देश - देश की चुड़ैलें
----------------------------------------- "दरम्यानी कद की तीन कथाएँ , मित्र कीटाणु, संरक्षित वन और चितमन, एक ही विषय को तीन कोण से दिखाती हैं। तीनों कहानियों में परिस्थितियाँ बदली हुई हैं, पृष्ठभूमि अलग हैं, वजहें दूसरी हैं, अंजाम मगर एक है - औरत को चुड़ैल में तब्दील कर देना या उसका तब्दील होते जाना। तीनों कथाएँ अपने अस्तित्व में स्वतन्त्र दिखाई देकर भी एक कहानी है। औरतों की चाहत में डायन बनना कभी शामिल नहीं रहा। वे इस इल्जाम-योनि से, ऐसे बद-हालात से मुक्ति चाहती हैं।"
मित्र कीटाणु
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‘‘हमको काना-काना न कहा करो। हमार नाम कान्हा है।!’’ हम भों-भों रोते जा रहे थे, नेटा पोंछ के गरियाते जा रहे थे और ढेला-चिक्का भी मारते जा रहे थे। आज दादी ने हमें खूब सिखा-पढ़ा कर आम अगोरने भेजा था। कि तुम चिढ़ना बन्द कर दोगे तो वे लौंडे-लफाड़ी तुमका चिढ़ाना बन्द कर देंगे। सो मैं बहुत देर तक बहटियाता रहा। पर जब सबों ने एक साथ भौंकना शुरु किया-‘‘काना रे काना तोरा बाप बिलाना।’’ तब तो मैं बिलकुले किटकिटा गया। अब मैं ढेला फेंकते-फेंकते थक गया हूँ। ये देख के सालों ने खेल बदल दिया है-
‘‘अच्छा ! तब ना कहेंगे तुमको कनवा। जब आम तोड़ के द्यो हमारे सब को।’’
‘‘हम तुरन्त होशियारी दिखाए-‘‘अगर हमार निसाना पक्का रहता तो तुम सबका कपार न फूट चुका रहता। ढेला-फेला से आम न टूटेगा। उ मोटका सियार सिंह...
‘‘अब तेरी...सियार सिंह नहीं सियावर सिंह।’’
‘‘काहें ? अपनी बेरिया सुधर गए।’’ यह सुनते ही सियावर ने मारने के लिए हाथ भांजा।
कितना उपाय तो अपना बचने के लिए हम खुदे खोजे हैं। नमूना है कि सियावर ने हाथ अपने मुसरी, काहेंकि उसको खजुहट है और उसका हाथ परमामेन्ट उहें रखा रहता है, हाँ तो हाथ वहाँ से उठाया नहीं कि हम जमीन पर लोट जाते हैं। और ऐसा बाप-बाप चिल्लाते है जैसे सड़सी से दागा जाने वाला हो।
सब दौड़ के मेरा मुँह दाबते हैं-‘‘चुप-चुप! तुम्हारी चुड़ैल दादी आ जाएगी। नहीं मारेंगे। ठीक है सियार सिंह...हत्त तेरे ... सियावर सिंह के कांधे पर चढ़ के आम तोड़ दे।’’
मैं कंधे पर चढ़ गया-‘‘हमारा पाँव पकड़े रहो। ऐ! ठीक से पकड़ो।’’ आह! एक टिकोरा के बदले ठकुरौली-मिसरौली के लड़के हमारा पाँव दबाएँ। सरग है। सरग।’’
‘‘कनवा साले कांधा दुख गया। उतर!’’
‘‘ये सरवे चाहें जितना चिल्लाएँ, दो के बदले चार मुक्का मारें, मैं पाँड़ेपुरवा को पाड़ापुरवा माने पंडितों के टोले को भैंसों के बच्चों का टोला ही कहूँगा। और आठ-दस टिकोरा घर के लिए भी तोड़ लूँगा, तब उतरुँगा। ’’ दोपहर हो गई। घर लौटूँ। भूख लगी है। गरमी भर रोटी और आम की चटनी, जाड़ा भर भात और अमरुद की चटनी। इस के सिवा हम, दादी और अम्मा, कुछ खालें तो लोटा लेके खेत ही दौड़ते रहते हैं। दादी कहती हैं यही खाते-खाते पेट अउर कुछ खाना भूल गया है।
ये मेरे ओसारे में बँसखट पर कौन है ? मेरे यहाँ तो गाँव-जवार का कोई आता नहीं। अरे फूफू हैं! मैंने चूल्हा सुलगाती अम्मा के पास अमिया पटकी, रोटी या पानी जैसा कुछ चिल्लाया और फूफू की गोद में कूद गया। अम्मा आज हँसी नहीं। फूफू ने गोद से उतार कर बगल में बैठा दिया। फूफू दादी की बात चुप सुन रही थीं। अहा! मुझ दुलरुवा का भी नाम लिया जा रहा है,तब मैं भी सुनूं -
‘‘इदरिस ने कान्हा को भी न सोचा। नंबरी मउगा निकला इदरिस। हम को तो पहिले ही सुबहा था कि उसने वहाँ दूसर बियाह कर लिया है। ’’
‘‘तुमको सुशील की बात पर पूरा यकीन है अम्मी ?’’
‘‘अरे हाँ मुन्नर! सुसील तो राँची जाके भी इदरिस के पास जाने को नहीं तैयार हो रहा था। वो तो मैं चार कोस जाना-आना की, महजिद से फूँकवा के ताबीज लाई, तब जाके तैयार हुआ सुसील।
‘‘अम्मी! मुझमें सब्र नहीं। आखिर में क्या कहा इदरिस ने ?
‘‘यही कि वो बउरहि के रहते घर नहीं लौटेगा।’’
मेरी अम्मा का एक नाम अम्मा है, एक नाम बउरहि है। अम्मा तो कुछ बोलबे नहीं करती हैं। हम अम्मा के बारे में दादी के कहे से ही जान पाते हैं। अब जैसे अम्मा के लिए दादी गेहूँ के रंग की झिंझली धोती लाती हैं। अम्मा उस धोती को दो महीने में पोखरा के कनई के रंग का बना देती हैं। अम्मा कहती हैं साबुन नहीं है। दादी कहती हैं पाठशाला के पोखर किनारे रेह तो है। अम्मा कहती हैं वहाँ दोगला मास्टर भी तो है। माना कि अम्मा को दादी हरदम गरियाती रहती हैं, अम्मा के सिर से जुँए मेरेे सिर पड़ जाती थीं, इस पर दादी ने अम्मा के बाल आदमियों जितने छोटे करवा दिए, ये सब दादी की गलती है। लेकिन अम्मा मास्साब को गाली दें, यहाँ अम्मा गलत हैं। मास्साब गुरु हैं, भगवान के उप्पर।
अम्मा कभी नहीं रोती, आज भी उनकी आँख धुएँ से ही लाल हो रही होगी। और दादी हरदम रो कर ही बोलती हैं-
‘‘सुसील को मैंने सारा जवाब सिखा कर भेजा था। कि इदरिस से कह देना कि उसकी नौको दुलहिन, बउरिहा को अपनी सौत नहीं, दाई-लौड़ी समझे। बउरिहा, नौको के पिसान से बचे चोकर की रोटी खाएगी और नौको का पोर-पैर दबा कर सोएगी।’’
फूफू ने बेअसर अम्मा की ओर दुख से देखा-‘‘ये सुनके तो इदरिस गाँव लौटने को तैयार हुआ होगा ?
‘‘कहाँ मुन्नर! इदरिस की नौको दुलहिन ने ओट से कहलाया कि इनका बेटा, कान्हा भी तो है वहाँ। हम को अपने बेटों की छाती पर पटीदार नहीं बैठाना हैे। पहले कान्हा को, बाबू लोगों के यहाँ नौकर रखिए चाहे नातेदारों के यहाँ भेजिए। ’’
‘‘तो राँची ही रहे इदरिस। अपनी बीबी के चोली में।’’
‘‘क्या कह रही हो मुन्नर ? इदरिस तुम्हारा भाई है। वो तो नौको ने उसे भेड़ा बना के बाँध लिया है। लेकिन हम को तो नौको के हरेक मंतर की काट खोजनी है। बेटी! अब तुम्हारा ही सहारा है। मेरी एक बात मान लो। कान्हा को अपने पास रख लो। इदरिस एक बार गाँव लौट आए फिर मैं कान्हा को दो चार साल में वापस बुला लूँगी।’’
अम्मा ने चूल्हे में इतनी जोर से फूँक मारी कि हम सब उधर देखने लगे। अम्मा का सिर राख से भर गया था और उनके चारों ओर चिनगारी छिटक रही थी।
‘‘हिसाब से चलना मजबूरी है बेटी। जब से इदरिस राँची गया है तब से गाँव इन्तजार कर रहा है कि बुढि़या को साँप काटे, हैजा हो, लू लगे। उसके बाद पगलैट बहूरिया और छोटा बच्चा कान्हा, इनसे निपटने में कितना बखत लगेगा। फिर हमारा आम का पेड़, उसके पास का खेत, उस पर ठकुरौली-बभनौली काबिज हो जाए।’’
फूफू चुप थीं। दो घड़ी बाद मुझे गोदी में बैठाते हुए दादी से कहीं-‘‘ मुझे बच्चे से मोह हो जाएगा अम्मी! मैं इसे वापस कैसे करुँगी। दो तो हमेशा के लिए दो ! मैं इसे पढ़ा कर अफसर बनाऊँगी। ऐ कान्हा! तू मेरे पास सोने में रात को रोएगा तो नहीं ?’’
पाठशाला बन्द होने पर पिछली गर्मी मैं फूफू के यहाँ गया था। वहाँ चीनी फाँकने को मिलता था। मुझे चीनी की बहुत याद आई। लेकिन मेरे मुँह से निकला कुछ और-‘‘फूफू मैं इसी गाँव का दरोगा बन जाऊँ तो, मुझे सियावर सिंह को खूब पीटना है।’’
‘‘बढि़या, तय रहा! तुम्हारे फूफू अरब से दो महीने में लौटेगे। मैं कागज-पत्तर तैयार करवाके, उनके साथ तुम्हें लेने आऊँगी।’’ फूफू जाते समय अम्मा से लग के ऐसे रो रही थीं जैसे बेटी की बिदाई हो। फिर दादी मुझे पकड़ के रोने लगीं। सब लोग क्यों रो रहे है ? डर के सबका मुँह देखता हुआ मैं भी रो रहा था।
तैयारी हो रही है। फूफू के जाने के बाद अम्मा मेरे कपड़े लेकर पाठशाला के पोखर पर धोने गईं। लौटीं तो मास्साब पीछे-पीछे थे। दादी मेरे टूटे बटन लगा रही थीं, मैं सुई में धागा डाल के उनको दे रहा था।
‘‘इदरिस की अम्मी! क्या तुमने झूठ हल्ला उड़ाया है ? कि इदरिस आ रहा है।’’ मास्साब दादी से पूछ रहे थे।
‘‘ पाय लगी गुरुजी। सही खबर है।’’
‘‘तो ये बात है। हूँ। ये बताओ, तुमने अपने पोते का नाम हमारे देवता के नाम पर क्यों रखा है ? आँ! जान बूझ कर, जब तब कहती हो- हरामी कान्हा, लुच्चा कान्हा, कान्हा पाजी ने दिक् कर रखा है। फसाद हो जाएगा इस बात पर।’’
दादी मास्साब के पाँव पर माथा रगड़ रही है-‘‘हम लोग तो बहते-बिलाते इस गाँव आए थे। आप लोगन ने सरन दिया। आठ साल पहले इदरिस कमाने गया। उसने भी हमारी खोज-खबर नहीं ली। हम तीनों तो इस गाँव के सहारे ही यहाँ रहे। हमको अपने लोगों मे शामिल लीजिए गुरुजी! ’’
दादी, घुटने पर हाथ रख कर, ढिमलाती हुई अम्मा के पास गई हैं। दादी का आँचल सरक गया है। दादी की छाती, छान्ही (झोपड़ी) पर सूखी लौकी जैसी लटकी है। अब दादी, अम्मा की धोती ठेहुना तक उठा के बेवाई फटे पाँव दिखा रही है- ‘‘ये देखिए मास्साब! बउरहिया बिछिया पहनती है।’’ दादी ने अम्मा के मुँड़े सिर से पल्लू गिरा दिया है-‘‘ये देखिए मास्साब! बउरहिया सिन्दूर-टीका करती है। इदरिस, राची में इन्दरासन नाम से दुकान...
‘‘तुम लोग भीतर से थोड़े बदलोगे। प्रधान जी ने कहलाया है कि इस लौंडे का नाम, स्कूल रजिस्टर में, कान्हा नहीं रहेगा।’’
‘‘तो आप जो चाहे नाम लिख दीजिए।’’
‘‘मैं काना नाम लिख रहा हूँ।’’
‘‘ठीक है मास्टर।’’
‘‘क्या ?’’
‘‘गुरुजी!’’
‘‘और सुनो! यह भी संदेसा है कि गेहूँ का डंठल खेत में जलाया नहीं जाएगा। सरकार ने कहा कि इससे जमीन के मित्र कीटाणु मर रहे हैं। अब से एक-एक डंठल उखाड़ना।’’
‘‘लेकिन गुरु जी, प्रधान जी के खेत में तो रात में आग लगाई गई थी।’’
‘‘अब तुम प्रधान जी से बराबरा करोगी ?’’
‘‘नाहीं, नाहीं!’’
हमेशा रोती रहने वाली दादी आज रोई नहीं। मैं आज की सुबह आम की रखवाली कर रहा हूँ। लड़के मुझे काना-काना चिढ़ा रहे हैं। मैं लड़कों को न दौड़ा रहा हूँ न मार रहा हूँ। एकटक सामने खेत में गेहूँ के डंठल उखाड़ रही दादी को देख रहा हूँ। उड़ती हुई जेठ की लू , दादी के सफेद बाल जैसी उड़ रही है। मैं दादी की मदद करने जाऊँ लेकिन इतनी देर में लड़के सारा आम गायब कर देंगे।
लड़कों को खेल की जल्दी है। मैं उनको अमिया देके हटाना चाह रहा हूँ। मैं सियावर के कंधे पर गिरते-पड़ते चढ़ा। जैसे लग रहा है आज मैं पहली बार अमिया तोड़ रहा हूँ। मेरी आँख खुली की खुली है। चोप मेरी आँख में गिर रहा है...मैं जलन से छनछना रहा हूँ। मैं सियावर के कंधे पर से खड़े-खड़े जमीन पर गिर रहा हूँ।
मुझे अगली शाम होश आया। मेरी बाईं आँख पर पट्टी बँधी थी। मैं एक ईटें पर गिरा था। चोप और चोट से मेरी बाईं आँख अगर बच भी गई तो उसकी रोशनी कम हो जाएगी। अम्मा चूल्हा लीप रही थीं। सियावर मेरे सिरहाने रुँआसा बैठा था।
मेरे कान में पिछवाड़े की आवाजें बज रहीं थीं। दादी दौड़ के आम की रखवाली कर रही थीं। दौड़ के डंढल उखाड़ रही थीं। बच्चे मेरी जगह दादी से अपना मनोरंजन कर रहे थे-‘‘बुढि़या दादी है चुड़ैल। इसके गंजे सिर पे मैल।’’ ‘‘ आम दे दो आम दे दो। बुढि़या दादी दाम ले लो।’’ ‘‘ गई कोइलासी बस्ते में। बुढि़या मर गई सस्ते में। ’’
अम्मा को भेज कर मैंने बच्चोें को बुलवाया-‘‘देखो तुम लोग हमको काना-काना चिढ़ाते रहे। हम काना हो गए। दादी को चुड़ैल कहोगे तो दादी भी चुड़ैल बन जाएगी। उस आम के पेड़ के नीचे जो कहो, सही हो जाता है।’’
सारे बच्चे भाग गए। वइसे भी शाम को घर लौट जाते हैं। ‘‘दादी! अब आपको चिढ़ाने कोई नहीं आएगा।’’ दादी मेरी होशियारी पर खुश थी। मेरे बगल लेट कर फिर वही पुरानी बातें बता रही थीं-‘‘कान्हा हमारा एक देश था, कच्छ। वहाँ से जान बचाकर हम लोग भागे हैं। जो थोड़ा रुपया लेके हम भागे उससे तुम्हारे बाबा ने यहाँ आम का बाग सीजन भर के लिए लिया। चार-छः साल बाद तुम्हारे बाबा ने यहाँ पिछवाड़े का खेत खरीदा...वो आम का पेड़ बउरिहा के हाथ से लगवाया...वो ही खेत-पेड़ ये लोग ...
...ये हल्ला कैसा...हल्ला सुनो बउरिहा! ...मेरे कान बज रहे हैं क्या ?’’
अम्मा दौड़ के किवाड़ पर से पटरा हटाई हैं-बहुत लोग इधर आते दिखाई दिए। हाथ में टार्च लिए। हम तीनों को चाँदनी रात में लंबे मास्साब चिन्हाई दिए, चिल्लाते हुए...‘‘चुडै़ल...टोनही...कनवा की दादी...आम के पेड़ पर प्रेत बैठाई है...बीच में सियावर की बड़ी हथेलियों से मुँदी जाती आवाज-‘‘दाऽऽदी...कान्हा!’’... फिर हल्ला... ये डाकिन पहिले अपने नाती पर टोना आजमाई...अंधा कर दी उसको...अब गाँव के सब बच्चन को आंधर करेगी...पहले छाती पर लाठी मारना... चुडै़ल मुँह से खून ढकचती भागेगी...तब गहरा गड्ढा खोद के गाड़ना...’’
अम्मा को लोग सही पागल कहते हैं। पागल ही इस हालत में काम कर सकता है। सही आदमी तो इस हालत में पागल हो जाएगा। मेरे बगल लेटी दादी को लकवा मार रहा है। उनकी देह पाकड़ पर, लतर की जड़ की तरह ऐंठ रही है। मेरे पाखाना निकल रहा है। अम्मा मेरे फटे कपड़े और पिसान अपनी झिंगली धोती में बाँध रही हैं। उन्होंने पीठ पर गट्ठर रख कर उसका किनारा अपनी छाती पर गठिया लिया है। उस गट्ठर पर मुझे बैठा रही हैं। दादी को उन्होंने गोद में उठा लिया है। भीड़ दरवाजे पर आ गई है...निकल बाहर...लाठियाँ ठकठकाई जा रही है...छान्ही हथियार से काटी जा रही हैं। अम्मा तवा पर की धुँआती रोटी बेलाउज में ठूँस रही हैं। चूल्हे से एक जलती लकड़ी निकाल कर मेरे हाथ में पकड़ा रही हैं।
दादी को लेकर भागती हुई, अम्मा की पीठ के गट्ठर पर बैठा हुआ मैं, अम्मा के कहने पर, अपने घर-आम का पेड़ और खेत में आग लगा चुका हूँ। मेरे पीछे दूर तक ऊँची लपटें हैं। जिसमें मेरी जमीन के मित्र कीटाणु जल रहे हैं।
संरक्षित वन
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भीगे बाज के पंख और उसकी चोंच में दबी धामिन, आपसे सट कर गए हों, अचानक ऐसी पत वाली, पानीदार हवा मुझे छू कर बही। तब मुझे भान हुआ कि मैं रास्ता भटक गई हूँ। जबकि यह संरक्षित वन था, बाँस-बरगद संयुक्त परिवार की तरह खड़े थे।
इस जंगल के पार शहर का दूसरा हिस्सा था। जहाँ रियायती दर की जमीन पर बड़े अस्पताल और स्कूल थे। सरकार के कृपांक से, खूब सारी लड़कियाँ पढ़ने जा रहीं थी। और घर लौटने केे समय, अस्पताल में पाई जा रही थीं।
आज फिर, एक और, भर्ती हुई है। ‘‘बन्द करो यह अत्याचार! नहीं और अब बलात्कार!’’ नारा लगाते सैकड़ों लोग, विधान सभा के सामने खड़े हैं। यहाँ विरोध और विचार के बाद हम सभी को जुलूस में, उस लडकी के पास, अस्पताल पहुँचना है।
मैं यहाँ आने से कतरा रही थी। लेकिन मेरी दोस्तें ! नाॅनसेन्स(र) , कुछ भी बोल देती हैं। वे मुझे घसीटती हुई लाई हैं कि ‘‘कल को तुझे कोई अँधेरे में खींच ले जाएगा न! जो बड़ी बुद्धिजीवी बनकर भटकती रहती है यहाँ-वहाँ, तो कोई तेरे बेड पर झाँकने भी नहीं जाएगा। चल सिक्योरिटी जमा कर!’’
संस्थाओं के प्रतिनिधियों का भाषण शुरु हो चुका था। तल पर बैठी दहशतें, सतह पर भँवर बनाती नाच रही थीं-‘‘साथियों! बलात्कार, स्त्री के वजूद को पीस देने के लिए किया जा रहा है। लड़की के गाल, नितंब, स्तन, योनि... दाँत से... पत्थर से...राॅड से जिस तरह चीरा-थूरा जा रहा है, यह क्या है ? यह आगे आती स्त्री के प्रति मर्द की नफरत है। ’’
मैंने देखा कि मेरी एक सहेली गहरी साँस लेने लगी, दूसरी जैसे झुरझुरी चढ़ी हो ऐसे गर्दन झटकने लगी, तीसरी पर्स का सारा सामान जमीन पर पलट कर पूछती है-‘‘आज मैं ब्लडप्रेशर की दवा खाना भूल गई हूँ क्या ? चैथी...अचानक उन्होंने भाषण की दिशा में पीठ कर लिया। खिलाडि़यों की तरह सिर जोड़ा,़ ‘गोल दुनिया को गोला देने के लिए गोल बनाओ ’ का नारा लगाया और इस कठिनतम समस्या का समाधान अपने ‘उस्ताद’ तरीके से ढूढ़ने लगी।
‘‘अबे! इस बलात्कार-शलात्कार का चुटकियों में सल्यूशन निकले। लेकिन पहले ये तो तय हो कि हम पथरीली अहिल्या हैं कि शापित इन्द्र। हमारी पूरी देहिया पर योनि होती है क्या बे कि ये एक-एक अंगवा भकोस लेते हैं ? ’’
‘‘हम इन्द्र-अहिल्या दोनों हैं। मिक्स्ड ब्रीड... हिजड़ा हैं हम!’’ मेरी उत्तेजना भरी बात पूरी होने से पहले ही...
‘‘रुक, रुक! तेरी बात से मस्त आइडिया मिला ! सत्रहवी सदी की रोसीजी जाति में पहली माहवारी के बाद लडकियों की वो सिल दी जाती थी। हाँ और क्या! ...ढोल बजाओ,चीख दबाओ। मानी बात है, सुई ़बराबर भूमि छोड़ के। हम लोग भी डाॅक्टर से...नहीं, नहीं...किसी नर्स से... सिलवा लेते हैं। ठीक! बोलो ?’’
मचान पर के साथी अपनी तरह से थे-‘‘ भाइयों और बहनों! एड्स, कैंसर, प्लेग, सबसे बढ़ कर-सबसे खतरनाक, यौन हिंसा विश्व की लाइलाज महामारी बन चुकी है।’’
निचान पर सहेलियाँ अपनी तरह से-‘‘न्ना, लाइलाज कत्तई नहीं है। हम लोग हैं न! मैं ये कह रही हँू कि हम अपना क्यों सिले ? उन सालों का न काट दें! ल्यो फिर हँसने लगीं। तस्लीमा का फायर ब्रंाड लेख पढ़ो मूर्खाओं। उस औरत ने, अरे नाम नहीं याद आ रहा उसका, उसने तो बाप रे! अपने रेपिस्ट का, छुन्नू काटा। एऽऽ खच्च! फिर शहर में लहराती हुई घूमती रही, देखो ऐसे। उसके बाद गन्ने के खेत में फेंक दिया... एऽ ऐऽऽ ये गया। उल्टा ये मादर ...थूथन गड़ाए खोजें अपना सिलवाने के लिए।’’
‘नो! फादर... भूल गई, हर गाली में हम माँ की जगह बाप और बहन की जगह भाई रखेंगे! ’
मंच से हिदायत आई-‘‘उधर गोले में खड़ी बहनें कृप्या शांति से सुनें। हम मानसिक रोग से बचें और बलात्कारी हतोत्साहित हो इसके लिए बलात्कार को मामूली दुर्घटना की तरह लेना पड़ेगा। जैसे उँगली कट गई...।’’
‘‘च्च,च्च! बेचारे ! हमें चुप करा रहे हंै। दो मिनट के लिए मौन रख लो औरतों की इज्जत के नाम पर!’’
‘‘बसन्ती! मौन कैंसिल! और मेरा यूरो टू आइडिया सुन!’’ भूरी आँखें वाली सहेली झुकते हुए छिपी और ताली मारते हुए बोली-‘‘मैं रेपिस्ट से पहले तो कहूँगी आ जा रजा! फिर तो बेल्ट-बूट खोलता-कूदता आएगा। बस! तभी मैं पिल्ले की पिचकारी पकड़ के लटक जाऊँगी। कायँ कायँ करता मरेगा इसके बाप का...’’
इस पर तो हँसी की मीराँ लोक-लाज त्याग कर निकल पडीं। बाकी जनानियाँ कनखियों से इधर देख रही थीं। बारी-धीरे खिसकती हुई, इस गोले को बड़ा करती जा रही थी।
‘‘नहीं यार! आदमी से लड़ने बराबर ताकत हममें नहीं होती। क्या करें ? घर से ही न निकला जाए क्या ?
‘‘पगली! घर राहत शिविर नहीं, ट्रेनिंग कैम्प होते हैं।’’
‘‘तब ? मुल्लों-पंडों की एक बार सुन ली जाए। कह रहे हैं नाखून तक ढक के निकलो।’’
‘‘झाडियों में टू पीस बिकनी नहीं, पेटकोट मिलते हैं, सलवारें मिलती हंै, फ्राक मिलते हैं।’’
‘‘निर्भया पिस्तौल...
‘‘खूब बिक रही है। बाॅडीगार्डो वाली औरतें खरीद रही हैं या आदमी खरीद रहे हैं। हमारे-तुम्हारे पास इतना पैसा कहाँ ?’’
‘‘मिर्च पाउडर स्पे्र सस्ता है। उसकी दो फैक्ट्रियों का उद्घाटन कल महिला मंत्री ने किया है।’’
‘‘इडियट हो क्या! पर्स से स्प्रे-फिसप्रे निकालने की मोहलत नहीं रहती है।’’
‘‘तब ? कोई ऐसी तैयारी जो पहले से हो। सुनो! क्यों न हम लोग बरामदे में लोहार बैठा के चेस्टिीटी बेल्ट बनवाना शुरु कर दें। हाँ! वही जो मध्य युग में शत्रु सेना के प्रवेश के समय नगर की औरतों को पहना दिया जाता था।’’
‘‘चेस्टिीटी बेल्ट का आइडिया ठीक लग रहा है। इसमें औरतों को रोजगार भी मिलेगा और सुरक्षा भी। क्या कहती हो तुम सब, फाइनल किया जाए !’’
‘‘फाइनल! लौह कच्छ! तालियाँ!’’
‘‘चलो! यहाँ जितनी औरतें हैं कम से कम उनका आर्डर तो ले ही लिया जाए।’’
‘‘लेकिन चाभी ? हमारे पति जमा कर लेंगे! चोरी से डुप्लीकेट बनवाते हैं तो रखेंगे कहाँ, फिर उसी पर्स में!’’ समूह की आवाज, समुद्र में यात्रियों से भरी नाव पलटने जैसी गुड़ुप-उछुप थी।
‘‘टेंट में चाभी...टंेटूआ दाबी।’’ टैªक्टर-ट्राली में भर कर, फूलदार छाप की साड़ी और चटकीली टिकुली-लाली वाली औरतें भी वहाँ बुलाई गई थीं। धकिया कर अपनी जगह बनाती उस मुखियानुमा स्त्री ने कहा-‘‘हमारा आजमाया हुआ नुस्खा है। भया यूँे कि एक रात हमारे गाँव डाकू आए। परधानिन को दिक् करने लगे। परधानिन चुमकार के बोली कि लल्ला! भोजन-भजन-रमन अकेले में कीन जात है। कोठरी में लेइ गई। वहाँ कस के दाब दी । मर गवा दाढ़ीजरा! ’’
उस मुखिया के पीछे बाकी भी आ गई थीं -‘‘ हम बोल नहीं रहे थे कि हम देहाती भुच्च आप लोगन को क्या सिखाएँ ? सच्ची बात तो ये है कि इसमें बहुत जोर-जबर की जरुरत नहीं रहती। मरद का वो तो तोता होता है, हाँ सच्ची में! आदमी लोग का प्रान उसी में रहता है। इनके तोता को कुछ हो जाए तो ये लोग मर जाते हैं।’’
तोता ! तोता!
जामा मस्जिद में , झुकते-उठते, दाएँ-बाएँ, हँसी की नमाज अदा हो रही थी।
हँसते-हँसते उनकी आँख से पानी गिरता जा रहा था।
कुछ दूरी बना कर खड़े लोगों की निगाह में- ‘‘मेरी सहेलियों की आँख का पानी गिर चुका था।’’
मैं बीच में गई और ब्लेड सी आवाज में पूछा-‘‘ तुम हमेशा इसलिए गोले में खड़ी होती हो क्योंकि इसी तरह कई बार घेरी जा चुकी हो ? चिल्ला कर इसलिए बोलती हो कि क्योंकि मुँह दबा कर तुम्हें चोटें दी गई ? तुम इंसान हो या फक...फकत औरत ? आत्मा भी है या खाली देह ?’’ तुम सब मुझसे वास्ता न रख के मुझे मार डालो, तब भी मैं कहूँगी-
...तुम्हारी हँसी, चैराहे पर खड़ी उस विक्षिप्त औरत की हँसी है! जिसके साथ रोज रात में बलात्कार होता है और जो दिन में ट्रैफिक कंट्रोल करने का भ्रम रखती है...
...तुम्हारी हँसी सभ्यताओं की मजार पर रुदाली है...
...तुम इस हँसी से सुनहरी संस्कृतियों की खिल्ली उड़ा रही हो, नैतिक सत्ताओं को ठेंगा दिखा रही हो! तो सावधान! कोल्ड ड्रिंक की बोतल में, सस्ती, बुजबुजाती, जिस्म को धुआँ-धुआँ टघलाती तेजाब याद है न!’’
वे एक दम से चुप हो गईं। मेरी ओर झुकीं। फटी और फँसी आवाज बनाकर कहती हैं-‘‘ इससे भी आगे चलो। जहाँ हमने अपनी एक दुनिया बनाई है। उस दुनिया में रहने वाली हम में से कुछ के, आन्दोलनों से लौटते समय, नहर में गर्दन और बदन खंडहर में मिले हैं। कुछ गाँव भर में नंगी घूमाने के बाद जलाई हुई हंै। कुछ रिपोर्ट लिखवाने गई तो पेड़ पर टँगी मिली। बलात्कार तो वे करते ही थे, लेकिन अब वे झाडि़यों में फेंकने से पहले, हमारी योनि की एक-एक नस, बियर की टूटी बोतल से काटना नहीं भूलते।
... हम औरतें नहीं हैं। हम कानून और आन्दोलनों के साथ बलात्कार से जन्मी चुड़ैलें हैं।
... हम हँसती हैं। बहुत हँसती हैं। अपनी हँसी से हम उन्हें चिढ़ाती हैं। कि सब के बाद भी हम कितनी बेपरवाह और उदंड हैं। कि हम इतनी अश्लील हैं कि हम पर रत्ती असर नहीं है। कि हम हमेशा की तरह खुश हैं। हँसी हथियार है, जिससे वे सपने में डरते हैं। तुम भी हँसो, सब कुछ मर जाने के बाद, अपनी हँसती हुई आवाज को मरने से बचाने के लिए।’’ और फिर और जोरदार ठहाका- ‘‘अरे यार! इसने तो सच मान लिया, डर गई ये तो!’’
‘‘बलात्कारी को फाँसी दो।’’ वे जुनून में...नहीं, नहीं, जुलूस में चिल्लाती हुई अस्पताल की ओर बढ़ने लगीं।
मैं गड़बड़ा रही थी। दिमाग कीे शिराएँ, सितार का तार तोड़ने की हद तक खींच कर छोड़ दिए जाने जैसी झनझना रही थीं। उस ढलते समय में, मैं ढलान पर उतर आई। जहाँ आगे यह संरक्षित जंगल था।
वन के एकांत में मुझे आराम मिल रहा था। मुझे अपनी गाड़ी की गति बहुत धीमी करनी पड़ी।
बत्तखों का एक झुंड, तीर्थयात्रा से लौटे परिवार की तरह, पूँछ पर गठरी लादे, आराम से सड़क पार कर रहा था। बाई ओर कुछ पनमुर्गियाँ बोरसी तापती बुढि़यों सी पंजा उठाए बतियाँ रही थीं। गिलहरियाँ, बच्चियों की तरह भांैचक देखतीं और भाग जाती। कौओं में, क्रिकेट खेल कर लौट रहे गली के छोकरों की तरह शोर करने की ताकत बची थी। बँसवारी के पास का कुकूर, गंजेडी़ बूढ़े की तरह लोटता हुआ खाँस रहा था। महुआ और बौर, बेटी के जनवासे में ठहरे पेड़ों पर फूल और इत्र छिड़क रहे थे। यूकेलिप्टसें बारात में खूब झूमी थी। और इस समय औधी लेटी, पल्लू हटे चिकनी पीठ पर, बाम मल रहीं थीं।
सारा दिन आवारागर्दी करके पसीनाए सूरज को, नहलाने के बाद, नदी अपने आँचल में थपकी दे रही थी...
अरे! सूरज डूब गया...रात हो गई। हे भगवान! सैंड्रिला की तरह अब मेरे सारे आवरण उतरेगें। मैं साली बार-बार अपनी जात, अपनी औकात भूल कर जंगल-नदी देखने अकेले क्यों निकल जाती हूँ !
मैंने अपने को निषिद्ध समय और इलाके में खड़ा पाया।
‘‘सहेलियों को फोन करुँ। पर उन्हें रात में शायद निकलने को न मिले। ओह! कनेक्टिविटी भी नहीं है।’’ मेरी धड़कन मुझे बहरा करने लगी। मैंने शीशा चढ़ाया, हेडलाइट आॅफ किया और अंदाज से बढ़ने लगी। मैं सब समझ रही हूँ! सूखे पत्ते मेरी निशानदेही कर रहे हैं, सड़क ने अपने ऊपर गहरे खड्ड उगा लिए हैं, ताड़ का पेड़ अपने तने से नशा चुआ रहा है, पेड़- रेगमाल सी जीभ से योनि चाट कर जिन्दा रहने वाले गोरिल्लों की तरह बाहें झुलाते मेरी ओर बढ़ रहे हैं...
अखबारी शब्द-चीटियाँ माथे पर रेंगने लगीं-‘‘ यहाँ चिंकारा के शिकारी आते हैं।’’
‘‘मैं...मैं उनसे कह दूँगी सब कर लो। मुझे काटो-पीटो नहीं। दुपट्टे को झंडा नहीं बनाऊँगी। मेरे दुपट्टे से मेरा गला मत कसो!’’
मैंने ब्रेक लगा दिया था। तनाव के कारण मेरी चेतना ठीक से काम नही कर रही थी। सड़क के बीच में यह सूखा पेड़ मुझे दिखाई नहीं दिया था। क्या, सूखा पेड़ मेरी बोनट पर गिरा है ? यह तो लड़खड़ा रहा है... हाथ जोड़ रहा है... रो रहा है...इक्कट-दुक्कट खेलने की तरह उछलता हुआ मेरे शीशे के बगल आ गया...एक पाँव घुटने से कटा है !
‘‘दीदी माँ! मुझे बैठा लो..बचा लो ! ’’ उसकी आवाज तुतला रही थी। क्योंकि उसके सिर से भल-भल खून बहता हुआ, होठों से मुँह में जा रहा था।
यह अपाहिज, घायल, एक हड्डी का, मेरा क्या बिगाड़ लेगा। लेकिन मैंने इसे, इस जंगल में छोड़ दिया तो सुबह से पहले ही यह मर ही जाएगा। फिर एक से दो भले। मैंने जल्दबाजी में भी, पहले शीशा खोला। उसे बैठाया। और अपना दुपट्टा उसकी चोट पर कस कर बाँध दिया।
एक थकी और इतमीनान भरी मुस्की उसके चेहरे पर थी-‘‘दीदी माँ! आज मैं फिर बच गया।’’ उसके भोले सम्बोधन से मेरा डर छँटने लगा।
‘‘आपका सिर कैसे फट गया ?’’
‘‘वो वन रक्षक...मेरा सामान छीनने लगे थे। मैं भागा तो पत्थर से टकरा गया।’’
‘‘सामान! क्या सामान था आपका ?
‘‘मैं आपसे छोटा हूँ। तुम कहिए। वो नट, जो जंगल पार रहते हैं न! उनके लिए मैं शहर से चूड़ी बिन्दी रिबन खँजड़ी यही मनीहारी की चीजें ला देता हूँ। मेहनताने में जो उनके पास रहे, थोड़ा कुछ मुझे दे देते हैं।’’
‘‘नटों ने झूठ-मूठ सजना-बजना लगा रखा है। तमाशा दिखाना तो वे कबका छोड़ चुके हैं। सुना है अब चोरी-चकारी करने लगे हैं।’’
‘‘तमाशबीन हों तब तो तमाशा हो। और चोरी ये ही है कि वे महुआ चुराते हैं। महुआ ही उनका खाना है, पीना है। इसी रुत में वे साल भर का बटोर लेते हैं। दीदी माँ! आप गूलर की तरकारी से महुए की रोटी खाई हैं ? बहुत स्वाद आता है!’’ मुस्कुराने के लिए उसके होंठ जबड़े तक फैले तो दर्द से भींच गए।
‘‘कहाँ उतारना है तुम्हें ?’’
‘‘मेरी लाठी वहीं गिर गई। मैं चक रोड से घर कैसे जाऊँगा ?’’
‘‘मैं घर तक छोड़ दूँगी।’’ मैंने उसके पाँव की ओर देखते हए कहा।
वह बेकसूर सजायाफ्ता की हँसी, हँसा-‘‘मोटर साइकिल वाला मेरे पाँव पर चढ़ा दिया। सुबेरे-सुबेरे ही। वो देख उधर रहा था, लड़कियों को, और चला इधर रहा था। मैं दूपहर तक पड़ा रहा...हाथ हिलाता रहा, चिल्लाता रहा... आते जाते लोग लहरा के निकल जाते। जब रोटी के टाइम नही पहुँचा तो माँ मुझको खोजती हुई निकली। गिरते-पड़ते हमको अपने कांधा पे लाद के अस्पताल ले गई। उस दिन माँ ने बचाया आज आपने। इसलिए आप मेरी दीदी माँ हुईं।
‘‘लोग कितने निर्दयी हो चुके हैं। मैं अपनी सहेलियों से बात करके आपके लिए जयपुरी पाँव का बन्दोबस्त करुँगी।’’
‘‘थोड़ा तो खर्च आएगा दीदी माँ! मेरे पास उतना भी नहीं।‘‘
‘‘मैं दँूगी।’’
उसने चेहरा बाहर निकाल लिया था- ‘‘जरा धीरे धीरे गाड़ी हाँको मेरे राम गाड़ी वाले। गाड़ी मोरी रंग रंगीली बैठन वाला राम...’’ उसके चेहरे से हवा कट कर भीतर आ रही थी।
अचानक स्पिरट जैसी महक आई। मुझे लगा कि अस्पताल-चोट, सुनते-सोचते, मुझे भ्रम हो रहा है।
‘‘दीदी माँ मुझे डराइवरी सिखवा के अपने साथ रख लीजिए। लेकिन पाँव...अच्छा कम्प्यूटर सिखवा के...’’
‘‘एक मेरा दोस्त कम्प्यूटर जानता है।’’
‘‘बरसात आती है तो मरी घास भी हरी हो जाती है।’’ उसने कहा। बूँदें टपकने लगीं थी। वह अपना हाथ बाहर निकाल कर लहरा रहा था।
सोंधेंपन के बीच एक लहर...यह तो शराब की गंध है। यहीं कहीं आस-पास वन रक्षक हैं।
‘‘शीशा बन्द कर लो।’’
‘‘दीदी माँ! खुला रहने दीजिए।’’
‘‘नहीं, बन्द करो, जल्दी!’’
‘‘हे भगवान!’’ शराब और तेज महक रही है-‘‘शीशा खोलो! तुरन्त खोलो!’’
मैंने अपने को साधा फिर पूछा-‘‘तुम्हारे जैसे के पास ऐसा क्या था कि वन रक्षक छीन रहे थे ?’’
उसे कुछ शंका हुई। वह घूमा।
बारिशी बन की रात , बन्द कार में, वह सिर्फ चमकती आँखें था। अँधरे में जानवर जैसे चमकती आँख भर रहता है।
डाकू खड्ग सिंह...मेरे सभी हिस्सों का रक्त सनसनाता हुआ दिमाग की ओर दौड़ गया।़ चाकू या पिस्तौल के बल पर...‘‘इस घटना की चर्चा किसी से मत करना नही ंतो लोगों का भरोसा उठ जाएगा...’’ यह कहने लायक यह मुझे छोड़ेगा ही नहीं। मेरा वजूद, तुम्हारे खिलाफ एक सबूत है, जिसे तुम मिटा दोगे।’’
हवा पत्तियों को थप्पड़ मार रही थी। बूँदें बीच-बचाव करती हुई कभी हवाओं को ढकेल देती कभी पत्तियों को। मैंने धीरे से चाभी निकाल ली- ‘‘आपका दरवाजा ठीक से बन्द नहीं है। मैं उतर कर बन्द करती हूँ। नही ंतो आप गिर जाएँगे।’’
‘‘अरे! आप काँप रही हैं। ये दुपट्टा लीजिए।’’
‘‘दुपट्टा खोल लिया है। अब मेरा गला बिधेंगा।’’ मैंने दरवाजा खोला...दुपट्टा लेने के लिए हाथ बढ़ाया...बिजली कड़की...उसी के साथ उसकी चीख...मैंने उसे जमीन पर खींच लिया था। मेरा संतुलन बिगड़ गया। मैं गिर रही थी। कीचड़ में मचलती मछली की तरह, उसने तड़प कर मेरे लड़खड़ाते पाँव पकड़ लिए।
‘‘दीदी माँ मुझे मत फेंको... वन रक्षक मुझे मार देंगे।’’ वह दाएँ-बाएँ झटके से देख कर गिड़गिड़ाया।
चुप!चुप! अपने साथियों को संकेत दे रहे हो, क्रिमनल! धोखेबाज! शराब में डूबे हो। कहते हो पैसा नहीं है।’’ मेरे एक उन्मादी झटके से वह मेरे पाँव से अलग हो गया। लेकिन उतनी ही तेजी से पलट कर गाड़ी के नीचे आ गया।
मैं धोखेबाज हूँ, क्रिमनल हूँ, तो गाड़ी चढ़ा दो गाड़ी मेरे ऊपर !
‘‘ठीक है! मरो तुम।’’ मै चाभी नहीं लगा पा रही थी...इग्नीशन जैसे उल्लू की घुर्राहट..
‘‘रुकिए! रुक जाइए! जा रहा हूँ! निकल रहा हूँ! ’’ वह कटा पाँव पहिए के नीचे से खींच रहा है। थप्!थप! उसके मिट्टी सने पंजों के निशान शीशे पर पड़ रहे थे। जैसे कोई डूबने से बचने के लिए पानी पर हाथ मार रहा हो -‘‘सुनती जाओ! वो मेरी बैजंती... महुए की शराब...भगवान! कइसे कहूँ... बैजंती महुए की शराब गरम करके मेरी टूटी हड्डियों की मालिश करती है। पाव भर रात के लिए बाँध देती है। मैं अपने लिए...बैजंती के लिए...गर्मियों भर महुआ चुराता फिरता हूँ। महुए की दारु.. इस दरिद्र की... नींद की... दरद की...दवा है दीदी माँ !
...आज वन रक्षको ने पकड़ लिया। दवा छीन ली। कह रहे थे... मैं वोही भगोड़ा हूँ जिसकी जहरीली शराब पीकर सात लोग मर गए। दीदी माँ! वो आज मेरा एनकाऊन्टर करेगें....
‘...उनके लिए...यह वतन संरक्षिन वन है, दीदी माँ। ’’
मैंने स्टेयरिंग पर सिर टिका लिया। सिर उठाया-‘‘नहीं, किसी का भरोसा नहीं। उस दिन भी तो...’’ उसके गाड़ी के नीचे से निकलते ही, मैंने गाड़ी आगे कूदा दी।
‘‘मुझे औरतों ने ही बचाया है दीदी माँ !’’ वह आखिरी बार गिड़गिड़ाया,
और पहली बार चीखा- ‘‘चुड़ैल हो तुम! हत्यारिन! डायन!
मैं मील के पत्थर पर बैठी थी। जंगल मेरे पीछे था। दूर, चर्च के घण्टाघर ने रात की तीन चोटें की...चुड़ैल...हत्यारिन...डायन। सही है। चुड़ैलों की तरह, हमेशा मेरी गर्दन पीछे रहती है और पाँव आगे। आज भी ध्यान,कान,आँख,मस्तक उस लड़के की दिशा में था और पाँव सड़क की ओर। और, मैं बिना आत्मा की खाली शरीर हूँ।
‘‘मेरे प्यारे बाबा!’’ मैं आसमान से मुखातिब थी-‘‘मैं आखिर में तुमसे कह देना चाहती हूँ कि मुझ बिन माँ की बच्ची को तुम अपने दोस्त के यहाँ छोड़ कर नाइट ड्यूटी करने गए थे। मैं चाची के पास से उठ कर वाॅशरुम गई। चाचा ने मेरा मुँह दबा लिया था। बाबा! उसी दिन मेरी आत्मा की दम घुटने से मौत हो गई थी। अगली सुबह तुम मुझे लेने आए और चाचा को झुक-झुक कर धन्यवाद दे रहे थे-‘‘तुम्हारा ही सहारा है बन्धु!’’ मैं तुम्हें कुछ बता न सकी थी। विश्वास के बदले इतना बड़ा धोखा पाकर तुम्हारा बचा बुढ़ापा जहर हो जाता।’’
‘‘लेकिन उस दिन के बाद मेरी जिन्दगी नीली पड़ती गई। मैं चाचा, भाई, दोस्त, पड़ोसी...किसी पर भरोसा नहीं करती। मैं बोलती नहीं। हँसती नही। अखबारों से , फिल्मों से, आन्दोलनों से भागती हूँ। बलात्कार...इस शब्द की एलर्जी से मुझे अस्थमा के दौरे पड़ते हैं। मैं अकेली पड़ती जा रही हूँ बाबा!सुन रहे हो! मुझे मेरी आत्मा का साथ दो या अपने पास बुला लो! ’’
मेरे आँख की घनी बारिश, मेरे हृदय को धो रही थी।
‘‘बारिशें आती हैं तो मरी घास भी हरी हो जाती हैं, दीदी माँ!’’ किसी ने वन में से पुकारा।
मैंने गौर किया, मेरा मस्तक और पाँव दो अलग दिशा में नही, एक दिशा में थे, वन की दिशा में। प्यारी सहेलियों! मैं चुडै़ल योनि से मुक्त होने जा रही हूँ।
चितमन
‘और जोर लगा फूलो!’ चंदा काकी खूब ताकत से चिल्लाईं। जिससे फूलो को अंदाज लगे कि उसे भी इतना ही दम देना है।
‘तनिक उअर जोर लगातीं न जी!’ फूलो को यह बात पहचानी हुई लगी। मूच्र्छा में जाती फूलो को, खटक..धड़...खटक..जंगल की पुलिया से गुजरती रेल की आवाज सुनाई दे रही है। वह रेल की ओर दौड़ रही है...येऽऽ एक ढेला...ये दूसरा ढेला। रेल की खिड़की-दरवाजे पर, बैठे-ठाढ़े आदमी बच रहे हैं, हँस रहे हैं। यह तो बरसों से उसका रोज का काम है। लेकिन आज पुल पर धीमी हुई रेल से उतर कर, किसी ने उसकी कलाई पकड़ ली है-‘सब ढेला बीचवे में गिरा जा रहा है जी! ’’
‘‘अबसे नहीं मारुँगी।’’
‘‘क्या आँख ? ’’
‘‘नहीं, ढेला ’’
‘‘क्यों काँप रही हैं ? मैं आपका दुश्मन थोड़े न हूँ। इस राह का डेली पसिंजर हूँ। पहले आप फ्राक में ढेला लाती थीं। जब से आप ओढ़नी में लाने लगी हैं, हमको छुट्टी के दिन कौर नहीं घोटाता है। आप कुछ हूँ-हाँ तो कीजिए। मुँह में दही जमी है क्या जी ? यही पूछ लीजिए कि हम क्या-क्या जानते हैं आप के बारे में।
‘‘क्...का जानत हैं।’’
‘‘यही कि आप फूलो है। लेकिन हमारे यहाँ सरकार को उसके नाम से नहीं बुलाते हैं।
‘‘तब ?
‘‘कहेंगे-सुनती हो टनक पुर वाली, ऐजी राम बरन ससुरे की धिया, का हो महेन्दर सरवा की बहिन।’’
वो मुस्कुराई थी तो धान की गेहुँआ बालियों से दूधिया दाने झाँकने लगे थे।
‘‘आगे यह कि आप लोग भूमिहार हैं, हम कहार हैं। आप दस कट्ठा जोत की बेटी हैं। हम एक कट्ठा वाले के बेटा हैं। फिर भी हम इस आँचल को अपनी धोती से गठियाना चाहते हैं जिसमें आप अभी तक ढेला लिए ठाढ़ हैं।’’
उसने अचकचा कर ढेले गिरा दिए-‘‘कइसे सब मालूम ?’’
‘‘आपकी सखी, बृखभानुजा हमारे गाँव ब्याही है।’’
‘‘आप घुमेरपुर वाले परकाश बाबू हैं...’’
‘‘और नहीं तो क्या। आपकी बातें बताने के लिए बहुत नेग वसूल चुकी है बृखभानुजा हमसे।’’
दो ही महीने बाद की एक वैसी ही दोपहर थी। वह केवास के जंगल को गठरी लिए दौड़ती पार कर रही है... प्रकाश बाबू उसका बायाँ हाथ पकड़े हैं...वह चलती रेल में चढ़ रही है। अगले दिन उसकी ससुराल में, नईहर से नाऊ आये हैं। उसने दौड़ कर नाऊ काका को प्रणाम किया-‘‘ फूलो के पास उसके बाबूजी-भइया, अम्मा-बहिनी की ओर से ये संदेसा पहुँचे कि हमने अपनी ओर से फूलो का श्राद्ध कर दिया है।’’ तब यही प्रकाश बाबू उसको अँकवार में भर के कहे थे-‘‘ मैं माई-बाप, भाई-बहिन, सबका शौक पूरा करुँगा मेरी टनकपुर वाली।’’
टनकपुर वाली...ये पुकार न हो तो वह अपने नईहर का नाम भी भूल जाए।
‘‘टनकपुर वाली...जोर काहें नही लगाती।’’ चंदा काकी की आवाज से उसकी मूच्र्छा न टूटती तो अच्छा था।
‘‘कौनो आस नहीं काकी !’’
‘‘हमको मालूम है बहूरिया...लेकिन तुम्हारे देह में जहर फैल रहा है।’’ काकी उसके पेट को लात से मसल रहीं थी। उसने दाँत पर दाँत बैठा लिया। चिल्लाती तो आँगन में बैठी सासूजी की बातें नहीं सुन पाती-
‘‘जो लड़की अपने माँ-बाप की न हुई वह तुम्हरी क्या होगी परकास। तीसरी दफे ये पेट में बच्चा मारी है, वो भी बेटा। आज तूझे फैसला करना होगा, रामपुर वाले रिश्ते के लिए हुंकारी भरनी होगी। नाहीं तो हम अपनी माटी में आग देने का हक तुमसे छीन लेंगे।’’
फूलो ध्यान लगाए थी-‘‘देखे हमारे ये क्या कहते हैं...चुप हैं। इनको अम्माजी के आगे झुकना पड़ा तो ? यही कहार उसको अँजोर-अँधरिया, पूरवा-पछुवा का माने बताये। अमौसा मेला वाले दिन, पिच्चर हाल में एके सीट खाली थी। जबरिया उसको गोदी में बइठा के नदिया के पार दिखाए। यही एक कट्ठा जोत वाले उसके लिए अपना पेट काट कर नथिया, बेंदी गढ़ाये। यार भी जाएगा और सगरो संसार भी जाएगा। बड़ा घाटे का सौदा बैठेगा रे टनकपुरवाली!’’
फूलो सउरी में अकेले सोई है। बाकी सब लोग, बच्चे को सोन मइया की गोद में डालने गए हैं।
अतीत में लौटने की राह मूँद दी गई है। भविष्य के मुहाने पर पत्थर रखा जा रहा है। न रोशनी मिल रही है न हवा। वह अफना कर नींद से उठी। थोड़ी देर पाँव फैलाए बैठी रही। फिर बुदबुदाई-‘‘हमारे सपने में देबी मइया आई थींे...।’’ इस बात को वह सैकड़ों बार दुहराती रही। कँपकँपी के बाद जब आवाज ठहर गई तब उसने कहा-‘‘ हाँ अब ठीक है।’’
चंदा काकी को भेज कर, अगली दोपहर, उसने श्रीप्रकाश को बुलवाया-‘‘ सुनिए! हमको आपकी बहुत चिन्ता हो रही है। ये मत सोचिएगा कि हम अपने लिए कह रहे हैं। ’’
‘‘बात का है टनकपुरवाली ?’’
‘‘बात ये है कि हम ठीक भीनसारे एक सपना देखे। कि देबी मइया इसी चैखट पर बैठी हैं। हमसे कहती हैं कि जो आदमी दो ब्याह करता है, वह जल्दी मर जाता है। इतना कह कर...’’
पहसुल पर साग काटती सास ने फूलो को सुना कर कहा -‘‘सुद्ध सौतियाडाह है। बृखभानुजा बता चुकी है कि रामपुर वाली लड़की के लच्छन बहुत सुभ हैं।’’
‘‘बृखभानुजा ? वो तो उसकी सखी है। वो इस शादी में बिचैलिया है ? क्या हम इतने कौड़ी के हो गए चंदा काकी ? खैर, आप बृखभानुजा से जाकर कहिए कि फूलो हाथ जोड़ रही है, यह ब्याह कट जाना चाहिए , कैसहूँ!’’
‘‘बहूरिया! हम आपकी हालत देख के पहिले ही बतिया चुके हैं। बृखभानुजा दुलहिन का कहना है कि फूलो की सास प्रकाश बाबू का दूसरा ब्याह करके रहेंगी। इसलिए वह पहचान वालों की, गरीब घर की, बिना बाप की लड़की से ब्याह लगवा रही हैं। जिससे वह लड़की फूलो का आदर करे।’’
‘‘तुम बृखभानुजा को नहीं जानती काकी ! वह केंचुआ की तरह दोनों ओर चल रही है। उधर से नेग ले ली होगी, इधर अहसान लाद देगी।’’
पीली धोती में, नजरें झुकाए प्रकाश बाबू चैखट पर आए थे। आज उनकी छिकैया है। फूलो अब हर समय आँख बन्द किए पड़ी रहती।
‘‘रेलिया क चढ़न वाले, मन से उतरते नाहीं ...’’
फूलो हड़बड़ा कर उठी। ये गीत तो उसके ब्याह में बृखभानुजा ने गाया था। सौरी से आँगन दिख रहा था। बन्ना-बन्नी, ढोलक-झाँझ बज रहा था। बृखभानुजा मटक रही थी। ‘‘बहुत खुस हो बृखभानुजा!’’ किसी ने पूछ लिया। बृखभानुजा जवाब दे रही थी-‘‘सच्ची मैं बहुत खुश हूँ। इसलिए कि, सब गोतिन लोग सुनें,सुनें! मेरा चितमन दसवीं में जिला में स्थान पाया है। बहुत बुद्धिमान...बहुत अकिलमंद है... जवार का नाम रोशन किया है मेरे चितमन ने।’’
‘‘एक दिन था। कि यही बृखभानुजा, सुन्दरता में उसके पाँव की धोवन थी। बाप-भाई एड़ी रगड़ के ब्याह किए। लेकिन गोदी में बेटा लेकर जाती है नईहर। उसका दूलहा कंधे पर बेटे को बैठा के गाँव में घुमाता है। वो सूखती-झुकती गई। बृखभानुजा गदराती-दुलराती गई। देखो, कइसा बेटा के घमंडे नाच रही है।’’
फूलो को कमजोरी के मारे फिर मूच्र्छा आ गई। होश आया तो झिंगुर बोल रहे थे। काकी सिरहाने बैठी थीं।
‘‘काकी ! आज ये हमारा हाल पूछने नहीं आए ? चितमन भी दसवीं पास कर गए... मिलने तक नहीं आए। धीर-धीरे हमको सब छोड़ रहे हैं।’’
‘‘चितमन बाबू को नई साइकिल मिली है।’’
‘‘न्ना, बृखभानुजा मना की होगी। हमारी गोद कलंकी है। बइठने वाला मर जाएगा। काकी! हम भी जल्दी ही मर जाएँगे। तो और लोग क्यों बचे ? और लोग भी नहीं बचेंगे !’’ उन्माद में फूलो की साँस फूल रही थी-‘‘काकी ! एक आखिरी काम कर दो। बृखभानुजा से जाके इतना कह दो-‘‘देबी मइया ने मुझसे सपने में कहा है-अकिलमंद लोग ज्यादा दिन नहीं जिन्दा रहते हैं। ’’
बृखभानुजा फूलो का हाल सुन कर चिन्तित हो गई-‘‘च्च, बेचारी! सखी को मरने के सपने आने लगे हैं। चंदा काकी! मैं पंडिजी से फूलो के लिए बरत-कथा पूछतीे हूँ। अपने खर्चे पर पूजा करवाती हूँ। ’’
पंडिजी सारी बात सुनकर सोच में पड़ गए-‘‘मुझे फूलो की नहीं तुम्हारी फिक्र हो रही है बृखभानुजा! देबी ने फूलो के माध्यम से कुछ संकेत भेजा है। तुम्हारे ही पास यह संदेस आने का कुछ अर्थ है, लेकिन क्या ?’’
‘‘हम कैसे जानेंगे!’’ बृखभानुजा किसी अंदेसे से डरी।
‘‘नजर लगना मानती हो ?’’
‘‘हाँ, मानती हूँ। तो क्या...? ’’
‘‘हाँ, मेरा अनुमान है कि चितमन को नजर लग गई है। गाँव भर की कुंडली मुझे मुँहजबानी याद है। चितमन में बृहस्पति सबसे तेज है। जरा फिर दिखाना कुंडली। हूँ! ज्यादा नहीं, पर थोड़ा खटका तो हो गया है। यूँ समझो फिसलने के लिए एक कंकड़ का दरकना भी बहुत है। लघु मृत्युंजय जाप...तुम चाहो काले तिल के दान से भी...’’
‘‘नहीं-नहीं पंडिजी! आप जाप शुरु कर दीजिए। मन में कोई शंका न रहे।’’
‘‘तो कल से नौ पंडित, नौ दिन...। सबसे जरुरी बात, चितमन रोज नौ घरों से भीख में, एक मुट्ठी चावल माँग कर लाएगा। इसका अर्थ होगा, चावलों जितनी उम्र का आशीर्वाद प्राप्त हुआ।
‘‘चितमन! चितमन!’’ बृखभानुजा पूरे गाँव में ढूढ़ती फिर रही थी। चितमन तो नहर पर थे। जब से साइकिल आई है, वह दादियों से दीदियों तक, परजाइयों से लेकर हरजाइयों तक, सबका सामान बाजार से गाँव तक पहुँचाने में फँसे रहते हंै। हर बार चितमन, नहर के बराबर चलती खडंजा से भी आना-जाना कर सकते थे। लेकिन हर बार वह नहर की पतली मुँडेर पर साइकिल चलाते हैं। जब वह सर्कस का बित्ता भर जोकर, रस्सी पर साइकिल चला सकता है तो वह तो चितवन मिसिर हैं। चितमन मिसिर कई बार गिरे हैं। कमाल यह है कि हर बार बाई ओर की खडंजा पर गिरे हैं, एक बार भी दाहिनी ओर नहर में नहीं गिरे हैं।
‘‘माँ! रास्ता में चाचा-भइया लोग बताए कि तुम हमको खोज रही थी।’’ चितमन मिसिर साइकिल दीवार पर हड़बड़ी में पटक दिए हैं। फिर याद आया कि यह दोस्तों से माँगी साइकिल नही, उनकी अपनी, नई साइकिल है। वापस दौडे़। साइकिल को चूम-चाट, झाड़-पोंछ कर आहिस्ता टिकाए हैं। ‘‘क्या ? पूजा है। अच्छा मेरे पास होने की खुशी में रखी गई है। बढि़या है। ’’
अगली सुबह, गाँव के लोग जम्हाई लेते किवाड़ खोले। तो देखे कि यज्ञ के धुएँ पर बैठ कर महामृत्युंजय मंत्र, गाँव में फेरा दे रहा है। बिमला भौजी ने दरवाजा खोला तो ओसारे में चितमन खड़े थे।
‘‘एक क्या, चार मुट्ठी चावल लेना बबुआ जी। पहले दो घड़ी बैठो हमारे पास।’’ विमल भौजी ने पीढ़ा आगे किया।
‘‘तुम्हें याद बबुआ जी! हमारे नरेसवा का ब्याह था। उस साल नई इलास्टिक की नेकर चली थी। हम बार-बार, पीछे से तुम्हारी नेकर खींच दे रहे थे। थोड़ी देर बाद तुम अपनी नेकर निकाल के आए थे। भरे आँगन में पूछे थे- बोलो भौजी! अब कैसे नंगा करोगी ? तुम तभीए से होसियार थे बबुआ जी!’’ कहते हुए वह आँचल से आँख पोछने लगीं।
बगल का घर कलावती, उसकी कर्कशा सहपाठी का था-‘‘ चितमन! इस साल जब हमारी गर्मी की छुट्टियाँ होने वाली थीं। हम खुशी से पगलाई थीं...
‘‘तभी तो, तुम लड़कियों ने प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री का नाम जवाहर लाल नेहरु और बुढि़या का भाववाचक संज्ञा बुढि़यापा बताया था।’’
‘‘मास्टरवा ताना दिया था -‘हिन्दी में कहें तो स्त्रीलिंग के दिमाग में गोबर भरा रहता है।’ तुम तुरन्त खड़े हो गए थे। कहे थे कि...।’’ वह हँसी के कारण बोल नहीं पा रही थी।
मैं ने कहा था-‘‘ मास्साब, संस्कृत में कहें तो जहाँ गाय का गोबर होगा वहाँ ज्ञान की फसल होगी। लड़कियों का दिमाग तो बंजर है। गोबर भरा होने का सम्मान सिर्फ आपके उपजाऊ दिमाग को दिया जा सकता है।’’
कलावती ने चितमन से कहा कि जब वह बहुत हँसती है तो उसकी आँख से आँसू निकल आते हैं। चितमन देखने में जुटा था कि यह पंखुरी पर टिकी ओस है या होठों पर टिका आँसू। उसी बीच कभी कलावती के होंठ हिले थे -‘‘तुम तो शुरु से ही अक्लमंद थे चितवन!’’
चितमन वहाँ से उठा तो उलझन में उठा। उसे पूरा गाँव सोझबक माने एक तरह का बूद्धू समझता था। वह कई बार फेल भी तो हुआ है। पहले साल इसलिए फेल हुआ कि पाँच में से दो ही उत्तर लिखता रह गया। गुरुजी ने कहा-‘‘रिसर्च करने लगे थे क्या बे रामानुजम् ?’’ दूसरे साल उसने सोचा अब अपना दिमाग नहीं लगाएगा। उसने दोस्त की काॅपी से नकल टीपा। दोस्त ने ई को इी और ऊ को उू लिखा था। चितमन को लगा कि व्याकरण की दृष्टि से यह एक अभिनव प्रयोग है। बस गलत की नकल से ही नकल पकड़ी गई है। सही की नकल तो अनुकरण कहलाता। मास्साब ने फेल करते हुए कहा-‘‘हिन्दी का पुराना मुहावरा है, नकल के लिए अकल चाहिए।’’ अच्छा! तो यह अर्थ हुआ कि अक्लवान साबित होना है तो सफाई से नकल करनी होगी। अगले साल उसने डेस्क पर सारा इंपार्टटेन्ट पेंसिल से लिख लिया। मास्टर साहब की मदद के बहाने खुद ही काॅपी बाँटता और उत्तर भरे डेस्क को काॅपी से ढक देता।
माना कि इस साल वह कायदे से पास हुआ। लेकिन बरसों की छबि रातों-रात तो नहीं सुधरती ? सोचते हुए वह बूढ़ी और अकेली नसीमन के दरवाजे पर खड़ा था। नसीमन ने खटिया पर लेटे हुए ही कोने की ओर इशारा किया। वहाँ डलिया में चार दाना खुद्दी रखी थी। चितमन ने थैले का बटोरा हुआ चावल डलिया में उझिल दिया और तेजी से बाहर निकल आया। नसीमन पीछे से चिल्ला रही थी-‘‘मेरे बच्चे! तुम सलामत रहोगे। तनिक डरना मत।’’
‘‘मैं डरता तो सारे चावल तुम्हें क्यों देता नसीमन दादी ?’’ आम के पेड़ के नीचे से वह सिर नीचे करके साइकिल निकाल रहा था। उसे लगा कि कोई देख रहा है। दाहिनी ओर नजर फेरी। वहाँ फूलो काकी की काली, कोटरदार, शून्य और अपलक आँखें थीं। उनका बेवजन आँचल, उनके मुँह पर फड़फड़ा रहा था।
अगली सुबह, चितमन दक्खिन की ओर निकल गया। टोले की दादियाँ उसे देख कर खुश हो गई-‘‘ आओ लाल! हम तुम्हरे लिए गुड़ का शरबत सुबहिए बना लीं थीं।’’ झुर्रीदार और कँपकँपाते हाथों से कई गिलास शर्बत पीने के बाद वह अलसा गया। उसे इतमीनान से बैठा देख कर बूढि़यों ने सकुचाते हुए कहा-‘‘ अपने बच्चों को कर्तब-अकर्तब बताना उनका असली काम है। तो चितमन तालाब की बजाय गड़ही किनारे शौच को बैठा करे। कोटर में हाथ डाल के चिडि़या के बच्चे न खोजे। बन्द कोठरी में बिल्ली को न घेरे, बिल्ली कंठ पर हमला करती है। चना उछालते हुए न खाए, नाक में फँस सकता है। आँगन में न सोए, चील की चोंच में दबा साँप उस पर गिर सकता है, वगैरह। फिर एकदम से वे हकलाने लगीं-‘‘अब तू जा बेटा। हम थक गई हैं। एक आखिरी बात, तू साइकिल इत्ती तेज न चलाया कर। फिसलने के लिए एक कंकड़ का दरकना भी बहुत है।’’
तीसरे रोज अगल-बगल गाँव के लड़के चितमन से मिलने आए। आते ही कहा कि सिर्फ पास होने की बधाई देने आए हंै। वे दिन भर चितमन को हँसाते रहे। जाते समय कहे-‘‘अबे यार! कोई साला यहाँ अमर होने आया है। आगे-पीछे सबको जाना है। तुम चिन्ता मत करना।’’ चितवन ने पूछा-‘‘क्यों ? चिन्ता क्यों होगी ?’’
पाँचवाँ दिन आते-आते, पानी भरे खेतों में धान की रोपाई रुक गई। गाँव, पूजा के धुएँ से ढक गया। लोग, अपने दुआर पर बैठे मन्त्र जैसा कुछ बुदबुदाते रहते। चितमन को आते देखते तो चुप हो जाते और उसे गुजरते हुए सा देखते रहते।
आज चितमन के पाँव, मास्साब के घर की ओर मुड़ गए। उसने मास्साब से नकल की बात कबूल की और सजा देने को कहा। रुँआसे मास्साब ने कहा-‘‘किसी भी भाषा कहें तो अक्लंमद लोग जल्दी मरते नहीं, जल्दी मार दिए जाते हैं। सावधान!...मतलब सभी सावधान रहें।’’
बूढ़ी नसीमन ने बाद में बताया कि मास्साब के यहाँ से उठकर चितमन उनके पास आया था। बार-बार पाँव पकड़ रहा था। कहता जा रहा था कि मैंने आपसे वादा किया था कि कमाने लगूँगा तो आपको अपने साथ रखूँगा। मुझे माफी दीजिए। हलवाई, बर्फ वाला, पतंग वालों ने बताया कि चितमन बाबू वो पैसे लौटा गए जिसके बारे में उन्हें कुछ याद नहीं था। गली के लड़कों ने बताया कि चितमन अपने सारे कंचे, गुलेंले और बुशर्टे उनमें बाँट दिए थे।
पूजा के छठें दिन से चितमन ने बृखभानुजा के पास सोना और हर समय कुछ खाने के लिए माँगना छोड़ दिया था। अपनी माँ से बहुत आदर से बात करने लगा था। बृखभानुजा के हिसाब से पूजा फलित हो रही है।
स्वर्ग-नरक...आँगन में सोए, रात का आसमान देखते चितमन को कुछ याद आया। मालिन की बेटी ने एक दिन कहा था-‘‘ ऐ बूद्धू! चमेली के फूल अगर चोली में रखो तो स्वर्ग जैसा महकता है। सूँघोगे ?’’ चितमन ने पलट कर कहा था- ‘‘भाग बेशरम!’’ सातवें दिन की सुबह वह मालिन की बेटी के दुआर पर खड़े हैं-‘‘भीख में चावल नहीं, स्वर्ग चाहिए।’’ अपनीे चोली में चमेली भरने के बाद, मालिन की बेटी उसे बगइचा की झाडि़यों में, दिन भर सीने से सटाए रही।
चितमन अतीत से छाँट कर कुछ निकालने लगे हैं-‘‘किसी की जीभ पर का पान खालो तो उससे पूरे जनम की दोस्ती हो जाती है। हमसे पान की अदला बदली कर लो चितमन मिसिर।’’
‘‘तुमने उस दिन फटकार दिया था। तो आज काहें आए हो चितमन मिसिर ?’’ पनवारी की बेटी उलाहना दे रही है।
‘‘इसलिए कि मैं बाभन तुम चैरसिया... अम्मा जान जातीं तो गाली तुम्हें पड़ती, मुझे नहीं। लेकिन क्या आज सात बार...सात जनम की दोस्ती का जूठा पान खिला सकोगी। छमा...दया।’’
आज आठवाँ दिन है। चितमन ने अम्मा के बक्से से अपने कुर्ते के कपड़े चुपके से निकाल लिए हैं। दर्जिन चाची से बिनती कर रहे हैं कि वह दोनों कुर्ते आज ही सिल दे।
‘‘लेकिन एक दिन में ?’’दर्जिन चाची ने कहा।
‘‘मैं यही बैठा हूँ, चाची। कल मृत्युंजय जाप का उद्धापन है। एक सुबह पहनूँगा। एक पहन कर शाम को तुम्हें दिखाने आऊँगा।’’
आज पहली बार घर लौटते हुए उसे इतनी रात हो गई है। नाप देखने लिए दर्जिन चाची ने नया कुर्ता पहना दिया था। आषाढ़ का हथिया नक्षत्र चढ़ा था। पाँच दिन से मद्धिम बारिश हो रही थी। चितमन गुनगुनाते हुए, आदतन, नहर की मेड़ पर चढ़ गया। सामने जुगनुओं के झोंप के झोंप चले आ रहे थे।
‘‘अरे ये तो टाॅर्च हंै। गाँव वाले हैं, क्यों आ रहे हैं ये इधर ? वे चिल्लाते हुए कुछ कह रहे हैं-
‘‘चितमन नहर पर से मत आना, फिसलन हो गई है। तुम कहीं नहर में न गिर जाओ।’’
‘‘लोहे की साइकिल पर बिजली गिरती है...’’
‘‘नहीं, लोहा छोड़ना मत, बुरी आत्माओं से बचना है।’’
‘‘बस आज की रात बचो....तुम्हारी जान को बहुत खतरा है।’’
‘‘चितमन! फूलो की कही पहली बात सच निकली। लड़की के बाप ने दो ब्याह किए थे। और वह जल्दी ही मर गया था।’’
चितमन की साइकिल डगमगाने लगी-‘‘इतने बड़े लोग एक साथ जो बातें कह रहे हैं तो सही कह रहे होंगे। मैं गलत हो सकता हूँ। मैं सावधान हो जाऊँ। बहुत सावधानी से ...वापस, नीचे के रास्ते चलूँ।’’ अधिक पावर का चष्मा लगा लो तो दिखाई देना बन्द हो जाता है। रोज उसी रास्ते चलने वाला चितमन भूल गया कि नहर की पतली मुँडेर पर, अपनी राह चलते जाने की जगह तो थी, वापस मुँड़ने की जगह नहीं थी।
चितमन अपनी नई साइकिल, नई बुशर्ट, पान और फूल के साथ बढि़याई नहर में गिर रहा है...।
गाँव, नहर से पलट चुका था। और फूलो के सामने थरथरा रहा है-‘‘ हमारे लिए देबी क्या कहती हैं ? ये लो धन, ये लो अन्न!’’
फूलो ने अपना सिर पत्थर पर पटक दिया। बेल फूटने की आवाज हुई- ‘‘कोई देबी नहीं...मैं चुड़ैल हूँ...चुडै़ल... अपने बच्चों को खा जाती हूँ! ’’
‘‘तुम मेरी सखी हो। मेरा चितमन... तुम्हीं बचा सकती हो! अपनी देबी को जगाओ फूलो! ’’ नहर में कूदने जा रही बृखभानुजा को उसका आदमी पकड़ कर लाया था।
मूच्र्छा में जाती फूलो को लग रहा था वह पटरी पर गिर रही है...सामने रेल आ रही है खटक..धड़...खटक। पटरियों में फँसी वह... अपने बचने के लिए, दोनों हाथों से पत्थर फेंक रही है...ये क्या ? रेल के दरवाजे पर तो कोई बच्चा खड़ा था! पत्थर उसे लग गया...वह गिर रहा है...
फूलो एक तेज कँपकँपी से उठी। आँख पर बहता खून और आँसू पोंछा। सामने बृखभानुजा थी। नजरें झुक गईं। अपने को बटोर कर उसने बोली तेज की-‘‘सुनो गाँव वालों! देबी नाराज हैं तुम सबसे...वो यहाँ से चलीं जाएँगी। काहेंकि तुम सदा अपना काम छोड़ कर भागते रहते हो। दौड़ो! जाओ! कई मील आगे तक नहर छान मारो...तुरन्त। वो चितमन है। समय की साइकिल पकड़े बह रहा है।’’
( हंस, नवंबर, 2014)
किरन सिंह
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3/2शिक्षा: एम्. ए. ( हिंदी, प्राचीन भारतीय इतिहास ) बी. एड., पी -एच. डी.रचनाएँ: "सूर्यांगी" पर उ.प्र. हिंदी संस्थान से 'महादेवी वर्मा पुरस्कार' ,मुजफ्फर अली द्वारा निर्देशित 'शाल' एवं 'मंगला' तेली फिल्मों में अभिनय.
आकाशवाणी, दूरदर्शन, लखनऊ में आकस्मिक समाचार वाचिका एवं उदघोषिका.
सम्प्रति: अध्यापन, स्वतंत्र लेखन .26 विश्वास खण्ड
गोमती नगर, लखनऊ