Sunday, September 03, 2017

अग्निगर्भा



 

"इस बार रमाकांत स्मृति कहानी पुरस्कार के लिए निकट पत्रिका में प्रकाशित Divya Shuklaदिव्या दीदी की कहानी 'अग्निगर्भा ' का चयन किया गया है। स्त्री मन को सहजता से परखती, पुरुष के खोखले अहंकार पर चोट करती सशक्त कहानी लिखने और रमाकांत स्मृति कहानी पुरस्कार के लिए ढेरों बधाइयाँ और शुभकामनाएं दीदी को!
अग्निगर्भा कहानी फरगुदिया पाठकों के लिए..!"

अग्निगर्भा
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ठाकुर केदारनारायण सिंह की तिमंजिला कोठी में जश्न मनाया जा रहा है |
देर रात तक ढोल टनकती रहती ,जुग जुग जिए रे ललनवा ,के अंगनवा के भाग जागे ,
जच्चा बच्चा ,सोहर नटका सब चलता ,बेसुरी हो या सुरीली सभी बहुएँ गाने को उतावली थी |
आखिर बड़ी बहू की गोद जो भरी थी , गाँव की पुरनिया औरतें कहती ऐ भला सुने रहीं अब देखयु लिहिन पथरे पै दूब जामि आई है |
केदारनरायण जी के दो बेटे है बड़ा बेटा रूद्र प्रताप सिंह ,उनसे आठ बरस छोटा महेंद्र प्रताप | बीस बरस पूरा होते ही रुद्रा के ब्याह के लिए ठकुराइन काकी लड़की छांटने बेराने लगी ,हर शादी ब्याह में आई बिरादरी की सुंदर लड़की देखते ही उसका सिजरा निकलवा लेती | और गुपचुप तरीके से कुल खानदान ,कन्या का चालचलन सब कुछ पता करवाती ,उसके बाद कुंडली भी मिलवाती | पंडित जी को मोटी दक्षिणा दे कर सबसे पहले यही पूछती कन्या की कुंडली में पुत्रयोग है या नहीं बल्कि कई सुंदर सुशील लडकियां तो बस इसी कारण ठुकरा दी गई क्यों की उनकी कुंडली में कन्या का योग प्रबल था और ठकुराइन काकी कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहती थी |
उनको पोता खिलाने की बड़ी लालसा थी ,ठाकुर कक्का भी अपनी मूंछ के नीचे मुस्कराते रहते | अपने वंश के कुलदीपक की कल्पना में खिल जाते " कहते तुम सही कह रही हो अब बस रुद्रा का ब्याह हो ही जाना चाहिए , घर में कोई कमी तो है नहीं ऊँची दुमंजिला हवेली शान से सर उठाये खड़ी है ,सैकड़ों बीघा खेती है बड़ी उपजाऊ जमीन है ,आखिर अब हमारी वंश बेल को बढाने वाला तो आना ही चाहिए वरना किसके लिए यह सब बनाया है क्यों ठकुराइन ? “--”सच कह रहें हैं आप फिर वंश बेल भी तो कुंवर कन्हाई से ही बढ़ेगी " |
........सच में कोई कमी नहीं थी कोठी की सबसे ऊँची छत पर खड़े हो कर देखने पर जहाँ तक निगाह जाए सारी जमीने इन्ही की है ,महुआ जामुन के ढेरों पेड़ , केवल दशहरी आम के बाग़ ही हर फसल पर लाखों में बिक जाते | उस पर देसी आम के भी ढेरो पेड़ भी थे | काका ,काकी ने कभी देसी आम नहीं बेचा , यह हमेशा परजा और गाँव के बच्चो के खाने के ही लिए छोड़ दिया जाता |
पकी सींकर के लिए अक्सर ही बच्चो में सर फुटौवल होती ही रहती |
हालंकि रुद्रा भईया हमेशा कहते " इन्हें भी बेंच दीजिये बाबू जी चार पैसे क्या काटते है आप लोगों को ,एतना दया धर्म की कवनव जरूरत नाही " ...पर कक्का डपट देते बेटे को .... " अपने राज में करना ई चिरकुटई जब तक हम दुइनव परानी जिन्दा है ऐसन चली " बड़ा करेजा था काका काकी का , सारा गाँव अपना कुनबा ,चाहे बड़े घर के हो या छोट जाति के काकी कबहू कमी नहीं की व्योहार में |
आखिर बडके भईया की शादी तय हो गई | रूद्र प्रताप को सब गाँव घर में बडके भईया पुकारते है काकी ने तो कभी उनका नाम नहीं लिया , वो कहती " जेठ बेटवा कय नाम नाही लीन जात " |
उनकी बड़ी साध थी पतोहू उतारने की ,आखिर वो दिन आ ही गया जब चंदा बहू उतरी बड़े आंगन में | दुलहिन नाम से ही नहीं रूप से भी चन्द्रमा थी | अंजोर हो गई केदारनारायण सिंह की कोठी | काकी के तो पाँव ही नहीं पड़ते जमीन , में बिहंस बिहंस पड़ती ,इतवार मंगल नजर उतरवाती चंदा बहु की | पल पल मुंह निहारती ... " कुछ खा लेव दुलहिन ...मुंह झुराय गय... देखा त कैसयन गुलाब के फूल अस लाल लाल ओठ मुरझाय गय |
" अब बिचारी कितना खाती ,चंदा बहू बहुत गुणवंती रही ,मुंह अंधियारे भोरे ही उठ के स्नान कर लेती ,सास ,ससुर के पाँव आंचल से सात बार धर के माथे लगाती ,अंगना के कोने में बने मन्दिर की झाड पोंछ कर दिया जला देती | उनकी पायल की रुनझुन से घर आंगन गुनगुना उठता | धीरे धीरे काकी के सारे काम समझ लिया उन्होंने |
ठाकुर खानदान की एक पुरानी बखरी गाँव के दुसरे छोर पर थी | इस बखरी को केदार कक्का के परबाबा यादवेन्द्र सिंह ने बनवाया था इसे सब बब्बा की बखरी कहते थे | एक जमाने में बड़ी रौनक होती थी यहाँ | अब तो गाँव में छोटे या बड़े किसी भी घर में बेटी का ब्याह होता तो बारात का जनवासा यही दिया जाता |
बाकी समय गाँव भर के खलिहर लड़के यही पर जमावड़ा लगाते ,आजकल तो उन्ही के साथ रुद्रा भईया भी बैठकी करने लगे थे |बियाह के बाद से तो उनका ज्यादा समय घर से बाहर ही गुजरता |
शुरू शरू में तो सब को लगा माँ बाप का लिहाज़ है जभी लड़का दिन दोपहर अपने कमरे में नहीं जाता |
,गाँव के बूढ पुरनिया तो नए ब्याहे लड़कों को सुना कर तीखे शब्द बाण छोड़ते ... " आजकल के लौड़े लपाड़ों को लिहाज़ ही नहीं सरम लिहाज घोर घार के पी गए सब ,घरघुस्सू होई जात है मेहरारू के मुंह देखत मान .......अरे रुद्रा बेटवा से तनी सीख ले , कितना लिहाज़ है महतारी बाप ,नात बात सबय के ........ मजाल है कबहू दुलहिन के साथ बाहर दिखाय पड़े ...........अरे ऊ घर के अंगना में भी नहीं सबके सामने बोलत बतियात नहीं दीखते बडकी दुलहिन से " |..
नाते रिश्ते गाँव घर की नई नवेली दुल्हिनो को चंदा बहू का उदाहरन दिया जाता , जरा देर से आँख खुली नहीं कि दिन भर तीर चलाने का मौका मिल गया सास को |
पड़ोस वाली तिवराइन चाची तो अक्सर ही अपनी सिर्फ पांच महीने पुरानी बहू को जिस दिन भी उठने तनिक भी देर हो जाती यह श्लोक दिन कई कई बार सुनाती ..... " अरे सीख लो कछु चंदा बहू से ... तुमसे बडवार घरे की बिटिया ..... जैसन नाम वैसन रूप ....भोर होते ही सास के पाँव पर मस्तक नवाती है ...एक तुम दरिद्र की बिटिया ...... चार चिंदी और नान नान झाबा मा बतासा लाई .......और गुमान इतना ....सूरज देउता खोपड़ी पर चढ़ आये अभी महारानी की आँख नाही खुली .....अरे ऊ तो मर्द जात है ओकर कैसन बराबरी ....रात भर ठिल्ल्बाज़ी करिहै मेहरारू , मन्सेधू --अउर दिन चढ़े तक किवाड़ बंद ,लाज सरम सब बेंच खाएँ है --- ऊ का कहत है की --- तू पिया सुंदर ,मै सुकुवार /दूनो जने सोई ,होय भिनसार -- एनका बस चले तो दोपहरिया तक भतार का लई के सोवत परी रहें " |
दिन ,महीना साल बीतते देर नहीं लगती ,साल भर तो ठकुराइन काकी चंदा बहू पान फूल की तरह फेरती सहेजती रही , चिड़िया चुनमुन की तरह चुगाती ,अपने साथ ही खिलाती ,फल काट कर कमरे में रख आती कहती -- " लरिका है सरमात है हमरे सामने --जब देह संभरी तब्य तो हमरी गोद में कुंवर कन्हाई देई --अबय कमजोर है " रूद्र बाबू को कभी घोसती रहती तो कभी बहुत दुलार से कहती " दुलहिन को ले जाओ भईया घुमा लाओ बैजू से बोल कर गाडी निकलवा लो दुलहिन को सहर घुमाय ले आओ ,बाजार से ओकरी पसंद से जवन चाहे देवाय दो ,तनी गहना गुरिया गढ़वाय देव पहिरे ओढ़य की इहे त उमिर है "
नवा सनीमा लगा है देख न आओ तुम दोनों " ....गाँव से लगे कसबे में सिनेमा हाल है .....सभी नई उमर के जोड़े कभी इजाजत ले कर तो अक्सर छुप पर पिक्चर देखने जाते , बहाना होता मन खराब है तबियत ठीक नहीं है डाक्टर से दवाई ले आये ..... आते समय दुकान से विटामिन और दर्द की गोलियां ले आते .....चोरी का गुड कितना मीठा होता है यह उन के चेहरे पर दिख जाता |
पर रूद्रप्रताप नहीं गए तो नहीं गये -- इतनी सुंदर सुघर पत्नी ......और कोई होता तो दिन दोपहर इर्दगिर्द भंवरे की तरह मंडराता रहता .....नई नई शादी का यह प्रेम हर पल पाने की यह लालसा स्वाभाविक होती है |
चंदा बहू की आँखे दरवाज़े की ओर ही लगी रहती हर पल बाट जोहती लेकिन वो क्या कहती किसी से --उनके दिन द्वार पर टकटकी लगाये और रातें करवट बदलते गुजरती है |
पहली बिदाई में जब मायके गई तो ,सभी सखी सहेलियों ने घेर लिया | भौजाइयों ने भी चुहल करनी शुरू कर दी | सभी उसे खोद खोद कर मिलन यामिनी की एक एक बात पूंछ रही थी -- वो मुस्करा भर दी , माँ ,चाची की अनुभवी आँखों ने कुछ ताड़ जरुर लिया ,शक तो बड़ी भाभी को भी हुआ पर सब को उसने बहला दिया | आश्वस्त हो गए सब ,महीने भर रह कर वापस आ गई |
सास बहु में प्रेम ही कुछ ऐसा था ,काकी का मन ही नहीं लग रहा था घर की दुल्हनियां बिना ,पर रुद्रा ने एक बार भी न पूछा | माह बीत गया कोई चिट्ठी न संदेस | अब तो गाँव के डाक घर में टेलीफोन भी था , और डाकघर घर के एक कमरे में ही खुला था |
चंदा के बाबू जी ब्लाकप्रमुख और दबंग ठाकुर थे इलाके के ,सो फोन सेवा उधर भी थी ,पर इससे क्या जब चाह ही न हो | ....हाँ सास बहू जरुर बतिया लेती और ठाकुर कक्का भी अपनी रानी बहु का हाल लेते रहे ....अपने मायके में ससुराल का भरम बना , अपनी सखी सहेलियों से झूठे सच्चे किस्से सुना कर उन्हें संतुष्ट कर वापस अपनी ससुराल लौट आई रुद्रा बहू |
जैसे जैसे समय बीता ठकुराइन की अकुलाहट बढ़ने लगी --अब ठाकुर केदारनारायण भी पत्नी से हंसी मजाक में कह जाते " अरे कब दावत करवा रही हो ---अबकी बड़का ब्रह्मभोज अलग से करेंगे चाहे जितने लोग आवें ---देवी मैया को बलि दे कर बिरादरी के खाने -पीने का भी इंतजाम रहेगा ..........आपको याद है ठकुराइन रुद्रा के जन्म पर कितना जोर दार नाच गाना हुआ था .....
अब उसके बेटे के जन्म पर उससे बढ़ कर ही होना चाहिए ... "अपना बस कहाँ -- देवी मैया कृपा करे जल्दी ई दिन देखय को मिले " .....काकी बीमार रहने लगी थी .....मन्दिर मन्दिर माथा टेकती --पीर फकीर कुछ नहीं बाकी रहा ......कोई पंडित महात्मा सुनती दौड़ जाती बहुरिया को ले कर ........दान दक्षिणा ,व्रत नेम धरम सब कुछ कर डाला |
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इधर रुद्रा ठाकुर का जमावड़ा बाबा की बखरी में दिन दिन भर लगा रहता | वही देर रात तक टेपरिकार्डर बजता गाना सुना जाता भांग घोटी जाती .....दूध घी की कोई कमी तो थी नहीं , मुगदर भांजते और कटोरा भर बादाम और घी पी जाते , उस पर खालिस दूध सीधे थन से निकाला हुआ लोटा भर के डकार लेते | कसरती शरीर ,उघार देह पर मछलियाँ मचलती दिखती ,ऐसी देह बनाई थी रुद्र ठाकुर ने |
रात पहर भर बीत जाती तब जाते सोने और भोरे ही फिर यही मजलिस में हाज़िरी लग जाती | कभी अगर चंदा बहू मनुहार भी करती "आज तनिक जल्दी आ जाव --दोपहरिया में घर पर खाना खाय लेव " तो आँखे तरेर देते और बेचारी चुप हो जाती , चंदा बहू तो जैसे धरती मईया से सहन शक्ति आशीष में मांग लाई थी |
न तो उनकी चादर कभी मैली हुई न ही भोरे भिनसारे कभी बाल धो कर उन्होंने सास का पाँव छुआ ....वह तो उठते ही सीधे पहले अपनी अम्मा के पाँव पर मस्तक नवाती फिर गुसलखाने में जाती ,काकी ने यह बात बड़ी बारीकी से गौर किया .... " दुलहिन वैसी ही कोरी लागे जैसे बिदा करा के लाई थी ".......कई दिन सोचती बिचारती रही ,बड़े ठाकुर केदार बाबू से सलाह मशविरा किया बहुत देर तक बैठक बंद कर के बात हुई |
फिर निर्णय हुआ शहर ले जा कर बहू को डाक्टरनी को दिखाया जाय ,ई बैद हकीम के बस का नहीं | धीरे धीरे पांच बरस बीत गए ,हम दूनो प्राणी तो अब भगवान भरोसे ही है ..........शहर की डाक्टर ने चंदा को देखा ......खून की जांच करवाई .... " कमजोर तो हो ही गई है दुलहिन काकी बोली " .. डाक्टर से कुछ पूछना चाह रही थी पर वो उन्हें दुसरे केबिन में ले गई और जब काकी वहां से निकली तो उनका मुख सफ़ेद था | बहू ने कहा ......... "अम्मा क्या हुआ तबियत खराब है क्या?...
डाक्टर हमारी अम्मा को देखिये इनके हाथ पाँव क्यों ठंडे हो रहे है ? " ---" कुछ नहीं हुआ सब ठीक है आप इन्हें ग्लूकोस दीजिये ..और अपने पति से कहिये वह अपनी जांच करवा लें .... यह विटामिन की गोलियां लेती रहें सब ठीक है आप में " |
गाँव लौटते समय काकी रास्ते भर सोचती रही ,महेंद्र के बाबू जी को का बतायेंगे , बड़ी आस पाले है गोद में पोता खिलाने की ,अब ललक तो उनको भी तो है पर क्या करें , बियाह के पांच बरस हो गए कोई महीना ऐसा नहीं गया जब दुलहिन चार दिन रसोई से फुरसत न की हो अचार खटाई से दूर रहती उन दिनों बाल धोने के दिन कभी आगे पीछे न होते काकी लाख मनौती मानती तब भी हर महीने निराश हो जाती |
अब तो काकी ने चमत्कार की आस पाल रखी थी ,पर आज डाक्टरनी की बात से मानो बज्रपात होई गया , वो अकेले ही बडबडा रही थी " ई का देवी देउता है ,चार किताब पढ़ के केहू के भाग लिख देइहैं " सोचते बिचारते अपने आप को समझाते रास्ता कब पार हो गया पता ही नहीं चला |
घर पहुँचते ही देखा केदार बाबू बाहर ही बरामदे में बेचैन हो कर चहलकदमी कर रहे है |
गाड़ी रुकते ही खुशखबरी सुनने की आस लिए काकी की ओर देखा और बोले ---" रुद्रा की अम्मा बड़ी डाक्टरनी ने जांच किया क्या बताया ? " ---
काकी उनका मुंह निहारती रह गई | बालकों जैसी चमक थी उनकी आँखों में जैसे कह रहे हो कब आएगा नन्हा खिलौना हमारे आंगन में | .... " अरे सांस तो लेने दें बताउंगी सब बताउंगी --पर फुरसत से " ----
" अरे मलकिन हमहूँ को बताव तो कब बाबा कहे वाला आई ,वैसे तो अबहूँ हमार ठकुराइन गवने की दुलहिन लागत है और हम बांका जवान ,सुनो अगर तुम चाहो तो तीन चार बेटवा अबहूँ पैदा कर लें ".----
---" ह्त्त बहुत बेसरम होई गए आप तो बहू आय गई पर साध नहीं गई , भजन कीर्तन की बेला है अब तो ".....
.. " तो तुमहीं करो भजन कीर्तन फिर न हमको दोस न देना ......अरे घर में भूखा रखोगी तो बाहर खायेंगे ही ..........फिर तुनतुनाना मत ,अरे मनुष्य है कवनो देवता नहीं इससे तो देवता भी नहीं बच पाये ........तुम ही थी जो हम जैसे छुट्टा सांड को नाथ ली ........गवने की पहली ही रात न जाने कौन सा मन्तर फूंका कि ऊ बेला और ये आज का दिन तुम्हरे आंचल में पड़े है ये केदार बाबू " ----
कह कर धीरे से काकी को टीहुनिया दिया और ठठा कर हंस पड़े | लाज से लाल हो गया ठकुराइन का मुख मन ही मन तो निहाल हुईं पर आँख तरेर कर चंदा बहू की ओर इशारा किया ...... "अब चुप भी रहो तुम " ......." अच्छा तो बताओ क्या बोली डाक्टरनी ? "......" अरे कुछ नहीं सब ठीक है बस जब देवी मैया की इक्छा होगी तो दुलहिन की गोद भर जायेगी ........सुनो एक बात कहें महेंद्र के बाबू " ..... " हां बोलो न "
........... " अपना छोटका की भी तो बियाह की उमिर हो गई है ---- अब उसके लिए अच्छे खानदान की लड़की देखे आप ........ इधर रामा नाऊ से जिकिर भर करे उधर अपने आप बात फैल जायेगी ...और देखवार आने लगेंगे " ........महेंद्र ने इसी साल बारहवी का इम्तहान दिया था |
...पढने में तेज़ था ........... " अब सत्रह बरस का हो गया है लड़की देखते देखते साल बीत ही जाएगा ...तब तक अट्टारह साल का भी हो जाएगा ,,, इसी गर्मी में शादी ठान लेते है " काकी ने पति से कहा .... यह बात छेड़ कर पहली बार कुछ छुपाया उन्होंने डाक्टरनी की आधी बात ही बोली वह ---
युधिष्ठिर की भाँती ......अश्वथामा हतो ,,,नरो वा कुंजरो .....जैसा कुछ बोल कर टाल गई |
पति से जीवन भर झूठ नहीं बोली अब सच कह कर कैसे ठेस लगायें ... खुद पी गई हलाहल और रोक लिया कंठ में नीलकंठ की भांति |
" बहू से भी कुछ नहीं कहा बस इतना की बड़का भईया आपन जांच करवा ले तो .....तो मन शांत हो जाय " .... " अरे सब ठीक होई .....डाक्टर के चोंचले है पैसे के लिए " काकी बोलती जा रही थी --
"हूँ " कह कर रह गई चंदा ---काकी ने अब अपनी आस महेंद्र पर टीका दी |
तेज़ी से लड़की देखने का सिलसिला चल पड़ा ---- "बडकी दुलहिन के मायके से ही अगर छोटके के लिए लड़की मिल जाती तो बहुत अच्छा रहता " ---पर चंदा बहू के कोई बहन थी नहीं नाते रिश्ते में भी सब बियाही बरी थी |
आखिर दो साल बीतते बीतते महेंद्र बाबू घोड़ी चढ़ ही गये ....पर ब्याह से एक पहले शर्त रख दी " लड़की तो भौजी ही पसंद करेंगी " |
अब भौजी के लाडले देवर जो थे माँ जैसा सम्मान भी देते और दोस्त जैसा मान भी |
.जिद ठान बैठे " जिसको भाभी हाँ करेंगी हम उसी से ब्याह करेंगे "..... सास के साथ चंदा भी देवरानी देखने जाती और आखिर में चुन कर हीरा लाई अपने लाडले देवर के लिए |
---लड़की की फोटो भी मांग लाई उसकी माँ से ....महेंद्र बबुआ को दिखा कर छुपा लेती ........."अब दिखा भी दो भौजी देखे तो कौन हुस्न परी छांटी हो तुम .....
कोई भी हो तुम्हारा देवर बीस ही रहेगा " ..........
. " अब बबुआ अब तक तुम थे अब से हम देवरानी की तरफ ही रहेंगे " .......
."अच्छा पहला बदल ली बड़ी खराब हो भौजी और हमको अकेला छोड़ दिया " .....
.मुंह बिसूर कर झुट्टे ही बैठ गए महेंद्र बाबू | भौजाई का मन पानी हो गया तस्वीर थमा दी तुरत ही देवर को ----
बहुत सुंदर कन्या थी मोहनी | देवरानी जेठानी का जोड़ बराबर था | बड़े चाव से शादी की तैयारी में लग गई चंदा ,आखिर बड़ी बहू थी सारी ज़िम्मेदारी अब उन्ही की थी | काकी उन्हें बताती जाती वो निपटाती जाती | रोज़ रात को गाँव की औरते बडके आंगन में जुटती बन्ना गाया जाता ,नाच होता चंदा बहू का कंठ बहुत सुरीला था कोयल सी कूकती | नाचती तो ऐसे जैसे पाँव में बिजली लगी हो | घूँघट को तर्जनी और मध्यमा ऊँगली में दबा कर गोल घूमती तो पतली कमर लचक जाती ...और एक ओर झुक झुक जाती मानो फल से लदा पेड़ झुक जाए | ऐसी देहयष्टि की स्वामिनी पूरे दस गाँवों तक नहीं थी | बारात सजी केदार काका लांगदार धोती और प्योर सिल्क के कुरते में सजे अपनी रोआबदार मूंछो पर ताव दे रहे थे आखिर समधी थे ,रूद्र प्रताप भी बहुत प्रसन्न मन से बारात का इंतजाम देख रहे थे ,कन्या पक्ष की शानदार आवभगत से मुदित थे सभी परिजन .|.
.विवाह की रस्म पूरी हुई और महेंद्र बबुआ दुलहिन बिदा करा लाये |
काकी ने अपने छोटके की दुलहिन उतारी | परछन ,कोहबर आदि की रस्म पूरी कर दुलहिन को उसके कमरे में बैठा दिया गया | काकी ने कहा ...... " अब मुंह दिखाई बाद में होगी तनी बहुरिया पीठ टिका ले थक गई होगी ....रात भर ब्याह हुआ उसका भी जागरण ---फिर बिदाई की पीड़ा और रास्ते की थकान भी तो है " ---तभी पीछे से गाँव की भौजाई बोल पड़ी ..... " आज रात का भी तो जागरण है न काकी "........ " चुप बेसरम " ..कह कर काकी हंस दी |
महेंद्र बाबू सजे धजे बहाने बहाने से कमरे का चक्कर लगा रहे थे | ...... तनिक एक झलक दिख जाए ......पर कैसे देख पाते इतना आसान थोड़ी था दुलहिन की झलक पाना .... हाथ भर घूँघट में छुपी थी मोहनी की मोहनी सूरत | " इंतज़ार करो बबुआ रात का ...उससे पहले मुलाकात न होगी " ....चंदा भौजी ने मुस्करा कर कहा |
मुंह दिखाई हुई | चाँद का टुकड़ा थी मोहनी दोनों बहुएँ एक से बढ़ कर एक थी | काकी के भाग्य को सभी ने सराहा | शादी ब्याह का धूम धडाका खतम हुआ |
जीवन पुरानी पटरी पर लौट आया | बडकी दुलहिन अभी देवरानी को काम में हाथ नहीं लगाने देती ,बाकी का काम काज तो करने को तमाम लोग थे , पर रसोई अपने हाथ से बनाती चंदा बहू |
कई बार मोहनी ने कहा भी ..... " जिज्जी अब हमको भी बताइए कुछ करने को बैठे बैठे ऊब होती है " ... " नहीं अभी नहीं अभी कुछ दिन हँस खेल लो फिर तो ई खटराग करना ही है " |
छह महीने तक काकी के लाख कहने पर भी चंदा ने मोहनी से कोई काम नहीं करवाया |
बहुत दुलारती अपने देवरानी को |
फिर धीरे धीरे मोहनी भी सब सीखती गई बड़ा मेलजोल था दोनों में मिलजुल कर काम निपटाती , जब दोनों बहुएँ सास के पांव दाबती तो काकी मन ही मन भगवान को प्रणाम करती , घर भर गया था उनका |
साल बीतते बीतते मोहनी बहू ने खुशखबरी भी सुना दी |
मारे ख़ुशी के काकी का कंठ भर आया ..केदार बाबू ने जब सुना वो बाबा बनने वाले है ..कुछ देर चुप रहे फिर दोनों हाथ आकाश की ओर उठा इशारा किया सब उपरवाले की महिमा है आँखे नम थी ख़ुशी से ..चंदा बहू तो देवरानी को हाथ में पानी का गिलास भी थमाती | डाक्टर को दिखाने ले गई .....माँ बच्चा दोनों ठीक है कह कर डाक्टर चंदा से बोली .. "क्या हुआ आपके पति ने अपना टेस्ट करवाया ,आजकल मेडिकल साइंस बहुत आगे है बहुत से तरीके है दवाएं है --आपकी गोद भर सकती है --हां एक बात आपसे पूछना है --आपके और आपके पति में कोई मनमुटाव तो नहीं है ? " ............. " अरे नहीं डाक्टर दीदी " ........कह कर वह चुप हो गई |
छोटकी दुलहिन का सतवासा पूजा गया | खूब गाना बजाना हुआ | बड़ी धूमधाम से मोहनी की गोद भरी गई |
चंदा सबके सत्कार में लगी रही सब अच्छे से सम्पन्न हो गया | समय पूरा होने पर सुंदर स्वस्थ बेटा हुआ | हफ़्तों बधाई बजी ,मिठाई बाटी गई ,गरीब गुरबा में दान पुन्य हुआ |
अब कभी कभी बडकी बहू जिंदगी के खालीपन को सोचने लगी ,सोचती कैसे कहूँ इनसे -एक बार डाक्टर को दिखा कर जांच करा लो --हफ्ता भर बाद आज रूद्र बाबू बब्बा की बखरी से घर आये थे खाना खा कर कुछ देर बाप भाई से बतियाये फिर सोने के लिए कमरा में आ गए , बड़ी हिम्मत जुटा कर चंदा ने कहा ... ...."आपसे एक बात कहनी थी " ........." कहो क्या कहना है " ..बड़े मनुहार से पति की बांह थाम कर धीमे से बोली ....."आप अपनी जांच करवा लीजिये ...हम डाक्टरनी को दिखाए थे उन्होंने ही कहा है " इतना सुनते ही भडक गए रूद्र बाबू , जैसे बिच्छू ने डंक मार दिया हो ..." बड़ी निर्लज्ज हो तुम तनिक शरम नहीं आई ऐसी बात बोलते हुए ....हम क्यों जांच कराये अच्छा भला स्वस्थ शरीर है .....कमी तुम्हारे अंदर है ......बंजर जमीन हो तुम ....तुम्हारा तो मुंह देखने को भी मन नहीं करता " .......अवाक् रह गई चंदा क्या कमी है मुझमे ......" क्यों नहीं देखते हमारी ओर -क्या आप किसी और से प्रेम करते है .........बोलिए तो ? ".........." सोने दोगी या अभी उठ कर चला जाऊं ? " .......मुंह में आंचल ठूस कर रात भर कलप कलप कर रोई ......सुबह मोहनी जेठानी की लाल गुडहल सी आँखे देख कर समझ गई ..........काकी तो डबडबाई आँखे पोछ कर रह गई | उस दिन के गए रूद्र घर पन्द्रह दिन तक नहीं आये |
जब अपना कोई बस न हो सब उपरवाले पर छोड़ देना चाहिए |
चंदा को अपने पिता की बात बार बार याद आई आज .......उसने निर्णय लिया अब इस बारे में पति से कुछ नहीं कहेगी समय के हवाले कर दिया सब .....बार बार अपने स्त्रीत्व का अपमान सहन नहीं होता ,कोई जन्म का पाप ही होगा जो सब कुछ देके भी अधूरा रखा देवी माँ ने | कभी कभी देवर ,देवरानी की प्यार भरी छेड़ छाड़ , इस उमर में बाबू जी का अम्मा की बीमारी में बेचैन होना ,कभी कभी उसके मन में भी मीठी चाह जागती पर -----
जांव जेंवार नाते रिश्ते में सभी रूद्र और चंदा की जोड़ी को राम ,सीता की जोड़ी कहते ,बात भी सही है --- लम्बे चौड़े रूद्र प्रताप कसरती बदन झूमते चलते ,जिधर से निकलते क्वारी लडकियाँ तो छोडो ,बहुएँ भी घुंघट की आड़ से एक नजर झाँक ही लेती | और चंदा बहू वो जैसा नाम वैसा रूप गुणवंती सुशील बहू ,काकी काका के पुन्य कर्मो का फल ही तो है |
चंदा के मुख से कभी पति के लिये आह नहीं निकली | वो कमरे में ही आँख के आंसू तकिये में छुपा कर बाहर आती | अब कुछ कुछ काकी की तबियत भी ढीली रहने लगी | अब कोई चाह बाकी नहीं रही ,भगवान् ने कुवर कन्हाई भी खेलाने को दे दिए | पोते को बाबा दादी कुंवर कन्हाई ही बुलाते |
एक दिन काकी ने केदार बाबू से कहा ...... " सुनिए अब सब सुख देख लिए चार धाम की यात्रा पर ले चलिए अब सारी मान मनौती पूरी कर ले" | -
--" अभी कहाँ रुद्रा की अम्मा अभी तो रूद्र प्रताप की संतान का मुख भी देखना है ....चाहे उपरवाला एक बिटिया ही दै दे "..... "कह तो आप सही रहे है अब उपरवाला जो चाहेगा वो करेगा" |
काकी जानती थी यह असंभव है |
...सब कुछ चंदा बहू के हाथ सौंप समझा बुझा के सारा इंतजाम कर के दोनों यात्रा पर निकलने की तैयारी में लग गए |
घर के बाहर के काम के लिए भोला पंडित के बेटे को सहेज़ दिया , भोला पंडित तो अब रहे नहीं पर परिवार का मेलजोल बहुत है | पंडिताइन को केदार बाबू भाभी पुकारते | एक ही बेटा है उनका शिवेंद्र पाण्डेय --पन्द्रह बरस का था जब भोला पंडित सिधार गए |
उनकी बड़ी इक्छा थी ,,बेटे को पढ़ा लिखा कर सरकारी नौकरी में लगा दे , पुरोहिती करवाना नहीं चाहते थे सो बेटे की पढ़ाई लिखाई पर विशेष ध्यान देते |
और वह पढ़ाई में तेज़ भी बहुत था पहले नम्बर से पास होता ,दसवी में था तभी पिता का साया उठ गया पर |
पंडिताइन ने पति की इक्च्छा पूरी करने में कोर कसर नहीं छोड़ी |
आखिरकार शिवेंद्र पाण्डेय सरकारी नौकरी में आ ही गए | पास के शहर में नियुक्ति हुई वहीँ परिवार ले कर रहते ,महीने दो महीने में एक चक्कर घर का भी लगा जाते माँ के पास |
जब भी गाँव आते तो काका से मिलने हवेली जरुर जाते |
दूसरा घर था यह उनका | पिता के बाद काकी काका ने ही तो बहुत सहारा दिया माँ बेटे को ,जिसे दोनों निभाते भी थे , उस समय हालांकि रूपया पैसा अन्न पानी अगर खुला हाथ नहीं था तो भी माँ बेटे के लिए बहुत था ,फिर पंडिताइन सुघर थी हाथ दबा कर खर्च चलाती रही और समय पार हो गया |
काका ने शिवेंद्र के शहर में रहने का इन्तिज़ाम कर दिया और बीच बीच में हाल खबर ले ही आते या मंगवा लेते तो पंडिताइन भी निशचिंत रहती | .
..ऐसा था दोनों घर का हार व्योहार --अब जाते समय केदार बाबू ....ने सहेज़ दिया पंडिताइन भाभी को ......" रुद्रा को तो भौजी तुम देख ही रही हो बस पैसे से मतलब है घर से नहीं वह पुरनकी बखरिया में लफंगों की बरात बटोर के मठाधीशी करने में लगा है सुना है प्रमुखी लड़ने की तैय्यारी में है |
गाँव भर के बहेतू लौंडे लफाड़े और दिमाग चढ़ाए है उसका |
ख़ैर उसकी कोई बात नहीं --बस भौजी दुलहिन का ख्याल रखियेगा " -- पास खड़े शिवेंद्र को सहेजा--- " बेटा तुम दो चार दस दिन में चक्कर लगा लेना हिसाब किताब देख लिया करना ,अपनी बडकी भौजी से पूछते रहना दवा दारु के लिए " |---पंडिताइन बोल पड़ी " अरे भईया हम है परेशान न हो जाओ तुम दोनों पहली बार निकरे हो खूब घूम फिर के आना ....शिवेंद्र देख लेगा बीच बीच में छुट्टी ले कर .....पहली बार तो कवनव काम कहे हो तुम चिंता बिलकुल न करो हम सब संभार लेंगे " |
कम से कम महीना भर के लिए जा रहे थे उससे ऊपर भी हो सकता था | केदार बाबू का विचार था इस बार ठकुराइन को खूब घुमाएंगे जिंदगी भर ओरहन देती रही हमको अबकी सब शिकायत दूर कर देंगे सोच के बैठे थे रिश्तेदारी में भी हो आयेंगे बार बार कहाँ जाना हो पाता है |
चारधाम की यात्रा का तो छोटके बेटा महेंद्र प्रताप ने पक्का इंतजाम करवा दिया था |
टिकट की सारी बुकिंग से लेकर ठहरने तक ताकि माँ बाप को कोई परेशानी न हो |
दोनों बहुओं ने नाश्ता पानी साथ के लिए बाँध दिया था |--
-काकी ने महेंद्र और दोनों बहुओं को समझाया ...... "घर दुआर पर ध्यान देना वैसे पंडिताइन चाची है ही उनका बहुत सहारा है ऊ तो रहबे करिहै वरना बड़का भईया का कौन ठिकाना आवे न आवे -- ऊ तौ बब्बा की बखरी पर अड्डाबाजी मा लाग रहत है , अब एक अउर नवा नवा चस्का लाग है इलेक्शन का
बौराय गय है --देवी मईया सद्बुद्धि दें अउर का कही हम " | फिर दोनों बहुओं से बोली
,तुम सब तनिकौ चिंता न करना पंडिताइन का बेटवा है न ऊ सब बाहर के काम काज देखिहयं "
काका जानते थे छोटा बेटा महेंद्र प्रताप हिसाब में अभी कच्चा है इसीलिए यह जिम्मेदारी शिवेंद्र को सौंप दी थी |
--सब तरफ से निशचिंत हो कर केदार बाबू पत्नी को लेकर तीरथ पर निकल पड़े |
पंडिताइन चाची नियम से शाम सवेरे चक्कर लगाती हाल खबर लेती ..कभी कभी दोपहरिया को यही महेंद्र बाबू के कुंवर कन्हाई को खिलाते दुलारते सो भी जाती |
चंदा बहू और मोहनी चाची को सास बराबर सम्मान करती ,खाने पीने से लेकर लिहाज़ करने तक | शिवेंद्र भो दो चार दिन में आ कर हिसाब किताब भी देख जाते , आते ही आवाज़ लगाते -- "बडकी भौजी चाय नहीं पिलाएँगी "....मुंह लगे देवर थे चंदा बहू के , शहर वापस लौटेते समय कोठी जाकर कागज़ पत्र देखा और बोले ....... " भौजी आज जा रहा हूँ अगले हफ्ते फिर चक्कर लगाऊंगा ---कुछ मंगवाना हो तो बता दो छोटकी दुलहिन से भी पूंछ लो उन्हें कुछ मंगवाना तो नहीं ?" .
...नहीं शिवेद्र बाबू कुछ नही मंगवाना फिर महेंद्र बाबू है न "
शिवेंद्र पाण्डेय नौकरी पर वापस चले गए |
रूद्र प्रताप यही पुराने घर पर बड़का बरगद के तरे जमावड़ा लगाये राजनीत बूकते रहते |
रूपया पैसा की तो कोई कमी है नहीं , बस खान पान का दौर तो चलता ही आजकल तीन पत्ती भी का भी नया शौक पाल लिया था |
दोस्त अहबाब चुहल भी करते .. " रुद्रा भौजी बाट जोह रही होंगी जाओ नहीं तो खबर लेंगी " ..
. "अरे हमारे यहाँ औरते जबान नहीं खोलती तो खबर क्या लेंगी ..मर्द है भाई कोई मेहरा नहीं की हरदम जोरू का पेटीकोट पछारें " ....
.एक जोर का ठहाका गूंजता और फिर सब मस्त हो जाते लंतरानी हांकने और सुनने में |
महतारी बाप थे नहीं इसलिए रूद्र और भी आजाद थे हवेली से कोई मतलब नहीं जब कुछ चाहिए होता तो किसी को दौड़ा कर मंगवा लेते --कभी झूठे मुंह भी चंदा का हाल नहीं लिया |
ठाकुर काका और काकी को गए दस बारह दिन तो हो ही गये थे ,बीच में शिवेंद्र भी चक्कर लगा गए और सारी व्यवस्था एकदम फिट चल रही थी |
अचानक सुबह सुबह मोहनी के मायके से फोन आया बाबू जी की हालत ठीक नहीं जो मुंह देखना हो तो फौरन आ जाओ --
-" जल्दी ले कर जाओ महेंद्र बबुआ -नाही तो छोटकी दुलहिन रो रो कर प्राण दे देगी "....
आनन फानन में समान बंधा और गाडी निकाल कर महेंद्र प्रताप बेटे और मोहनी को लेकर ससुराल चले गए |....
यहाँ चंदा अकेली रह गई इतने बड़े घर में ,दिन तो आराम से कट जाता ,काम तो कुछ नहीं पर देखना तो पड़ता ही है ,मजूर धतूर का खाना पीना ,गाय गोरु की भी सुध लेती ही | , पर रात पहाड़ हो जाती |
पंडिताइन चाची सुबह ही आ जाती बीच बीच में अपना घर भी झाँक आती और अंधियारे खा पी कर बस सोने जाती |
वह चोरी चकोरी के डर से रात को घर अकेला नहीं छोडती ,चंदा बहू उनसे कही भी
" चाची यही सो जाएँ"......तब वह बड़े संकोच से बोली .... " दुलहिन दुई चार गहना गुरिया गाड़े है घर माँ कवनो खोद लई जाई तो का करब ---पतोहू सेवा न करी हारी बिमारी " ....चंदा बहू जोर हंसी ..... "गहना के लालच मा सेवा करिहे शिवेंद्र बबुआ की दुलहिन ? अरे नाही चाची ऐसा न सोचे " |
.लेकिन पंडिताइन घर पर ही सोने जाती और भोरे भोरे नहा धो कर माला जपते हुए आ जाती और
यहाँ चंदा बहू उनकी चाय तैयार रखती |
आजकल तो रात भर चंदा जागती इस अकेलेपन में जीवन का खालीपन उसे बार बार कचोटता |
रूद्र के बारे में अनगिनत ख्याल आते पति है उसका पर क्या ऐसा होता है पति ?
खुद से ही पूछती इतनी बड़ी कोठी में अकेली छोड़ कर वहां पड़ा है ,कई बार कहलवाया भी फिर भी कोई ध्यान नहीं दिया .|
...शीशे के सामने श्रृंगार कर खुद को निहारती ...ऐसी कोई कमी तो नहीं फिर क्यों ऐसा |
--अपने पेट पर हाथ फेरती मानो उसके अंदर उसकी अजन्मी संतान हो --दोनों आँखों से आंसू बहते रहते |
इस अकेलेपन में बहुत कुछ गुना चंदा ने ...उसे कभी सास ने तो कभी कुछ नहीं कहा ,पर गाँव और नाते रिश्ते की बड़ी बूढी औरते तरस खाती .... "परमात्मा इतना रूप गुन दिए लेकिन का फायदा बडकी दुलहिन को तो बाँझ बंजर कर दिये .... एक बिटिया दे देते तो कोख पवित्तर हो जाती "
....बाँझ बंजर शब्द तीर की तरह लगते और नासूर की तरह पीड़ा देते ...अनसुना कर मुस्कराती रहती चंदा और अकेले में आंसू पोंछ लेती ---सांय सांय करती कोठी के बंद कमरे में आज चीख चीख के रोई ..
.." क्या कसूर था हमारा भगवान ".... रोते रोते न जाने कब आँख लग गई उसकी , सुबह उठी तो सूरज चढ़ आया था चाची दरवाज़ा पीट रही थी .... " दुलहिन उठो आज बहुत देर तक सोई जियरा तो ठीक है न ? ".|
...."ठीक है चाची अरे बड़ी देर हो गई आँख लग गई आज " ....
चाची ने माथे पर हाथ रखा धधक रहा था आँखे लाल भभूका थी ...
. " ऐ दुलहिन चला डाक्टर का देखाय लेया " ...
." नाहीं चाची ठीक होई जाई बस सर में दर्द है गोली रखी है अभी ले लेंगे " .......
....दुसरे दिन शिवेंद्र पाण्डेय भी शहर से आ गये |
जब दो दिन तक बुखार नहीं उतरा तो चंदा बहू को डाक्टर के पास दिखाने भी ले गए |
हालाँकि जाने से पहले वह रूद्र प्रताप के पास भी गये और उनसे कहा ....... "रूद्र -भाभी की तबियत ठीक नहीं उन्हें डाक्टर के पास ले जाओ और रात को घर पर ही सोने आ जाया करो " ...
." अरे तुम दिखा लाओ शिवेंद्र ! तुम्हारी भी तो भौजी है फिर हम आजकल यहाँ बहुत जरुरी काम में फंसे है | घंटा भर को भी नहीं निकल सकते इलेक्शन आ रहे है प्रमुखी के फिर खेत बाग़ भी हमही देखते है |-तुम तो घर के ही हो फिर चाची भी तो है ही चंदा की देखभाल को " |
-रुद्रा और शिवेंद्र समौरी थे बचपन के साथी भाई की तरह प्रेम था |
चंदा को देख कर डाक्टर ने दवा लिख दिया और कहा "कमजोरी है --खानपान का ध्यान रखे बुखार नापते रहे और नोट कर लें --तेज़ होने पर माथा पर ठंडी पंट्टी जरुर रखे ....बुखार तीन दिन में उतर जाएगा " ....
.." चलो आराम करो दुलहिन हम है गरम हल्दी वाला दूध बना लाई तनी चाची बोली " |
शिवेंद्र दवा दे कर बाकी काम निपटाने चला गया |
दोनों माँ बेटे बहुत ख्याल रखते पर मौसमी बुखार था, आजकल फैला भी था फिर कई रात से चंदा का मन उलझ रहा था |
सास ससुर थे घर में देवर का छोटा बच्चा था तो मन बंटा रहता ,ह्रदय के घाव पर पपड़ी पड़ी रहती ,पर इस बार बीमारी और अकेलेपन में पति की उपेक्षा ने नासूर को कुरेद दिया |
जब मन पर बोझ हो तो कोई दवा भी असर नहीं करती | गोली के असर से बुखार उतर जाता फिर तेज़ हो जाता |
आज चाची यही बडकी दुलहिन के पास ही रुक गई बेटे को घर सोने भेज दिया | भोर चार बजे शिवेंद्र आ गये तो वह घर नहाने धोने चली गई ,चंदा को तेज़ बुखार चढ़ा था शिवेंद्र ठंडी पट्टी रखने लगे काफी देर बाद गोली और पट्टी के असर से बुखार उतरा | .....
. "अब कैसा लग रहा है भौजी ? ".....कह कर माथे पर हाथ रखा ,और कलाई थाम कर नाडी देखने लगे | -
-पुरुष का प्रथम स्नेहिल स्पर्श चंदा के लिए यह अनजानी सुखद अनुभूति थी ,न जाने क्यों आँख बरस पड़ी | ....
." अरे क्यों रो रही है अभी तबियत ठीक नहीं है कह कर आंसू पोंछ दिए " .....
पर कहाँ थमी आंसुओं की धार | ये बरसों से जमी पीड़ा थी जो बह रही थी |
न जाने कब शिवेंद्र ने उन्हें खुद में समेट लिया और वह उनके वक्ष से लग गई लता की भांति ,पता ही नहीं चला कब तूफ़ान आ कर गुजर गया |
अचानक होश आया तो शिवेंद्र झटके से उठ गये ..........
....." नाराज हो ? अपराध हुआ मुझसे " ........कह कर निगाह झुका ली .....
....... "कैसा अपराध शिवेंद्र बाबू हमे कोई अपराध बोध नहीं सम्पूर्ण हुए आज ...आज ही तो स्त्री होने का भान हुआ तुमसे कैसी नाराज़गी तुमने ही तो हमे स्त्रीत्व का मान दिया है .....अब मै अधूरी नहीं हूँ |
---सुनो !शिवेंद्र --लोग -सच ही कहते है आग और फूस साथ नहीं रखना चाहिए ,एक भी चिंगारी फूस पर पड़ी तो धधक उठती है अग्नि ............. अब यहाँ पता नहीं कौन आग था कौन फूस , जो भी हो पर इस अग्नि में आज मेरा अधूरापन बीते बरसों की पीड़ा सब भस्म हो गई .....हमने कोई पाप नहीं किया " |
--शिवेंद्र ने बड़े स्नेह से चंदा के माथे पर अधर रख दिए ........" चलता हूँ अब अम्मा आ रही होगी " ....कह कर मुस्करा दिया |
लाज से झुक गई चंदा की पलकें आज जाना नई दुल्हन के मुख पर लाली क्यों बिखरती है | आँखे मूंद कर लेट गई चंदा | .
.. "सो रही हो दुलहिन अब कैसी तबियत है ".....चाची की आवाज़ सुनकर उठ बैठी .....
.." अरे लेटी रहो दुलहिन हम चाय बनवा लाते है तुम मुंह हाथ धो लो फिर दवाई खानी है "...
. एक दो दिन में चंदा बहू एकदम ठीक हो गई |
सब राजकाज पहले की तरह चलने लगा |
अब बीच में मौका देख दिन दोपहर शिवेंद्र चंदा के कमरे में पहुँच जाते -
- हफ्ता दस दिन ऐसे ही बीत गया अब शिवेंद्र की छुट्टियाँ भी ख़तम हो गई--उन्हें वापस जाना था |
जाने से पहले एक बार चंदा से मिलना चाहते थे |
शाम को अम्मा जब घर गई तो किसी काम की ओट में कोठी पर आ गए ......
... "चंदा भौजी ! कुछ कहोगी नहीं ? कल हम जा रहे है " .
..." हां जानती हूँ शिवेंद्र ! और यह भी जानती हूँ की अब शायेद कभी मिलना न हो पर जितना समय हमारे हिस्से का था वह हमें मिल गया बस इतना बहुत है बाकी का जीवन बिताने को--.हो सके तो भूल जाना " |
...."क्या तुम भूल सकोगी ? --सुनो आखिरी बार कुछ मांगू दोगी ? "......
...." अपना सर्वस्व तो दे दिया तुम्हे --अब और क्या चाहिए " .....
.. " विदा का अंतिम चुम्बन " ---पल भर को दो जोड़ी अधर पल्लव छू भर गए |
--और शिवेंद्र चले गये पलट कर नहीं देखा ! डर था अगर पलट कर देखा तो दो आँखे उन्हें जाने नहीं देंगी |
कुछ ही दिन बाद मोहनी और महेंद्र बबुआ वापस आ गए उसके पिता की हालत अब सुधर गई थी | कुंवर कन्हाई के आने से घर भर गया पांच छह दिन बाद बड़े ठाकुर और ठकुराइन भी यात्रा से वापस आ गए |
अब पूरा घर भर गया था ,रूद्र प्रताप माता पिता का पाँव छूने भर को आये और बस घंटे दो घंटे रह कर वापस चले गये | काकी लाख रोकती रही पर उन्हें तो राजनीत का भूत सवार था |
सारे गाँव में प्रसाद बांटा गया |
बड़े ठाकुर ठकुराइन बहुत प्रसन्न थे |ठकुराइन काकी तो यात्रा के किस्से सुनाते नहीं थकती थी | कुछ दिन तक घर में गाँव भर की औरतें बहुएँ जुटती और काकी से यात्रा वृतांत सुनती |
दो महीने बीत गए |
अचानक एक दिन काकी ने गौर किया बडकी दुलहिन का चेहरा पीला पड़ गया है ....." तनी इन्हा आओ दुलहिन " ... चंदा को आवाज़ दी | पास आने पर बोली "काहे कमजोर हो गई तबियत ठीक नहीं है क्या ,खाये पिये में सदा से लापरवाह है ई दुलहिन ,देखो तो कैसन मुख पीला पड़ गया है " ...
.." अम्मा हम ठीक है "... कह कर चंदा बहू वहां से हट आई | पर कितने दिन छुपता |
जैसे जैसे दिन चढ़ते गये चेहरा चमकता गया एक नूर सा उतर आया चंदा के मुख पर |
अभी पता नहीं चलता था कुछ पर ,अक्सर कुछ न कुछ ऐसा हो ही जाता की काकी को कुछ खटक सा जाता |
एक दिन दोनों देवरानी ,जेठानी खाना खाने बैठी थी , चंदा बहू ने जैसे मुख में कौर रखा की पूरा उलट दिया --मोहनी जल्दी से पानी ले कर मुंह धुलाने लगी ." चलो तुम कमरे में लेट जाओ जिज्जी तुम्हारी तबियत ठीक नहीं " .............कमरे ले कर आ गई चंदा आँख मूंद कर लेट गई |
मोहनी बालों में तेल डालने बैठ गई सर दबाते हुये बोली ........" जिज्जी एक बात पूछूं ? " ....
"हां बोलो न "......."ये किसका है ".....आँख से इशारा किया पेट की तरफ | .
..." हमारा है सिर्फ हमारा मोहनी ".....कह कर मुस्करा दी | बड़े प्रेम से पेट पर हाथ फेरने लगी |
पूरा चेहरा मातृत्व की आभा से दिपदिपा उठा | मोहनी ने उठ कर जेठानी को लिपटा लिया |
"अब तुम आराम करो जिज्जी सब काम हम संभाल लेंगे और --तुम्हे भी हमे ही संभालना है न .......कुछ भी हो हम तुम्हारे साथ है " ....अब तो काकी को भी शंका नहीं रही पर उन्होंने कभी पूछा नहीं |
लेकिन ये बात छुपती कहाँ है ....नाउन कहारिन धोबिन सभी तो ताड़ गई और बात पूरे गाँव में फैल गई |
फुसफुसाहट शुरू हो गई ! लोग इसे केदार बाबू और उनकी पत्नी के तीर्थ का फल कहते ,पांच महीना बीत गया छठा चल रहा था ,अब तो पेट भी पता चलने लगा |
काकी ने बहू से कभी कुछ नहीं पूछा ,अलबत्ता खाने पीने का ध्यान रखती |
खबर गाँव की बूढ़ पुरनिया तक भी पहुँच गई वो कहती "कुच्छो होई सकत है दस बारह बरस बाद देखा तौ पथरे पर दूब जामी है बडकी दुलहिन कै कोरा भरि देहन परमात्मा ".|
--रूद्र प्रताप को भी बधाई मिलनी लगी --आस पास जुटे लड़के आ कर कहने लगे -रुद्रा भईया ! अब तो दावत देई का परी आप बाप बनने वाले है |
क्रोध में करिया नाग सा फनफनाते रूद्र प्रताप दन्न से अपने घर पहुँच गए और अंदर घुसते ही लगे चिघाड़ने ......" कहाँ है साली-- रंडी ---....अब पूछो न अम्मा अपनी चहेती दुलहिन से .....कहाँ मुंह काला करा के आई है...ई हरामजादी ....--छिनाल पेट फुलाए घूम रही है ..कुतिया साली बाहर निकल आज गला टीप देंगे ...काट डालेंगे इसकी बोटी बोटी ...इस पतुरिया को कभी हाथ तक नहीं लगाया और हम बाप भी बन गए .वाह ..बोल -किसका है यह पाप बोल सबके सामने "--
मारे क्रोध के धुआंधार गालियाँ निकल रही थी साथ ही मुंह से फेचकुर भी छूट रहा था |
उधर सामने वाले अपने कमरे में चंदा बड़ी सयंत बैठी थी | ---.रूद्र प्रताप चीख रहे थे ठकुराइन को मानो काठ मार गया था ---केदार बाबू बैठक में सन्न मारे बैठे थे |
--अचानक तिमंजिली कोठी की बड़की दुलहिन चंदा कुमारी निकल आई अपने कमरे से और दरवाजे के पास आकर खडी हो गई ..
.." काहे चीख चिल्ला रहे है आप का पूछना है ?तनिक धीरे भी पूंछ सकते है " ..
....इतना सुन कर तो आग लग गई रूद्र बाबू को एडी से लेकर चुनाई तक सुलग गए ..
...." देख अम्मा बेशर्मी इस रंडी की "......" हाँ अब बता किसके साथ किया ये कुकर्म "
.." मेरा है रूद्र प्रताप ,यह बच्चा सिर्फ मेरा है --यह पाप नहीं है .....तुम्हारे मुंह से बाँझ बंजर सुनते रहे कभी कहा नहीं ---आज सुन लो --- धरती कभी बंजर नहीं होती / बीज नपुंसक होता है /वरना रेगिस्तान और उसर में भी खर पतवार तो उग ही आते है " .|
.रूद्र -दात किटकिटा कर हसुआ ले कर दौड़े चंदा की ओर --
"दबा दें गला आज बध ही डालें इसको किस्सा ही ख़तम हो जाए हमेशा के लिए |
खोद के गाड़ देंगें इसे इसके पाप के साथ ही फुरसत मिलेगी कलंक से "....तभी छोटकी दुलहिन उनके सामने खड़ी हो गई ......" नहीं दादा उधर न जाओ " ........"अरे मोहनी मत रोको आने दो इन्हें --तनिक हमारी आँख में आँख मिला कर ई वेद मन्त्र तो उच्चार दें " चंदा बोली -- ...." ई बबूल का ठूंठ है छोटी न पाती न पल्लव बस काँटा ही काँटा "----
"सुनो ई तो कबहू हमार कलाई भी जोर से नहीं थामे ----ई कछु नहीं कर सकते इतनी हिम्मत नाही तोहरे जेठ में छोटी दुलहिन "--- "आज इनकी ताकत का तनिक सुख हमहूँ लई लें "
" सुनो रुको मत रूद्र प्रताप आगे बढ़ो हम खड़े है यही " .....मानो चंदा नहीं चंडी खड़ी हो ...
.काकी आगे बढ़ कर चंदा के पास पहुँच गई और अपनी बडकी दुलहिन को अंकवार में समेट लिया | एक तेज़ आवाज़ गूंजी --
.." हाथ मत लगाना बडके " ... .| माँ की आवाज़ सुन --
बस अवाक् से रह गए रुद्रप्रताप ......" अम्मा "....बस इतना ही बोल फूटे --
--चंदा की आँखों की ताब नहीं झेल सके और जहाँ से आये थे वही वापस लौट गए --
काकी ने एक महीने बाद बडकी दुलहिन का सतवासा पूजने का न्योता गाँव भर में भेजा --आज उसी की तैयारी में गाँव भर की औरते लगी है ,आखिर बाँझ बंजर में कोपल जो फूटी है -----

--- दिव्या शुक्ला


परिचय:

दिव्या शुक्ला 
जन्म- 31 -5 - 1962 को प्रतापगढ़ के राजनीतिक परिवार में 
निवास लखनऊ में 
रूचि -कवितायेँ एव कहानियां लिखना 
कथादेश , जनसत्ता , चौथी दुनिया ,निकट , अभिनव इमरोज ,अभिनव मीमांसा ,जनसंदेश आदि पत्र पत्रिकाओं में कहानियाँ एवं कवितायेँ प्रकाशित हुई 
सम्पर्क - दिव्या शुक्ला
B1/24 विनय खंड विधायकपुरम
--गोमतीनगर लखनऊ
pincode - 226010
लैंड मार्क -लाल बहादुर शास्त्री पार्क के सामने
Email - divyashukla.online@gmail.com
-----फोन नम्बर--09554048856

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