Saturday, January 17, 2015

उसका अपना एकान्त - आराधना सिंह की कवितायें


आराधना सिंह की कवितायें

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कुछ कविताओं पर नज़र पड़ते ही ऐसा अहसास होता है जैसे कोई नन्हा शिशु धीरे  से अपनी पलकें खोलकर दुनिया देखने की कोशिश कर रहा हो  ... जैसे सावन की पहली बारिश की सोंधी खुशबू आ रही हो  ... जैसे तितलियों को फूलों पर देखकर उनकी छवि आँखों में भर लेने की उत्सुकता बढ़ जाएँ ... ऐसे ही कोमल , अछूतें भावों से भरी हैं आराधना सिंह की कवितायेँ !
एक दिन इनबॉक्स में बातचीत के दौरान उन्होंने जिक्र किया कि वे कवितायेँ लिखती हैं ! मैंने फरगुदिया के लिए उनसे कवितायेँ मांगी ! आज आराधना का जन्मदिन भी हैं ! फरगुदिया पर 2015  की इस पहली पोस्ट पर आराधना सिंह का स्वागत करते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है ! बहुत बहुत स्वागत और धन्यवाद आराधना सिंह का इतनी सुन्दर कवितायेँ भेजने के लिए ! जन्मदिन की ढेर सारी बधाई और शुभकामनायें ...







उसका अपना एकान्त
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अपने व्यस्त जीवन से
बस यूँ ही सहेज लेती है अपना एकान्त.
सन्दूकों से निकालती है एक-एक किरदार
सबको देती है एक मंच,
जहाँ खुल कर हो सके उनकी अभिव्यक्ति .
अपनी कल्पना की कूँची थाम,
ख़ूब भरती है रंग
किरदारों में छलकता प्रेम,
शिराओं में बहती पीड़ा,
सहमी चाहतें,
रेत से पाट दी गयीं महत्वकांक्षाएं,
क़ैदी सा हास्य-बोध,
उड़ते हुए स्वप्न,
रोज़ सताते गुनाह,
सब बस जाते हैं किरदारों में.
ताकि दर्शक उबे नहीं
और
अभिव्यक्ति के सारे सोपानों को पार कर
निर्देशक की क्षुधा हो जाये शान्त.
आख़िरी दृश्य के बाद
वह स्वयं आती है मंच पर
गले लगा पुरस्कृत करती है
किरदारों को
और
पुनः सहेज बंद कर देती है सन्दूकों को
अब वह बाहर आती है
अपनी आभासी दुनिया से
शांत,संयमित,मुस्कान छलकाती
गरिमामयी
किसी निर्देशक के अनुबंध से
अनुबंधित नायिका ।




उन्मुक्ति का गीत
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वह देखना चाहती है
अपनी आँखों से
संसार की ख़ूबसूरती
और उसमें छिपे
बदसूरत अनगढ़ पत्थरों को
.ताकि बना ले
एक सेतु सा संसार और
अपने बीच...................।

वह सुनना चाहती है
हवाओं में घुली हर बात
उनमें छिपे
मीठे,तीखे ,नमकीन एहसास
को कानों में घुलाना
ताकि गा सके
एक सच्चा गीत।

वह छूना चाहती है
अपने अंतर्मन में उलझी
हुई ग्रन्थियों को
ताकि सुलझा ले सारी गाँठें
और बुन ले इक
सुन्दर- सुनहरा सा स्वप्न ।

वह बातें करना चाहती है
स्वयं से निरन्तर
ताकि तहखानों में छिपे
सारे भावों, स्वप्नों ,कुण्ठाओं
को मिला .......................
रच ले एक कविता..........।

वह उड़ना चाहती है
अपने अनदेखे पंखों को पसार
अपने ही कल्पित आकाश में
ताकि
ढूँढ ले अपने होने का अर्थ
अपने आप के लिये............।


----- आराधना

लेना-देना
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उसने लड़की को प्रेम किया
लड़की ने दे दिये सारे अधिकार
उसने यूँ ही दिखा दिये कुछ सपने
लड़की ने पकड़ा दिये पंख
उसने कहा अब बोलो कुछ !!
लड़की ने थमा दी चुप्पी अपनी

वह़ अब बहुत ख़ुश था
उसने कहा
मेरा दिल दिमाग़ सब तुम्हारा
लड़की ने भी अपने भीतर ही
फिर कुछ तलाशा
वहाँ बस एक शून्य था
बस एक शून्य
और अब वह मुस्करा रही थी।
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1-
मैं तुम सी नहीं हूँ माँ
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सुनो माँ !!!!
मैं तुम सी नहीं हूँ
अपने पंखों को कुचल
उस पर प्रेम का
बिरवा नहीं रोपती मैं
उन्हीं पंखों से उड़ जाती हूँ
प्रेयस के साथ
दूसरे आसमान के रंग देखने
जैसे आते हैं
साइबेरियाई पक्षी अपने देश।

माँ ! मैं अपनी इच्छाओं को जला
गृहस्थी का चूल्हा नहीं जलाती...........
मैं उन्हें सहेज लेती हूँ
अपनी गृहस्थी में
और पालती हूँ
जैसे गर्भ में पाला जाता है शिशु.।

माँ ! मैं नहीं बुनती ,समेटती,
तुरपती रिश्तों की चादर
मैं ताखे पर रख देती हूँ उनको अलग -अलग
जैसे घर में पडे रहते हैं
ज़रूरी, सजावटी और बेकार सामान..............।

माँ ! मैं नहीं गाती
पत्थरों,मूर्तियों के सामने
अपने सन्नाटों का गीत
मैं अपने मौन को बिखेर देती हूँ
पूरे संसार में
जैसे खेतों में बोया जाता है बीज ..।

तो फिर बोलो ना माँ
मैं क्यों तौलती हूँ
स्वयं को बार-बार
किसी से उधार माँगे तराज़ू पर
एक पलड़े पर तुम्हें
और दूसरे पर स्वयं को रखकर ???
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2-
माँ !
अब जब कि मैं भी माँ हूँ
"माँ तुम सिर्फ़ माँ नहीं दिखती"

कई रिश्तों को समेटी हुई तुम
एक स्त्री हो
जो तलाश रही है बेचैन -सी
अपनी ज़मीन

तलाश रही है
कोई ऐसा आइना
जिसमें देखती रहे
महसूसती रहे
ख़ुद को देर तक

तलाश रही है
एक ऐसा सच
जो वाक़ई सच हो
और
उसकी जवाबदेही ना हो..

तलाश रही है
एक ऐसी दुनिया
जहाँ
बार-बार विभिन्न मापदंडों पर
उसे तौला ना जाये

तलाश रही है
समय का वह टुकड़ा 
जिसमें  पल भर के लिये
मिल सके स्वयं से
स्वयं के लिये ।


आराधना

नाम-आराधना सिंह
शिक्षा -एम.ए आधुनिक इतिहास
दी.द.उ.गोरखपुर विश्वविद्यालय
जन्म-स्थान-गोरखपुर
वर्तमान निवास -वाराणसी

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