जड़ता १८ प्रकार की होती है .
१..
वह जड़ता जो रिश्तों में ठंडापन (कोल्द्नेस but not cool ) लाती है जो घटना चक्रों में अपने को आहत ,उत्साहित ,प्रेरित ,प्रभावित ,आकांक्षित अनुभव नहीं करते हैं ,वे या तो साधक हैं या गूंगे.२.. पौरुष हीन .(frigid ) जो अपने को बलवान नहीं मानते .कायर मन का एक आधार लेकर जीते हैं .३.....जो कठोर बुद्धि (stiff brain ) के हैं अर्थात जिनका ज्ञान वाद -विवाद के लिए ,जिनकी सामर्थ्य दूसरों को परेशान करने के लिए होती है वे तीसरे प्रकार के जड़ हैं .
४.
चतुर्थ प्रकार के जड़ हैं गति हीन ( motion less ) अर्थात जो जैसा है वैसा ही ठीक है ,जहां पड़े हैं पड़े रहेंगे '' देखा जाएगा '' ऐसा सोचते हैं .अर्थात जिन्हें उसी प्रकार ''मृत भावना '' में पड़े रहना है .
५..पांचवां प्रकार है संस्कार रहितो का अर्थात महात्मा तुलसीदास के शब्दों में ''जो न होंहि परदुख दुखारी ,तिनहि बिलोकत पातक भारी .''अर्थात जो दुसरे का कष्ट अपना कष्ट मानने को तैयार नहीं ,जो एक तरफ सहभागिता ,तथाकथित वरिष्ठता का राग अलापते हैं तथा पारस्परिक अविश्वास का जीवन जीते रहते हैं वे भी जड़ हैं ,क्योंकि उनका आचरण ऊर्ध्व चैतन्य नहीं ,अधो चैतन्य है .अर्थात क्या संस्कारित है ( cultured behaviour ) ,पारिवारिक समस्यायों का सामाजिक स्तरीकरण किस स्तर का होना चाहिए ,श्रद्धा वंदन ,प्रार्थना ,स्नेह इच्छा ,समीक्षा ,परिस्थितियों के प्रति कैसा व्यवहार हो उसे ही नहीं जान पाते .
६..
छठवां प्रकार है भावना रहित (sense less ) होना अर्थात वे इहलौकिक आचरण की संहिता का निर्वाह नहीं करते ,उन्हें इसकी परवाह ही नहीं की किस समय किससे कैसी वार्ता ,आचरण ,व्यवहार किया जाए ,यदि पढ़ा -लिखा व्यक्ति व्यवहार कुशल नहीं है तो वह किसी दुखित ह्रदय व्यक्ति को जो कष्ट में है उसकी सहभागिता न करते हुए उसे सांत्वना न देते हुए आरोप प्रत्यारोप के लिखित और मौखिक प्रमाण देता चले ऐसे लोगों के भी प्रकृति जड़ कही गयी है .
७...
जो किसी घटना विशेष को देखकर अपने को अवाक ( stunned )सा दिखाते हैं ,वह भी जड़ हैं ,अर्थात जब कहना चाहिए तब उनकी वाणी पर माँ सरस्वती की कृपा नहीं होती और जब सब कुछ हो जाता है तो ''जागते रहो ''की अलख जगाते हैं अर्थात जब बोलना है तब बोलते नहीं ,जब लिखना है तब लिखते नहीं ,जब समझना है तब समझते नहीं ,.ऐसे लोग वाणी जड़त्व से ग्रस्त होते हैं .यह सातवें प्रकार की जड़ता है .
८...
..आठवीं जड़ प्रकृति लकवाग्रस्त या अर्धांग पीड़ितों की कही गयी है अर्थात ये कार्य तो करना चाहते हैं ,किन्तु चलना चाहकर ,चल नहीं सकते ,दौड़ना चाहते हैं पर दौड़ नहीं सकते ,हँसना चाहकर भी हंस नहीं सकते यह काया जड़त्व है .अर्थात मानसिक चैतन्यता को काया जड़त्व शापित कर देता है .
९....
जडत्व होता है सम्प्रेषण हीनता का ,इसमें व्यक्ति चल भी सकता है ,कह भी सकता है पर वह मानसिक विकार से ग्रस्त होकर संवेदना का मूलाधार चक्र ही नष्ट कर देता है .उसे यह भी ध्यान नहीं रहता की वेदना की पहचान ( IDENTIFICATION OF SUFFERING ) कितनी आवश्यक है इस सृष्टि के लिए ,और यह स्थिति ना तो काया जड़त्व की है और ना वाक्यहीनता की ,यह स्थिति मानसिक तनाव किंतिम परिणति होती है .
१०....असद जड़त्व ........इसमें आनंद हीनता ,मनहूसियत , उदासी ,मूर्खता और रिश्तों में फीकापन आता है ,जीवन के प्रति शास्वत उत्साहपूर्ण सूर्य को ऐसे ही घने बादल आच्छादित कर लेते हैं और यह स्थिति पूर्ण रूपेणपराभव की होती है .इस प्रकार सच को व्यक्ति विशेष छिपाने की कोशिश करता है .
११....ग्यारहवीं स्थिति आती है जीव जड़त्व की ,आदमी शून्यालाप करता है .वह प्रकृति की परिस्थिति को समझने का प्रयत्न नहीं करता ,अपनी गलतियां दूसरों पर थोपने लगता है ,सितारों पर ,दुर्भाग्य पर तथा वह सच को सच नहीं मानता अपनी त्रुटि को निरंतर अस्वीकारता है .
१२.....मृत्यु जड़त्व ....जहां विकास की गति ,लय,स्पंदन ,पारस्परिक लास्य ,संग्रहणीयता ,निरंतरता नहीं है ,वही तो है चलता फिरता मानस कंकाल ,वहां पर केवल असंवाद ,अधोगमन ,अधः पतन ,अन्धकार ,अंधविश्वास ,अंध स्थिरता में जरा -मरण के सतत चक्र में चलते रहते हैं .एक गतिहीन गतिशीलता ( MOTIONLESS MOMENTUM )रहती है ..इसमें सब कुछ विनाश की और चलता रहता है .
१३.....बुद्धि मूर्ख जड़त्व ..............यह पंडितों में भी होता है ,उसे मूर्ख पंडित कहते हैं जो समय का ध्यान दिए बगैर अपनी विद्वत की पराकाष्ठा स्थापित करता है ,जैसे कोई विवाह मंडप में श्राद्ध संहिता पढने लगे .अथवा शवयात्रा में वसंत सुषमा पढने लगे ,या रोते हुए व्यक्ति को सांत्वना के स्थान पर दोषारोपण के लिखित या मौखिक साक्ष्य देने लगे तथा ऐसे ऐसे साक्ष्य देने लगे जिन्हें वह समय पर देने का साहस करता तो इतिहास का गति चक्र बदलता .
१४ ............यह चौदहवाँ है मूक जड़त्व ,यह जड़ता केवल परमात्मा के आशीष से ही दूर हो सकती है .बाह्य मुख चुप हो जाता है ,ह्रदय वीणा में ईश्वर वंदना प्रारंभ हो जाती है ,उसके साथ प्रकृति तादात्म्य स्थापित करती है ,सामान्य जन की निगाहों में वो चुप होता है किन्तु वह अपने हाव भाव से ,अपने कृत्य से ,अपने व्यवहार से ,अपनी मान्यता से वाणी संचारित करता है .
१५ ......पंद्रहवीं है वाष्प जड़ता ....आस -पास को जानने की इच्छा रखने के बावजूद ,आदमी उधर ही भागता है जिस के बारे में उसे पता ही नहीं की क्या है .लिखना चाहता है ...''रुको ,मत जाओ '' लेकिन लिख जाता है .......''.रुको मत ,जाओ '' यह जड़ता जो शीत और ताप का नतीजा है ,उसका आकलन यदि कोई नहीं कर पता ,तो क्या किया जा सकता है .अधिकाश दुर्घटनाएं इसी का नतीजा होती हैं
१६.......जड़ का सोलहवां अर्थ जल और अग्नि से है जैसे बादलों की गरज में आग है ,विद्युत् है ,वर्षा है ,वही स्थिति है की जब जड़ अर्थात जीवन रहित तत्व में संघर्षण होता है .वर्षा का जल प्लावन ,सिंचन ,जीवन का आधार तथा शरीर धारियों का मूल तत्व बनता है और उसी से सृष्टि का प्रारंभ है .इसमें सर्वस्व सृष्टि का सार है ''' बिन पानी सब सून '' अर्थात यदि भावना रहित व्यक्ति के आँखों का पानी सूख गया है तो उसका जीवन व्यर्थ है .बिना स्नेह जल के जीवन सूना है तो वह वैसे ही है जैसे वाद्य यंत्र ध्वनि तो करते हैं लेकिन उनमे उनका अपना कोई योगदान नहीं है वे घर्षण ,प्रवाह ,प्रयत्न ,यत्न के प्रतिफल हैं .यह ऐसा जल -जड़त्व होता है की ठंडा हो गया तो वर्षा ,गरम हो गया तो भाप ,अपना कुछ नहीं ,सब कुछ परमेश्वर का ही है ,क्यों ऐसा हो जाता है ,तापमान गिरने लगता है तो बरफ बरसने लगती है ,और ऊष्मा आ गयी तो नदी के किनारे आग का दरिया ज्वाला मुखी से बहने लगता है .चारों तरफ आग का पानी और पानी की आग दहकने लगती है .
ठन्डे पड़ते रिश्तों पर सूर्य की सुनहरी किरने पड़नी चाहियें तब चारों ओर बसंत आ जाता है ,फूल खिलने लगते हैं ,पर्वतों पर हिमाच्छादित चोटियों से प्यार का शीतल जल लेकर झरना फूट पड़ता है ,नहीं तो बर्फ की बरसात में बड़े -बड़े पर्वतारोही जिन्दा समाधि ले लेते हैं .तो ऐसा है जल -जड़त्व ,ग्लेशिअर सा अपने ऊपर बादल लिए हुए ..
१७ ....सत्रहवां अर्थ है -----जड़ भरत एक पुराण कालीन चरित्र जो दिव्य ज्ञान तो रखता है पर मोहवश वह विभिन्न योनियों में भटकता है क्योंकि जीवन की संध्या में जो भी ध्यान करता है ,अपने अगले जन्म में वही जन्म पाता है ,भटकता रहता है निरंतर गतिशीलता है में उसे ध्यान नहीं की वह क्यों भटकता है ,वह क्यों सबसे निबटने के विचार में भटकता रहता है ,शास्वत अधोगमन की परिक्रमा में जो मानसिक रूप से ईश्वर प्रदत्त कष्टकर प्रश्न पत्रों की परीक्षा दे रहे होते हैं ,उन्हें भटकाता रहता है .उसे किसी से भी स्नेह नहीं ,मात्र दंभ ,मिथ्याभिमान का मुखौटा पहने ,सबको काटता,धकियाता ,चीखता ,चिल्लाता आगे आता रहता है किन्तु वह स्वयं में एक कष्ट भोगित ,शापित ,प्रताड़ित आत्मा होती है जो उसे भटकने को बार -बार मजबूर करती है .
१८ ........जड़ का नवीनतम ,सामान्यतम और दिव्य रूप लिए अठारहवां अर्थ है ''मूल ''.अठारह पुराणों में श्रेष्ठ महाभारत में महामुनि वेद व्यास ने दो ही वचन कहे हैं परोपकार और पुण्य ,चाहे परपीड़ा पहुँचाने वाले ,पापी पामर ही क्यों ना हो ,आदमी अपने मूल विचार से हटे नहीं .मूल के अनेक अर्थ हैं .....
१....बीज बोना
२...आधारित
३....कथानक का मूल पाठ
४....मुख्य नगर
५...मौलिक (ओरिजिनल )
६....प्रथम ..
७....प्रथम कारण
८....आग की भट्टी
९...मूल ग्रन्थ ...
१० ...ज्योतिष का त्रिकोण
११ ...मूल पुरुष
१२ ....सांख्य सूत्र का आदिमंत्र
१३ ...सृष्टि प्रकृति
१४ ....मूल धन
१५ ...मूल मन्त्र
१६....मूल व्याधि
१७....मूल सूत्र
१८...मूल स्थान ( basement )
जड़ के अठारहवें अर्थ के अठारह अन्य अर्थ हैं ,यही अठारह प्रश्न यक्ष प्रश्न हैं की कैसे बोया है आपने वैसी ही फसल काटेंगे ,किस आधार पर किसके खेत में क्या बोया है ,कहीं खेत में नागफनी तो नहीं बो दी है .
कोई भी कथा बहुत ही सीमित होती है ,उसके मूल पाठ पर ही ताना -बाना चलता है .ताना -बाना कैसा है ,करघा कैसा है उससे ज्यादा ज़रूरी है की जुलाहा कैसा है .
जड़ अनंत ,जड़ कथा अनंता .आप अपने विचार इस जड़ कथा में जोड़ सकते हैं .कृपया जोड़ने की कृपा करें .तमान अर्थ और भी हो सकते हैं जो मेरे क्षुद्र मस्तिष्क में नहीं आये होंगे .उनका प्रतिपादन करें .....इति