Tuesday, October 04, 2016

कम से कम एक दरवाज़ा - शोभा मिश्रा



कम से कम एक दरवाज़ा


( सुधा (अरोड़ा )  दीदी के कविता संग्रह  "कम से कम एक दरवाज़ा "  पर लिखने  की कोशिश  की है !  दीदी को जन्मदिन की अशेष  शुभकामनाओं  के साथ  आप सभी से साझा कर रहीं हूँ )


संग्रह के शीर्षक का चयन ही ऐसा है मानो रुढ़िवादी परम्पराओं, पितृसत्तात्मक सोच रुपी दीवारों से बनी काल कोठरी में कैद औरतें गुहार लगा रहीं हो। “किस अपराध में उन्हें ये कैद मिली...?” .. आक्रोशित स्वर में मानो वे प्रश्न कर रही हों कि - मुक्त करो हमें इस अन्धकार से ... इस घुटन से। पीट रहीं हो खिड़की, दरवाजों रहित दीवारों को .. “कम से कम एक दरवाजा” .. तो हो हमारे लिए ..!! 

इस संग्रह को आदरणीय समाजसेविका, लेखिका सुधा अरोड़ा जी ने प्रीती राठी, दामिनी और उन जैसी हज़ारों अनाम बेटियों के नाम समर्पित किया है जो इंसानी दरिंदगी का शिकार होकर महज एक आंकड़ा बनकर रह गयीं ..! किसने बनायी ये संकीर्ण, रुढ़िवादी परम्पराएँ जिनका अनुसरण करते हुए समाज स्त्रियों को आजीवन दूसरों के अधीन रहने के लिए विवश करता है खासतौर पर पिता, पति, पुत्र के रूप में पुरुष स्त्रियों को कभी पुत्री, कभी पत्नी, कभी माँ के रूप में उन्हें अपनी निजी संपत्ति समझता है और अधिकार पूर्वक उसके जीवन के अहम् फैसले स्वयं लेता है ... उनकी स्वतंत्रता, उनके विचारों पर अंकुश लगाता है ... विरोध या बगावत करने पर इतना हिंसक हो उठता है कि उनके प्राण तक लेने में भी नहीं हिचकता ! कितने प्रश्न उठतें हैं मन में कि आखिर स्त्री का अपराध क्या है .. अहंकारी पुरुष प्रधान विचारधारा की दृष्टि से समझने की कोशिश करें तो शायद स्त्री का स्त्री होना ही सबसे बड़ा अपराध है ! स्त्री की शारीरिक संरचना के आधार पर उसे सिर्फ देह में परिवर्तित किसने किया ..? और उस देह पर अधिकार समझने और उसकी रखवाली- निगरानी रखने वाली सोच का निर्माण कब हुआ ..? क्यों हुआ ..? असंख्य प्रश्नों के साथ एक मौन चीख उठती है अंतरात्मा से! एक पाठिका का आक्रोशित मन न जाने कितने प्रश्न कर उठता है ! इस संग्रह की हर कविता में एक आम स्त्री किसी न किसी रूप में अपने आपको पाएगी .. चाहे वो घर के भीतर की स्त्री की पीड़ा हो या घर के बाहर पुरुषवादी सोच से जूझती स्त्री की पीड़ा हो ! संग्रह की कविताओं को छः भागों में विभाजित करके शीर्षकबद्ध किया गया है ..

- नई परिभाषा गढ़ती औरत
- साँकल, सपने और सवाल
- छत, खिड़कियाँ और दरवाज़े
- निर्भया और नयना साहनी
- ताकि बची रहे प्रजाति
- और अंत में..

संग्रह की भूमिका में बहुत ही सहजता और ईमानदारी से लेखिका कविता लेखन के बारे में अपने विचार प्रकट करतीं हैं – “इन कविताओं के बारे में क्या लिखूं ! बस, जैसे नारीवादी होना मेरा चुनाव नहीं था , वैसे ही घोर कविताप्रेमी होने के बावजूद कविता विधा में घुसपैठ करने की मेरी मंशा कभी नहीं रही।"



लेखिका कविताओं में कभी अपनी माँ की स्मृतियों को और बचपन की मीठी स्मृतियों को संजोतीं हैं तो कभी चारदीवारी के भीतर अकेली औरत के भिन्न- भिन्न रूपों, अवस्थाओं का वर्णन कुछ यूँ करती हैं मानों कविता में उपस्थित पीड़ित स्त्री को दिलासा और संबल रुपी कंधा देकर उनका अकेलापन दूर कर रहीं हों । दिल्ली के बेहद दुर्भाग्यपूर्ण और शर्मनाक दामिनी बलात्कार काण्ड ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था । भय, शोक, आक्रोश, स्तब्धता की स्थिति में तो सभी स्त्रियाँ थीं लेकिन लेखन के माध्यम से कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी अपने घावों पर मरहम रखने तथा समाज को एक सकारात्मक सन्देश देने वाली समाज सेवी लेखिका भी इस अपार दुःख की घड़ी में अपने आपको असमर्थ पा रहीं थीं इस त्रासदी पर लिखने में ! .. लेकिन कलम सहमती जरुर है मौन नहीं होती कभी ! मुखरता से प्रकट होती है अंततः ! निर्भया और नयना साहनी शीर्षकबद्ध कविता श्रृंखला उदाहरण हैं उस मुखरता का ..







“क्या इसलिए होती हैं मांएं धरती से बड़ी “ माँ की स्मृति में लिखी गयी संग्रह की पहली कविता में लेखिका कितने अबोध प्रश्न करतीं हैं माँ से ! स्त्री को जन्म देती स्त्री किस परंपरा का निर्वहन करती चली आ रही है ! स्त्रियों द्वारा एक दूसरे को रुढ़िवादी परम्परा स्थानांतरित की जाने की प्रक्रिया का उल्लेख करती हुई लेखिका दुनिया की पहली स्त्री का जिक्र करतीं हैं। इस कविता को पढ़ते हुए सोचने लगती हूँ – आखिर दुनिया की पहली स्त्री भी “परम्पराओं में गढ़ी स्त्री” रही होगी ..? क्या उसकी भी दुनिया सीमित होगी चारदीवारी तक ! उसके हिस्से के आसमान का निर्धारण क्या किसी दूसरे व्यक्ति ने किया होगा ! कविता की कुछ शुरूआती पंक्तियाँ -

“आखिर मैं कब आई होऊँगी तुम्हारे भीतर
गर्भ में धरने से पहले
क्या तुमने धरा होगा अपनी आत्मा में मुझे
जैसे धरा होगा तुम्हारी माँ ने तुम्हें
और उनकी माँ ने उन्हें
और एक अटूट परंपरा स्त्रियों की
वहाँ तक जहां बनी होगी दुनिया की पहली स्त्री

तुमने मुझे क्यों जना माँ
क्या एक चली आ रही परंपरा का निर्वाह करना था तुम्हें
या फैलना था एक नए संसार तक
और फिर देखना था अपने आप को मुझमें

“नई परिभाषा गढ़ती अकेली औरत” शीर्षक कविता श्रृंखला की कविताएँ स्त्री के उन भावों को दर्शातीं हैं जिनमें वो रोने, हंसने जैसी ख़ुशी और दुःख के क्षणों को भी अपने भीतर जब्त कर लेती है ! औरत की उन्मुक्त हँसी को लोग सहन नहीं करते हैं ! उन्मुक्त हँसी हँसती औरत के लिए ऐसी परिभाषाएं गढ़तें हैं कि जल्दी ही अपराधबोध में घिरकर वह बेबस और लाचार महसूस करने लगती है ! अहंकारी पुरुष असहाय, बेबस, लाचार, भावशून्य चेहरे वाली स्त्रियों से संतुष्ट रहतें हैं ! स्त्रियों को मानसिक रूप से अपाहिज बनाकर जीवनपर्यन्त उनकी वैसाखी बने रहना चाहतें हैं ..

“उसके भीतर कई रातें बजतीं हैं !” कविता में पत्नी के रूप में स्त्री पति द्वारा अन्तरंग क्षणों में देह से बांटे जाने वाला प्रेम पाकर खुश है । समर्पित है उस प्रेम के प्रति जिसमें हर रात ठिठुरती है, सुबह अकड़ी हुई देह और एक तरफ झुके हुए कंधे की परवाह किये बिना ! लेकिन इसी कविता के मध्य तक आते- आते दांपत्य जीवन में पांच साल का अंतराल आता है जिसमें स्त्री परित्यक्ता है ! स्त्री को पति रुपी वैसाखी की आवश्यकता क्यों है ! क्यों समाज एक पति द्वारा त्यागी गई स्त्री को दूसरे विवाह का सुझाव देता है ! क्यों उपहास उडाता है समाज अकेली रह रही स्त्री का ! कविता में एक जगह यही भाव हैं – परित्यक्ता स्त्री को दूसरा विवाह करने की सलाह दी जाती है लेकिन औरत अपने भीतर बजतीं उन ठिठुरती रातों को याद करती है जब पति के नागपाश में जकड़ी उसकी उघारी देह बर्फ – सी जम जाती थी ! औरत दृढ निश्चय करती है -

उसे नहीं चाहिए एक और नागपाश
बर्फीली हवा में देह की ठिठुरन
अकड़ा हुआ एक कंधा
टांगों और बाहों में मजबूती से कैद
अपनी निर्वस्त्र देह ।

“सन्नाटे का संगीत” कविता में औरत अपने सपनों का आकाश पाने को व्याकुल एकांत में एक धुन हमेशा सुनती रहती है जिसमें उन्मुक्त पंछियों की तरह विचर सके ।


“भरवां भिंडी और करेले” – उन हर घरेलू औरतों के बोन्साई सपनों की कहानी है जिन्होंने उसे कभी विस्तार ही नहीं दिया ! दूर रखा प्रकृति की उन किरणों, वायु और नमी से जिनसे उनकी ऊँची शाखाएं आकाश की ऊँचाइयों को छू सकतीं थीं ! अपने हिस्से की ज़मीन पर अपनी जड़ों को विस्तार दे सकतीं थीं ! .. लेकिन इसके विपरीत वे एक उम्र गुजार देतीं हैं चारदीवारी में अपनों को खुश रखने, उनके भविष्य को सँवारने में ! एक दिन उन्हीं “अपनों” द्वारा ठुकराए जाने पर पहचानतीं है अपने आपको और चारदीवारी में गमलों में सजाये हुए बोन्साई सपनों को खुले आसमान के नीचे उपजाऊ भूमि में रोप देतीं हैं ! खुली हवा में सांस लेतें हैं उनके सपने ! उन रंगों से रंगतीं हैं अपने सपनों को जिनकी अनदेखी करतीं थीं जिम्मेदारियों के बोझ तले ! आत्मविश्वास से भरी कविता की कुछ पंक्तियाँ - 

“घेर ली उसने आधी दुनिया
और पूरा आसमान
उसकी उँगलियों की करामात
पहुंची पेरिस, पहुंची जापान।
सराहना से अंटे अखबार
लद फंद गयी मैडल और ट्राफियों से
कमरे के रैक में भर गए
पुरस्कार और सम्मान ।

“छत, खिड़कियाँ और दरवाज़े” श्रृंखला की कविताओं में स्त्री- अधिकारों की नई परिभाषा गढ़ती कविताएँ हैं । संग्रह के शीर्षक वाली कविता “कम से कम एक दरवाजा” इसी श्रृंखला में हैं । हमारे समाज में घरवालों की रजामंदी के बगैर प्रेमी से विवाह करने वाली लड़कियों को “घर से भागी हुई लड़कियां“ कहा जाता है और ऐसी लड़कियों के लिए घर के सभी दरवाज़े बंद कर दिए जातें हैं ! चाहे लड़की के साथ दुर्व्यवहार हो, हिंसा हो ! बेटियों के प्रति ऐसी कठोर भावना रखने वाले अभिवावकों के लिए सीख है ये कविता -

“जानतें हैं, तुमने गलत फैसला लिया
फिर भी हमारी यही दुआ है
खुश रहो उसके साथ
जिसे तुमने वरा है !
यह मत भूलना
कभी यह फैसला भारी पड़े
और पांव लौटने को मुड़ें
तो यह दरवाज़ा खुला है तुम्हारे लिए !”

इसी श्रृंखला की “राखी बांधकर लौटती हुई बहन“ कविता उस सामाजिक परंपरा पर गहरा कटाक्ष है जिसमें पिता की संपत्ति से बेटियों को वंचित रखा जाता है ! बेटियों को पिता की संपत्ति में अपना हिस्सा मांगने पर भाई के नाराज़ होने का डर और वो मायका जहां उसका बचपन बीता – उस बचपन की निशानी को खोने का डर सताता है ! पिता की संपत्ति को त्यागकर राखी जैसे कुछ त्योहारों पर भाई से मिलकर, मायके से साड़ी- गहनों का उपहार पाकर खुश रहतीं हैं बेटियाँ ! कभी-कभी मायके के घर के आँगन में अपने बचपन को याद करके खुश रहतीं हैं बेटियाँ । कविता की भावुक करने वाली बेहद संवेदनशील पंक्तियाँ --

“कितना अच्छा है राखी का त्यौहार !
बिछड़े भाई बहनों को मिला देता है
कोठी के एक हिस्से पर हक जताकर
क्या वह सुख मिलता
जो मिला है भाई की कलाई पर राखी बांधकर !

“निर्भया और नयना साहनी” शीर्षकबद्ध श्रृंखला की कविताएँ मन- मष्तिष्क को झकझोर देतीं हैं ! इस श्रृंखला की कविता “अब हम आँसुओं से नहीं, अपनी आँख ले लहू से बोलेंगें ....” के बहाने दामिनी-निर्भया को याद किया गया है ! श्रद्धांजलि देती कविता में मर्म है उन सभी लोगों का जो वीभत्स, अमानवीय कृत्य के बाद बारह दिनों तक अस्पताल में मृत्यु से संघर्ष करती दामिनी के जीवन के लिए प्रार्थना करते रहे ! अंततः मृत्यु जरुर जीती लेकिन दामिनी का बलिदान मिसाल बना ! कविता में दामिनी के बहाने उन तमाम लड़कियों- महिलाओं को याद किया गया है जो कभी दरिंदगी का शिकार हुईं थीं ! उनमें से कुछ को तो न्याय तक नहीं मिला ! “निर्भया और नयना साहनी” श्रृंखला की कविताएँ कविता न होकर मार्मिक कहानियाँ हैं जिसमें दामिनी, नयना साहनी और उन जैसी तमाम महिलाओं की आह है ... दर्दनाक चीखें हैं जिन्हें पढ़कर पाठक का अंतर्मन भी चीत्कार उठता है ..!
संग्रह की कविताओं को सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा बुरटे जी ने बहुत ही सुन्दर रेखांकनों से संवारा है |

इस संग्रह में व्यथा है हमारे समाज की स्त्री की ... वो व्यथा जो हर दिन दोहराई जाती है अखबारों में .. हमारे आस-पड़ोस में... स्त्रियों के प्रति हो रहे अपराधों में ...लचर क़ानून व्यवस्था में ..! ये संग्रह माध्यम है हमारे समाज की स्त्री के ज्वलंत प्रश्नों का .. जिसका उत्तर अक्सर उसे नहीं मिलता है .. समाधान न सूझने पर वह कई बार हताश भी होती है ... अपने आपको अंधकारों में घिरा पाती है लेकिन अपनी कलम से हर बार लिख देती हैं उगता हुआ सूरज ... इस कलम रुपी सूरज की किरणें निश्चित रूप से भर देंगी उनका जीवन उजालों से ....... ये पंक्तियाँ उसी उजाले का संकेत हैं ---

“जब मेरी जान पर बन आई तब मैं चेती !
जब मुझे कुचलने की बेतरह कोशिश की गई
मेरे सामने दो ही रास्ते थे -
मैं आत्महत्या कर लेती या बगावत करती
मैंने दूसरा रास्ता चुना और देखा
लाल गोले सा उगता सूरज !”


- शोभा मिश्रा

8750067070








Saturday, October 01, 2016

सूखी जमीन पर जीवन के उल्लास की कहानी: 'पार्च्ड' - स्वाती



सूखी जमीन पर जीवन के उल्लास की कहानी: 'पार्च्ड'









   


  बीते तकरीबन दस दिनों के भीतर दो बेहतरीन फिल्में देखना अपने आप में एक अच्छा अनुभव रहा.., दोनों ही फिल्में स्त्री जीवन से जुड़ी हैं और मेरे दर्शक में भी मेरा स्त्री होना शामिल है ही.. यहाँ पिंक और पार्च्ड की समानता की कोई बात नहीं क्योंकि मुझे दोनों एक जैसी लगी भी नहीं, सिवाय इस बात के कि वहाँ कहानी के केंद्र में तीन लड़कियाँ थीं, और यहाँ चार औरतें। बहरहाल 'पार्च्ड' का परिवेश, कथानक, ट्रीटमेंट अलग है... क्या और कितना नया है, ये अलग बात है।  सूख कर ऊसर बन चले मन की ज़मीन पर जब इच्छाओं की बूंदें गिरती हैं, तो क्या अहसास होता होगा... पार्च्ड मुझे इसी अहसास की कहानी लगी। इस फिल्म के लेखन और निर्देशन के लिए यकीनन लीना यादव बधाई की पात्र हैं, उस लेखन को ज़िन्दा करने वाले अभिनेता कलाकार काबिलेतारीफ हैं। जानकी का चरित्र निभाने वाली सबसे छोटी अदाकार लहर खान के अभिनय में भी उतनी ही गंभीरता है जितनी बाकी स्त्री चरित्रों के अभिनय में। दृश्यों को जीवंत बाने वाली फिल्म की सिनेमैटोग्राफी कमाल की है।

स्त्रियों की समस्याओं पर एक स्त्री के नज़रिए से बनाई गई इस फिल्म में अपनी समस्याओं से जूझती खुदमुख्तार औरतें हैं। चार-औरतें, चार जीवन, पर यह फिल्म और इसकी कहानी सिर्फ उन चार औरतों और उनके जीवन की कहानी नहीं है। यह कहानी दरअसल उन जीवनों के मार्फत स्त्री इच्छाओं के अधूरेपन को खारिज़ कर खुले आकाश में अपने होने को महसूस कर सकने की कहानी है, स्त्री का अपने शरीर पर अधिकार व उसके उत्सवधर्मिता की भी कहानी कहती है यह फिल्म। ‘पिंक’ में शहरी परिवेश में कामकाजी लड़कियों के अपने शरीर पर अधिकार पाने और किसी भी तरह की जबरदस्ती को ‘न’ कह सकने के हक़ की लड़ाई है तो 'पार्च्ड' ग्रामीण परिवेश में रची एक ऐसी कहानी है, जहाँ मरुस्थल बन चुके स्त्री मन के भीतर इच्छाओं की बूँदें गिरती हैं, जहाँ आकाश की ओर मुँह बाए हवा को भर लेने की ख्वाहिश है और जहाँ अपनी इच्छाओं के अनुरूप जीने को लेकर कोई गिल्ट नहीं है। हमने यों तो स्त्रियोन्मुखी बहुत सी फिल्में देखी हैं, बहुत से मजबूत स्त्री चरित्र भी देखे हैं, पर उन मजबूती के पीछे, परिवार न बसा पाने का गिल्ट है कहीं तो कहीं अपनी यौन इच्छाओं के बारे में सोच भर लेने से जन्मा गिल्ट भी दिखाई देता है.. यह गिल्ट हमारे समाज की देन है, जिसने ‘यौन शुचिता’ का एक भयावह बोझ स्त्रियों पर डाल रखा है, जो संबंधों को बचाने की सारी ज़िम्मेदारी स्त्रियों पर डाल पुरुषों को उनके सपनों को जीने के लिए पूरा आकाश थमा देता है और जिसने स्त्रियों को इस ओर इतनी बारीकी से अनुकूलित कर दिया है कि इसके बाहर सोचना तक गिल्ट में डाल देता है उन्हें... बाँझपन, बाल-विवाह, वैधव्य और वैश्यावृत्ति से जूझती इन स्त्रियों के जीवन में प्रेम का अभाव तो है, पर वे उस अभाव को अपने जीवन की नियति नहीं मानतीं, उनकी ठिठोलियाँ इस अभाव के गाढ़ेपन में उम्मीद की रोशनी की तरह झिलमिलाती रहती हैं। गालियों के पीछे की मर्दवादी मानसिकता पर करारा चोट करती हुई यह फिल्म स्त्री उन्मुक्तता का उल्लास रचती है। कोई भी सोचने वाला इंसान इन गालियों के बनाए जाने की मानसिकता को ज़रूर समझना चाहेगा और उसे वह दृश्य, जब बिजली अपनी दोस्तों रानी व लाजो से इस बारे में बात करती है, इस ओर और सोचने के लिए बाध्य करेगा। सच कहूँ तो यह फिल्म मुझे शुरू से लेकर आखिर तक उस तरह से फिल्म लगी नहीं, जिस तरह की फिल्में बड़ी संख्या में बनाई व देखी जाती हैं। ऐसा कहते हुए मैं इस फिल्म को, उसकी कलात्मकता को कतई कम करके नहीं देख रही.. ऐसी फिल्म जो शुरू से आखिर तक बिना किसी चकाचौंध के आपको अपने साथ कर ले.. अपने हर दृश्य, हर संवाद, हर चरित्र के ज़रिए किसी तरीके की भव्यता नहीं परोसे बल्कि अपनी कहानी के ज़रिए एक ऐसा जीवन आपके सामने रखे, जिसे उसके दृश्य, संवाद, चरित्र ज़िन्दगी देते हों, तो क्या कहा जाए... यकीनन यह फिल्म उन लोगों के लिए नहीं है जो फिल्म से एक खास तरह का मनोरंजन ढूँढ़ते हैं, जो फिल्म की सुनी सुनाई खबर पर फिल्म में ‘मज़ा’ लेने जाएँ, पर वहीं मुझे यह भी लगता है, उन्हें यह फिल्म फिर भी देखनी चाहिए, क्या पता अपने भीतर की मर्दवादी मानसिकता को और अधिक पोसने की जगह उन्हें अपने भीतर के खोते इंसान को ज़िन्दा करने का ख्याल हो आए...

मैं पहले भी कह चुकी हूँ कि फिल्में सब कुछ नहीं बदल सकतीं और हमें सारी ज़िम्मेदारी सिनेमा पर डालनी भी नहीं चाहिए। रानी, लाजो, बिजली, जानकी- चार एकदम सहज़ और सामान्य चरित्र जिनपर यकीन करना ज़रा भी मुश्किल नहीं.. पर जो चीज़ इन चार चरित्रों को खास बनाती है वह है अपने होने का अहसास, और एक दूसरे से उनका कनेक्शन जो उस बनाई गई धारणा को खारिज़ करता है कि स्त्रियाँ ही स्त्रियों की दुश्मन होती हैं। पितृसत्ता में जीती ये चारों औरतें, जो वैधव्य, बाँझपन, बाल-विवाह, वैश्यावृत्ति जैसी चार बड़ी सामाजिक समस्याओं से जूझ रही हैं, पर कितना जीवन बचा हुआ है इन चरित्रों में, और ये जो जीवन है, वही इन्हें खूबसूरत बनाता है...सामाजिक रूढ़ियों में बंधी इन औरतों का जीवन कहीं भी ठहरा हुआ नहीं है, वे काम करती हैं, कुछ हद तक जुल्म भी सहती हैं, पर उसे अपनी नियति नहीं मानतीं.. तभी तो अंत में पूरा आकाश उन्हें अपना लगता है..

रोज़ रात में अपने पति के हाथों पिटती लाज़ो को देख जहाँ एक अजीब सा दर्द और क्रोध भी पैदा होता है, वहीं आदिल हुसैन के साथ का वह प्रेम दृश्य मन को उतना ही खूबसूरत लगता है। फिल्म की सिनेमैटोग्राफी फिल्म की कई सारी खासियतों में से एक है। यह मानना और भी पुख्ता हुआ कि सिनेमैटोग्राफर का नज़रिया किसी दृश्य को एक बिलकुल अलग आयाम दे सकता है... वह दृश्य और उसके तुरंत बाद का दृश्य इतनी खूबसूरती से फिल्माया गया है कि वह खूबसूरती देखने वाले के भीतर उतर आती है और उसी वक़्त बजता 'माइ री' गाना उस खूबसूरती के रंग को और गाढ़ा करता है।

फिल्म के संवाद हमारे सामाजिक ताने बाने को ही उकेरते हैं, "पढ़लिख कर किताबें सर चढ़ जाती हैं" यह संवाद सिर्फ एक फिल्म का डायलॉग नहीं है। हम जैसी बहुत सी लड़कियों ने अपने जीवन में इस ताने को सुना ही होगा..
हंसी हँसी में लाजो का यह संवाद कि "अगर दुनिया में मेरे जैसी बाँझ नहीं होती, तो बच्चों का तो अब तक अलग देश बन गया होता" मन में चुभता है... बच्चे किसी भी वज़ह से पैदा न कर सकने वाली स्त्रियों के जीवन को जिस किसी ने देखा होगा वह इस चुभन को समझ सकेगा.. पता नहीं क्यों मुझे हमेशा ऐसा लगता है हम जब चीज़ों को ग्लोरिफाइ करते हैं न तो उसके पीछे एक खास तरह की शोषण की मानसिकता काम करती है.. और इसलिए इस तरह के ग्लोरिफिकेशन से मुझे बेतरह खीझ होती है... एक औरत और उसके माँ होने को हमारा समाज अपनी उसी मानसिकता से ग्लोरिफाइ करता रहा है पर फिल्म के एक दूसरे दृश्य में बिजली के इस सवाल के जवाब में कि 'तू बच्चा क्यों चाहती है" लाजो का यह कहना कि वह बच्चा खुद के लिए चाहती है, एक राहत भरा दृश्य है।

इस फिल्म की कलात्मकता इस बात में है कि यह चार औरतों के सहारे हमें ऐसे सफर पर ले जाती है, जो हमें एक ओर हमारे समाज की मर्दवादी मानसिकता की क्रूरता को दिखाती है, वहीं उस क्रूरता से जूझती औरतों के सहारे जीवन का उल्लास रचती हैं। अपने अपने जीवन में, प्रेम रहित संबंधों में जीते हुए भी उनके अपने होने में कहीं भी प्रेम और जीवन धुंधलाता नहीं है। उनकी खिलखिलाहट, उनके सपने, उनका प्रेम यही तो डराता रहा है इस पितृसत्ता को जिसे वह गालियों व इस तरह के अन्य औजारों से नियंत्रित करता रहा है पर इस फिल्म की स्त्रियाँ हर उन गालियों को धता बता अपने भीतर के उफान से उस आकाश तक अपनी खिलखिलाहट पहुँचाती हैं। गाड़ी चलाती बिजली और उसपर सवार दुपट्टा उड़ाती रानी, लाजो और जानकी अपनी खिलखिलाहट से उस आकाश को खूबसूरत रंग से रंग देती हैं, जिसमें विचरने से उन्हें हमेशा  नियंत्रित किया गया...

अगर अब तक आपने फिल्म नहीं देखी है तो ज़रूर जाइए और झरने सी बहती इन स्त्री चरित्रों की उन्मुक्तता के उत्सव में शामिल होइए, आप खाली हाथ नहीं लौटेंगे। उन चरित्रों से, उनकी कहानी से कुछ न कुछ लेकर ही आएँगे...

- स्वाती



Tuesday, September 20, 2016

और भी ज़्यादा प्यारा लगने लगा है 'पिंक'... स्वाती



जन्म से ही लड़कियों को ऐसे संस्कार, परम्पराओं में गढ़ा जाता  है, जिसमें उन्हें कैसे चलना है, कैसे उठाना-बैठना है... कब, कहाँ, कैसे और कितना हँसना - बोलना है तथा  घर से बाहर आने-जाने का समय क्या हो ये सब निर्धारित किया जाता  है | इस गढ़न में कितनी घुटन है, कितना अपमान है, लड़कों से पीछे रखने का  एक सुनियोजित  षड़यंत्र है ... सब कुछ जानते-समझते हुए भी वे इन रुढ़िवादी सोच से अपने आपको कहाँ मुक्त कर पा रहीं हैं !!  हालाकि बड़े शहरों में शिक्षित, कामकाजी महिलाओं के लिए 'पिंक' जैसी महत्वपूर्ण फिल्म आशा की एक किरण जरुर साबित हो रही है | इस फिल्म पर हिंदी विभाग की शोधार्थी, लेखिका, कवयित्री स्वाती ने बेबाकी से अपनी राय रखी  है |

एक लम्बे अंतराल के बाद  फरगुदिया को इस महत्वपूर्ण लेख के माध्यम से अपडेट किया जा रहा है | स्वागत और बधाई स्वाती  ....

और भी ज़्यादा प्यारा लगने लगा है 'पिंक'...


 जब फिल्म थोड़ी देर से देखने जाओ तो फिल्म को लेकर बहुत सारे विचार सामने आ चुके होते हैं। मैं उन विचारों को लेकर फिल्म देखने जाना चाहती तो नहीं थी, पर वे थे मेरे साथ। पर फिल्म जब से शुरू हुई तब से आखिर तक सिर्फ एक कहानी थी मेरे सामने, जो सच्ची थी, जहाँ कितने ही संवादों को तो एक्स्पीरिएंस भी किया ही होगा बहुत सारी लड़कियों ने अपनी अपनी ज़िन्दगियों में, ऐसे में कहां गुंजाइश रहती है कि उसके अलावा और भी कुछ साथ-साथ चले... फिल्म तो अभी यह लिखते वक़्त भी मेरे साथ है.. फिल्म देखने तो मैं अकेले गयी थी, पर जब लौटी तो तीन दोस्तों (मीनल, फलक, और ऐंड्रियल) के साथ थी, जो लंबे समय तक मेरे कदमों की ठिठकन को तोड़ने का हौसला देती रहेंगी.. मैं नहीं जानती कोई फिल्म या कला का कोई रूप समाज को कितना बदल पाता है. मैं नहीं जानती कि शुजित सरकार की यह फिल्म 'पिंक' कितना कुछ बदल पाएगी... पर ये जानती हूँ और भरोसा भी करती हूँ कि सिनेमा या कोई भी कला रूप जीवन की बात करे तो सच्चा लगता है और मेरा यह भरोसा है कि कुछों को तो यकीनन बदलता भी है। बदलना मतलब किसी के होने को बदलना नहीं, किसी के सोचने को बदलना है। मेरे खुद के सोचने में बहुत सारे बदलाव आए हैं, आसपास की घटनाओं को देखने समझने के नज़रिए में बदलाव आया है और मैं बढ़ा चढ़ा के नहीं बोल रही पर इन बदलावों के पीछे साहित्य भी रहा और सिनेमा भी.. एक समय था जब मैं लड़की की मजबूती के पीछे के कई आयामों को स्वीकार नहीं कर पाती थी। शायद समझ नहीं पाती थी तब, इसीलिए परंपरा के नाम पर या फिर चले आ रहे अमानवीय व्यवहार के महिमामंडन में, उसके सेलिब्रेशन में मैं भी शामिल हुआ करती थी। आज समझ पाती हूँ, और उनपर सवाल करती हूँ। इस प्रक्रिया में ज़्यादातर अकेला पाती हूँ खुद को, कभी-कभी डर का ख्याल भी आता है पर फिर सोचती हूँ कि कैसे मान लूँ कि सड़कें मेरी नहीं हैं, कैसे मान लूँ कि रातें डरावनी होती हैं.. उन्होंने तो मुझे ये अहसास कभी नहीं दिलाया, फिर क्यों मैं अपनी आवाज़ को धीमी कर दूँ, क्यों न रात में बिना किसी डर के इन सड़कों पर खुल के गुनगुनाऊँ...
इतनी सारी बातें हो चुकी हैं फिल्म पर, हर कोई अपने नज़रिए से फिल्मों को देखता है, सीखता भी है... मुझे यह फिल्म ज़िन्दगी का हिस्सा लगी। लोग बेशक इसे अमिताभ की फिल्म कहें, पर मुझे यह फिल्म उन तीनों लड़कियों की वज़ह से अधिक सच्ची लगी जिनका जीवन, जिनकी समस्याएँ कुछ ऐसी थीं, जिनसे अमूमन हर लड़की जूझती है, कुछ उसे इग्नोर कर देती हैं, कुछ डर जाती हैं पर कुछ ऐसी भी होती हैं जो लड़ती हैं.. शुरुआत के कुछ हिस्सों, जहाँ अमिताभ के अभिनय में मुझे थोड़ा सा एक्सैगरेशन महसूस हुआ, को छोड़कर फिल्म का हर कलाकार, अपनी अदाकारी से अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराता है और फिल्म को सच के करीब रखने में कौंट्रीब्यूट करता है। चाहे वह दो सीन के लिए आया वह मकान-मालिक ही क्यों न हो। तमाम बदलाव के बावज़ूद मैं जानती हूँ कि लिब्रल कह देने भर से कोई लिब्रल नहीं हो जाता है। हम इस बात को गर मानेंगे तो शायद खुद को बेहतर इंसान बना पाएँगे... और यह बात सिर्फ लड़कों के लिए नहीं है हम लड़कियों के लिए भी उतनी ही सच है। हम सब एक ऐसे सेट-अप में बड़े हुए हैं जहाँ लड़कियों की 'वर्जिनिटी', 'चारित्रिक शुद्धता' कुछ ऐसे टर्म्स हैं जो हमें हमेशा डराते रहते हैं, और हम डर-डर के सँभल सँभल के जीना सीख जाते हैं। जो ये कहते हैं कि ऐसा नहीं होता उनसे मैं पूछना चाहूँगी क्या वाकई सड़कें और रातें उनके घर की लड़कियों के लिए भी उतनी ही अपनी हैं, जितना उनके घर के पुरुषों के लिए...? क्या आज भी उन्हें लड़कियों की उन्मुक्त हँसी डरा नहीं देती और फिर अपने डर को कम करने के लिए वे हमारे सामने शुचिता का एक बड़ा सा घेरा बना देते हैं जिसमें हम कई दफे फंस जाते हैं, डर जाते हैं क्योंकि हमें कभी ये बताया ही नहीं गया कि सामान्य भावों को नियंत्रित करने की कोई ज़रूरत नहीं है। हम कभी नहीं सिखाते अपनी लड़कियों को कि तुम्हारा जीवन तुम्हारा अपना है। हम तो हमेशा ही अपनी लड़कियों पर घर की इज़्ज़त का भारी भरकम बोझ डालते हैं जो हर वक़्त आपको अपने सामान्य मानवीय इच्छाओं को नियंत्रित करना सिखाता है.. आज जब लड़कियाँ पढ़ने, नौकरी करने दूसरे शहर जाती हैं, तब आप प्रत्यक्षत: तो नहीं होते वहाँ पर वो इज़्ज़त वाला बोझा वहाँ भी होता है जो हर वक़्त उन्हें नियंत्रित करता है, डराता है और उन्हें जीने नहीं देता एक स्वाभाविक सी ज़िन्दगी, जिसकी वो हक़दार हैं... उन्हें इतना सुनाया जाता है कि वह मान लेती हैं कि उनकी हँसी, उनकी उन्मुक्तता जो कि बेहद सहज़ है, वह उनके लिए खतरा है। ‘सिंगल वर्किंग वुमेन’ के तीनों ही शब्द इस समाज को बहुत परेशान कर देते हैं और वो लड़कियों के ‘सेल्फ’ को ‘इज्ज़त’ की उस खोखली पोटली से ढक देना चाहते हैं। फिल्म में एक जगह पर एक पुरुष के रूप में अमिताभ का लड़की के हुड को हटाना कहीं न कहीं उस पोटली को, सैकड़ों सालों की झिझक को हटाना है जिसने स्त्री को ढक रखा है।
‘पिंक’ नाम सुना तो बस एक रंग ज़ेहन में आया था, जो मुझे पसन्द भी है। हाँ मैंने ये नहीं सोचा कि क्यों पसंद है यह रंग मुझे, पर ये ज़रूर सोचती रही कि लड़के क्यों गुलाबी रंग से थोड़ा परहेज़ करते हैं जैसा कि शुजित ने अपने हाल के एक इंटरव्यू में कहा भी था.. पर फिल्म के पोस्टर में गुलाबी रंग के पीछे दो मज़बूत हाथ हैं.. हमें न गुलाबी रंग से परहेज़ है, न किसी कोमलता से, हमें परहेज़ है इन विशेषताओं की आड़ में या कहूँ कि कुछ रुमानी लालचों में हमें गूँगा बना दिए जाने से और यह फिल्म उस ऐतराज़ को ज़ाहिर करती है। हम इस बात से नाराज़ नहीं हो सकते कि यह फिल्म एक महिला ने क्यों नहीं बनाई या कि वकील के रूप में कोई महिला वहाँ क्यों नहीं, हालाँकि एक बार को यह ख्याल आया था मेरे मन में भी पर तुरंत मुझे याद आया कि हमारी लड़ाई पुरुष बनाम स्त्री की नहीं है। हमारी लड़ाई उस सोच से है, जो हमारी हँसी, हमारी उन्मुक्तता को अपने लिए आमंत्रण समझता है और इसलिए हमेशा हमें नियंत्रित करना चाहता है। दारू पीने की बात का वह दृश्य याद कीजिए और दो सेकण्ड ठहर कर ईमानदारी से खुद को टटोलिए.. कैसे आप परेशान हो जाते हैं जब आप सड़कों पर बेपरवाह चलती लड़की को देखते हैं.. सोचिएगा ज़रूर.. मैं भी सोच रही हूँ कि क्यों दूसरों की नज़रें मुझे एक पल को असहज़ कर देती हैं, हालाँकि फिर हिम्मत बटोर कर मैं खुद को सहज करने की कोशिश ज़रूर करती हूँ... हम और आप यदि सब सोचें अपने व्यवहारों को तो शायद कुछ बदले..
मनोरंजन के नाम पर कुछ भी परोस देने की होड़ में जहाँ हँसने हँसाने के लिए भी आपको स्त्री के शरीर को इस्तेमाल करने की ज़रूरत होती है, जहाँ इंटरटेनमेंट के लिए आप स्त्री को ऑब्जेक्टिफाइ करते हैं, कैमरे के ऐंगल से भी और भाषा के मामले में भी, वहाँ यह फिल्म अपने ढाई घंटे में वास्तविक समस्याओं को संज़ीदगी से पेश करती है। हो सकता है इस बात को और बेहतर तरीके से कहा जा सकता हो, कमियाँ हो सकती हैं, बेहतरी की गुंजाइश भी हो सकती है, पर क्या हमें इस प्रयास की सराहना नहीं करनी चाहिए जो स्त्री संबंधी बहस को शुचिता की बहस से बाहर ले जाता है, उसकी मर्जी, उसके ‘ना’ के मायने समझाता है, जिस ओर हमारे समाज और सिनेमा ने भी ध्यान नहीं दिया.. क्या इस फिल्म को इसलिए नहीं देखा और सराहा जाना चाहिए कि इसने मीनल, फलक और एंड्रिया जैसी आज की दुनिया की ज़िंदा लड़कियों से हमारी दोस्ती कराई..




वह सोच जो हमारे कपड़ों, हमारी उन्मुक्त हँसी को हमारे व्यक्तित्व का पैमाना बना देती है.. वह समाज जो हमारी अपनी आकांक्षाओं बेशक वह यौन इच्छाएँ ही क्यों न हो, पर बात करना ही नहीं चाहता .. चाहे भी कैसे जब शादी के भीतर बलात्कार की बात करने पर उस संवेदनशील मसले पर सोचने की ज़गह अजीब सी घिन भरी नज़र हम पर फेंक दी जाती हो, जहाँ बड़ी बेशर्मी से आपकी वर्जिनिटी पूछी जाती है, को मानवीय तो नहीं कहा जा सकता। सारे सवाल हमारी ओर ही रहेंगे क्योंकि वो जो इज़्ज़त का बड़ा सा बस्ता है न वो बांध दिया गया है हमारे सर से पर हमें उस बोझ से खुद को बाहर करना होगा, उन सवालों से लड़ने की हिम्मत पैदा करनी होगी खुद के भीतर... घूरती नज़रों और गालियों ने हमें बहुत डराया है आज तक, हमारे कदमों को लगातार पीछे किया है इस झूठे इज़्ज़त के बस्ते ने... कभी मज़ाक के नाम पर कभी चीख कर, और कभी प्यार जैसे खूबसूरत भाव का आसरा ले हमें हमसे ही दूर किया गया है, फिल्मों, गानों ने भी मदद ही की है इसमें... जब आप तालियाँ बजाते हैं न औरतों के ऑब्जेक्टिफिकेशन पर, ठीक उसी वक़्त खुद को टटोलिएगा... स्त्री के शरीर को मज़ाक और हँसी के नाम पर या फिर गाली देने के लिए जब यूज़ करते हैं न तब भी थोड़ा सा ठहरिएगा और सोचिएगा कि आप स्त्री-पुरुष की दोस्ती के लिए कितने तैयार हैं... आप गर इतना कुछ सोच सकेंगे न तो उस पितृसत्ता को वाक़ई चुनौती देंगे। हमने तो चुनौती देना शुरू कर दिया है, आपकी घूरती नज़रें, आपकी गालियाँ और हर वह सोच जिनके सामने हम सहम कर, शर्मिंदा होकर आँखें झुका लेती थीं और रास्ते बदल लिया करती थीं, वही आज ठिठकते कदमों को आगे करने की ज़रूरत का अहसास कराती हैं... चुनौती देना शुरू कीजिएगा उस सोच को, जो स्त्री की आज़ादी से डरती है, मालिकाना हक़ से नहीं दोस्ताना रवैये से स्त्री को जानने की कोशिश करिएगा, आप यकीन मानिए यह आपके होने को कतई कम नहीं करेगा, आपको और बेहतर ही बनाएगा और हाँ ‘पिंक’ रंग आपको भी प्यारा लगने लगेगा...

-- स्वाती

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