लड़कियों को दूर रखा जाता है। लड़के तो फिर भी बाहर घूम-घाम कर अपनी जानकारी बढाते रहते है। लेकिन लड़कियों के लिए यह अवसर आसानी से उपलब्ध नहीं होते। खैर जो हो मुझे बाद में अपनी बेवकूफी पर बडी शर्म आई।
तोड़-फोड़ और दलित विद्यार्थियों के साथ दुर्व्यवहार की खबर जनसत्ता में काफी बड़ी छपी थी। रिपोर्ट में हम सबके नाम भी छपे थे। हम अपने विद्यार्थियों की समस्याओं को लेकर पर विश्वविद्यालय के कुलपति श्री मुनीस रजा से मिलने की बार-बार कोशिश करते रहे पर नही मिल पाएं। कालेज खुलने के दिन एकदम नजदीक आ रहे थे। समस्या का कोई हल ना निकलते देखकर हम सबने ने निर्णय लिया की हम लोग आमरण अनशन करेगे। जब तक सब दलित विद्यार्थियों के दाखिले नही हो जाते उनको ठीक से कोर्स औऱ कालेज नही मिल जाते तक तक आमरण अनशन से नहीं उठेंगे। आखिर मैं अकेले 26 लड़कों के साथ विश्वविद्यालय गेट पर आमरण अनशन पर बैठ गई। मुक्ति से नई जुडी लड़कियां दिन में आती थी और शाम को अपने घर चली जाती थी। पर मैं रात को भी उन्हीं के साथ रुकती थी। हम लोगों को आमरण अनशन पर बैठे तीन दिन होने जा रहे थे। मेरे घर में केवल पिताजी को पता था। मैंने उनसे अनशन की संभावना का जिक्र किया था। अशोक भाई दिल्ली से बाहर थे। तीसरे दिन मेरी बड़ी बहन पुष्पा मेरे कपड़े आदि लेकर आई। इस बीच हंसराज सुमन भी हमारे साथ भूख हड़ताल पर बैठ गया। पूरे चार दिन हमें खाना खाएं बिना हो चुके थे। हमारे साथ अभी-अभी बारहवीं कक्षा पास किए 26 बच्चे भूखहडताल पर थे। भयंकर गर्मी झेलते खाने-पीने के बिना भी पांचवे दिन तक हमारी हिम्मत जस की तस बरकरार थी। दुख की बात है दिल्ली विश्वविद्यालय में छात्र-छात्राओं के बीच इतनी सारे राजनैतिक फ्रंट काम कर रहे थे पर ना तो उनमें कोई, ना विश्वविद्य़ाल प्रशासन से कोई हमारी सुध लेने आ रहा था। हां लेकिन उस दिन अखबारों में हमारे अनशन और हमारी चिंताजनक स्थिति के बारे में खबर छपी थी। उस दिन दोपहर तक हमारे दो-तीन साथियों की तबियत खराब होने पर पुलिस उन्हें विश्वविद्यालय की डिस्पेन्सरी में भर्ती कराने के लिए ले जा चुकी थी। मेरी तबियत बिल्कुल ठीक थी हां कमजोरी थोडी बहुत महसूस हो रही थी। पुलिस मुझे किसी तरह अस्पताल ले जाने के बहाने से अनशन से उठाना चाहती थी ताकि अनशन बिना किसी मांगों के माने बगैर खत्म हो जाएं या फिर सब हिम्मत हारकर खुद ही अनशन खत्म कर दे। मैंने पुलिस का विरोध करते हुए कहा ‘मैं बिल्कुल ठीक हूं, मुझे कुछ नहीं हुआ।‘ उधर मेरे पिताजी घर में बहुत गुस्सा और दुखी हो रहे थे। उन्हे लग रहा था कि मैं अगर भी अनशन से नहीं उठी तो भूख और गर्मी से मर जाउंगी। सुबह अखबार में खबर देखकर प्रशासन दुविधा में था। वह हमें और अधिक अनशन की इजाजत नही देना चाहता था। अत शाम को आठ-दस पुलिस वाले एस.एच.ओ सहित हम सभी साथियों को आनन फानन में उठाकर कुलपति के बंगले में ले गए। सुना था शायद कुलपति बीमार थे। इसलिए हमे सीधे उनके कमरे में ले जाया गया। जहां वे बिस्तर में बैठे थे। बातचीत के दौर में कुलपति महोदया ने साफ-साफ तौर पर हम विद्यार्थियों की सारी मांगों को मानने से इन्कार कर दिया। एक तो हम लोग पांच दिन से भूखे थे, दूसरे कुलपति का अडियल व रुखा रवैया देखकर मुझे चक्कर से आ गए। मैं जोर से गिर प़डी। थानेदार मेरे मुँह पर पानी के छींटे मार रहा था। मेरे साथ बैठे साथियों में लडकियां मेरे गिरते ही जोर जोर से रोने लगी। यह दृश्य देख कुलपति जी को एकदम पसीना आ गया। उन्होने तुरंत हमसे हमारा मांगपत्र मांगा। हंसराज सुमन ने फटाफट मांगपत्र आगे रख दिया। बिना एक पल गवाएं कुलपति जी ने हमारे मांगपत्र को बिना देखे बिना पढे अपने हस्ताक्षर कर दिए।ये हमारी जीत थी। सब साथी हंसते मुस्कुराते बाहर आए। बाहर आकर थानेदार ने मुझसे आंखे दिखाते हुए स्नेह से कहा '' भारती तेरी एक्टिंग मैं सब समझ गया था, वैसे तो बोल ना री थी और पानी डालने पर आंखे हिला रही थी। मैं बस उनकी बात पर मुस्कुरा उठी। अगले दो बाद हमने अपनी जीत की खुशी में टैगोर हॉल में मिटिंग रखी। हॉल विद्यार्थियों से खचाखच भरा था। जब हंसराज सुमन ने मंच से मेरा नाम पुकारा तो हॉल तालियों की गडगडाहट से गूंज उठा। और जब मैं चलती हुई मंच के डॉयस पर नहीं पहुँच गई तब तक लगातार तालियां बजती रही। यह हमारे विद्यार्थियों के हित में ईमानदारी और प्रतिबद्धता से आमरण अनशन पर बैठने और लडाई जीतने का सम्मान था जो विश्वविद्यालय में नये दाखिल बच्चे ताली बजाकर दे रहे थे। उस घटना को मैं कभी नहीं भूल नहीं पाऊंगी। हमारे साथ अनशन पर बैठने वाले सारे साथी बिल्कुल नए लडके थे, जिन्हें हम अनशन पर बैठने से पहले ठीक से जानते तक नहीं थे। और लडकियां जो अनशन पर तो नही बैठी पर रोज सुबह से शाम तक रोज बैठती थी, वे रोज अनशन पर आने-जाने वाले मेहमानों के लिए बिना कहे ही अपने घर से नींबू चीनी नमक लाया करती थी। उन सब बच्चों की लगन और विश्वास ने इस लड़ाई को जीतने में मदद की। और आखिरकार सभी को मनचाहे कॉलेज व विषय में प्रवेश मिला।