हेमा दीक्षित
----------------कानपुर विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में स्नातक एवं विधि स्नातक. हिन्दी साहित्य एवं अंग्रेजी साहित्य लेखन में रूचि. हाल ही में ‘कथादेश’ के जनवरी २०१३ के अंक में और ‘समकालीन सरोकार’ अगस्त-अक्टूबर २०१३ में 'जनसंदेश' टाइम्स में कवितायें प्रकाशित. २०१४ में 'उम्मीद' में एक लम्बी कविता एवं 'यात्रा' में कवितायें प्रकाशित बोधि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित स्त्री विषयक कविताओं के संग्रह स्त्री हो कर सवाल करती है में भी कविताओं का प्रकाशन. विधिनय प्रकाशन, कानपुर द्वारा प्रकाशित द्विमासिक विधि पत्रिका 'विधिनय'की सहायक संपादिका. कानपुर से प्रकाशित ‘कनपुरियम’ एवं ‘अंजुरि’ पत्रिकाओं में कवितायें प्रकाशित. जनसंदेश टाइम्स, नव्या ई पत्रिका, खरी न्यूज ई पत्रिका, अनुनाद, पहली बार ब्लॉग, आपका साथ-साथ फूलों का ब्लॉग, नई-पुरानी हलचल ब्लॉग, कुछ मेरी नज़र से ब्लॉग एवं’फर्गुदिया’ ब्लॉग, शब्दांकन ब्लॉग पर कवितायें प्रकाशित .
वर्चस्व की राजनीति और हाशिये की परम्परा
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औरतें धार्मिक स्थलों की सर्वेसर्वा के रूप में इतनी कम और यदा-कदा ही क्यों दिखाई देती है ... ??
सवालों के लिए उनके हलों की उत्कंठा ही हमें दौड़ाती है आखिर इस सवाल की उत्पत्ति के कारक कहाँ है ... आखिर धार्मिक स्थल है क्या ... और क्यों इतना महत्वपूर्ण है उनका सर्वेसर्वा होना ... उनके सर्वेसर्वा होने के मायने और हासिल क्या है ... और वो आखिर करते क्या है ...
धार्मिक स्थल आखिर है क्या ...
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बेहद मोटे तौर पर कहने की कोशिश करने पर कहा जा सकता है कि समस्त जीवित मृत प्राणियों के ऊपर भी एक सर्वशक्तिमान सत्ता की परिकल्पना अथवा एक सर्वोच्च शक्ति की ऐसी अवधारणा को, जिससे ऊपर इस सृष्टि में कुछ भी नहीं है एक धूल का कण भी नहीं, जो परम सत्ता है जो अपनी विद्यमानता में सार्वभौम है सम्पूर्ण सृष्टि का नियंत्रण जिसमें निहित है ... उसे भिन्न-भिन्न नाम रूपों में गढ़ा गया ...
इस स्थूल प्राणहीन गढ़न को अपने फलने-फूलने और संचालन हेतु मानवीय शक्ति की सहायता से ही संचालित होना था आखिर यह ईश्वरीय संकल्पना उनके ही भयों एवं निराकरणों को दृष्टिगत रखते हुए की गई उपज जो थी ...
उस संकल्पना के इर्द-गिर्द रची-गढ़ी गई प्रक्रियाओं एवं व्यवस्था को सतत रूप से चलाने और स्थायित्व प्रदान करने वाली कार्यप्रणाली को ही कालांतर में धर्म कहा गया और उनके संचालित होने के स्थलों को धार्मिक स्थल ...
सारे तर्कों से परे जो सर्वशक्तिमान जनक और संहारक होगा अविवादित रूप से उसके पास ही सारे सर्वोच्च वर्चस्व निहित एवं केंद्रीभूत होने थे और हुए ...
धार्मिक स्थल क्यों महत्वपूर्ण हैं और वह क्या करते है ...
किसी भी विस्तार में न जाते हुए अपनी बात अपने शब्दों में कही जाए तो “धर्म और ईश्वर का प्रतिनिधि होना इस दुनियाँ के किसी भी कोने में सबसे बड़े वर्चस्व का स्वामी होना है “...
धार्मिक स्थल सदैव से ही अपने मूल उद्गम से ही शक्ति, सत्ता, सम्पदा एवं सर्वोच्च वर्चस्व का एकीकृत केंद्र रहे है | बड़ी से बड़ी मानवीय ताकतें भी धर्म एवं ईश्वर के समक्ष नतमस्तक होती है |
मुद्दे का सवाल है कि ऐसा वर्चस्व क्या खायेगा जो उसकी क्षुधापूर्ति के साथ-साथ, उसके स्वामित्व की संतुष्टि के नीचे पददलित होने के लिए एक वृहद् दुनियाँ सतत निर्मित रख सके |
जवाब की खोज मुझे कमजोर एवं निरीह इयत्ताओं की एक बेहद बिखरी एवं विक्षिप्त दुनियाँ के विस्तार में ले जाती है |
किसी भी स्वामित्व के समक्ष सबसे बड़ा प्रश्न अपने अस्तित्व की सतत रक्षा का होता है | कोई भी छोटी बड़ी सत्ता सिर्फ तभी तक अस्तित्वमयी होती है जब तक उसके पास कमजोरों की मौजूदगी बनी रहे | सत्ता के स्वामित्व हेतु सबसे अहम् कार्य होता है अपने को शक्तिवान बनाए रखना |
शक्ति सिर्फ और सिर्फ अन्यों की उपस्थितियों पर शासन नियंत्रण एवं उसके अबाध व्यवस्थापन द्वारा ही प्राप्त होती है | इसके लिए सत्ताएं अपने लिए एक विशेष प्रकार का चरित्र गढ़ती है ... और वह है ऐसे उपायों की सतत खोज की योग्यता जिसके द्वारा लोगों को तोडा जा सके कमजोर किया जा सके |संक्षेप में ऐसे अस्त्रों का निर्माण जिनसे एक व्यक्ति की सबसे बड़ी ताकत उसके सोचने-समझने की क्षमता को कुंद किया जा सके |
सत्ताओं को हांकी जा सकने भीड़ का निर्माण करना होता है | सत्ताएँ लोगो की रीढ़ को तोड़ती है | स्वयं हर तरह की शक्ति और सम्पदा हासिल करती है | सत्ताएँ येन-केन-प्रकारेण लोगों को शारीरिक,मानसिक एवं सामजिक दासत्व के चक्र में एक अदद उपनिवेश में परिवर्तित कर उनका दोहन करती हैं | अपने वर्चस्व का राज-पाट चलाती है |
स्त्रियाँ अर्थात आधी दुनियाँ अनादि काल से इस जगत की सबसे बड़ी मूक कामगार शक्ति है | स्त्रियाँ समाज एवं सृष्टि चक्र की रीढ़ है |
आधी दुनियाँ का अर्थ क्या है ...
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आधी दुनियाँ शब्द मेरे लिए एक ऐसी शक्तिशाली मध्यमान रेखा है जो बाकी आधी दुनियाँ से हर मायने में सम पर हो उत्पत्ति,वृद्धि,क्षमता एवं योगदान सभी क्षेत्रों में ...
स्वामित्व की कामना रखने वाली सत्ता इच्छाएं ऐसी वृहद् शक्ति की उपस्थिति को स्वतंत्र,शक्तिमयी, अस्तित्वमयी एवं रचनाधर्मी कैसे छोड़ सकती थी /है |
जो भी स्वतंत्र है ,शक्तिमय है ,अस्तित्वमय एवं रचनाधर्मी है उसकी अपनी निजी सत्ता होगी |
वह सहभागी धर्म में तो जी सकता है परन्तु सर झुकाए पीठ के पीछे हाथ बांधे दासत्व में कदापि नहीं जियेगा | उसकी ग्रीवा सधी और तनी होगी | वह उठी हुई तर्जनी का जवाब उठी हुई तर्जनी से ही आँखों में आँखें डाल कर ही देगा |
घुटनों के बल रेंग कर सत्ताओं के कोड़े खाने को स्वतंत्र अस्तित्व कभी भी किसी भी परिस्थिति में स्वीकार नहीं करेंगे |
सत्ताओं ने तय किया कि स्वतंत्र अस्तित्व की अवधारणा को ही स्त्रियों के लिए सिरे से कुचल दो | एक स्त्री को स्त्री ही न रहने दो बाकी वह जो कुछ भी कहलाएगी हम बताएँगे | उसके होने की परिधियाँ हम तय करेंगे |
सत्ताएं स्वामी हुई | पुरुष रूप हुई | बाक़ी आधी दुनियाँ उनके दासत्व की प्रजा रूप | इस प्रजा को अलग-अलग नाम-रूपों में बेहद षडयंत्रकारी तौर पर दिखावटी स्वरूपों में महिमामंडित किया गया | बेटी, बहन, माँ, पत्नी, प्रेयसी, कुलवधू, नगरवधू इत्यादि-इत्यादि | खाकें और साँचें तमाम उद्देश्य एक कि इन सभी खाकों का कोई न कोई स्वामी होगा | यह स्वतंत्र स्वस्वामित्व में नहीं जियेंगी | स्त्रियों की स्वतंत्र सत्ता में कोई भी अधिकार नहीं छोड़े गए | मातृत्व का नैसर्गिक अधिकार तक भी नहीं | जो दिखावटी तौर पर छोड़े भी गए उन तक स्त्रियों की पहुँच के रास्ते और दृष्टि बाधित कर दी गई | जन्म से मृत्यु तक उन पर सिर्फ और सिर्फ किरदारों और कर्तव्यों के अंधत्व लाद दिए गए | कोल्हू के आँखों पर पट्टी बंधे बैल की तरह किरदार और दायित्व जीवन-मरण प्रश्न बना कर बांधे गए | सत्ताओं के कोल्हू ने अपने वर्चस्व की भूख में किसी और को नहीं स्त्रियों को पेरा और अपने लिए परम स्वतंत्रता और संतुष्टियाँ हासिल की |
वंचितों के वर्गों का बने रहना ही सत्ताओं के हाड-माँस एव रक्त-मज्जा को पुष्ट एवं पोषित करता है |
स्त्रियों से भूख, प्यास, सोना, जागना, प्रेम, साथी, नित्यक्रिया आदि जैसे मामूली से मामूली और नैसर्गिक हकूक भी बड़े सलीके और अहद से तमाम नियमों एवं आवरणों के तहत छीन लिए गए | शिक्षा, संपत्ति, स्वतंत्रता, समानता, एवं धर्म तो बहुत ही बड़ी चीज़े थी | ऐसी जिनके बल पर सत्ताएँ टिकती और मिटती है |
धर्म और उससे शासित समाज ने लज्जा और चरित्र (यौन-शुचिता) दो ऐसे रोग स्त्री के सम्पूर्ण जीवन पर आरोपित किये जिन्होंने स्त्री की रीढ़ तोड़ डाली | यह रोग इतने शक्तिशाली थे / है कि इन्होने स्त्री को हर स्तर पर तोड़-मरोड़ डाला |
इस हद तक कि स्त्रियाँ अपने जन्मगत कर्म मल-मूत्र त्याग को भी नियंत्रित करना सीखने हेतु बाध्य हुई | गाँव जवार में आज तक वह सुबह मुँह अँधेरे ही किसी छिपे कोने में सामूहिक मल-त्याग के लिए निकलती है | अपनी तथाकथित ‘इज्जत’ की सुरक्षा के लिए कई स्त्रियों के समूह में ही निकलती है | लम्बे समय तक मूत्र-त्याग न करने से अधिकाँश महिलायें तमाम रोगों की शिकार बनती है | सिर्फ गाँव-देहात ही क्यों आधुनिक शहरों में घरों से बाहर निकलने वाली काम-काजी स्त्रियाँ भी इस आरोपित लज्जाधर्म की अनचाहे अनजाने ही शिकार है |
इसी लज्जाधर्म के तहत एक छोटी बच्ची को उसके समस्त शारीरिक अंगों के नामों से परिचित कराया जाता है पर उसे योनि (vagina ) के लिए कोई शब्द ही नहीं दिया जाता है उस अंगविशेष के प्रति उसके चैतन्य होते ही बस लज्जा बोध दे दिए जाते है बहुत खोजने पर भी मुझे कोई शब्द योनि के लिए नहीं मिलता है | उसके विपरीत पुरुषों के लिंग के लिए तमाम शब्द है जो छुटपन से ही प्रयुक्त होते सुने गए है और आम भाषा एवं जीवन के चलन में है |(यहाँ भाषा में मौजूद अश्लील भाषायी शब्दों को विचार में नहीं लिया गया है ) एक जैविक संरचना का अस्तित्वमूलक शब्द ही भाषा एवं चलन की याददाश्त में लिखा ही नहीं गया ... आखिर क्यों ...
एक बच्ची की योनि भी ढँक कर रखो उसका दिख जाना समस्त स्त्रीजाति के लिए लज्जा का विषय हो जाता है आस-पास उपस्थित स्त्री समूह अपने को नग्न महसूस करने लग जाते है और कपडा ले कर दौड़ पड़ते है ढंकने-मूंदने को ...
योनि क्यों इतनी लज्जास्पद बना दी गई ... उत्तर एक है ... सिर्फ अस्तित्त्व के नकारात्मक बोध के साथ एक जीवन की वृद्धि को प्रारंभ से ही निस्तेज कर डालने के लिए ...
योनि के लिए कोई शब्द नहीं सिर्फ एक नकारात्मक भाव बोध और वह है असुरक्षा ...
उसका अर्थ है सतत लूटी जा सकने वाली किसी चीज़ की मौजूदगी ...
एक ऐसी कीमती बोझ ‘वस्तु’ जिससे कोई छुटकारा इस जीवन में संभव ही नहीं है | जिसका संरक्षण और छिपाव ही सबसे बड़ा स्त्री धर्म है |
लज्जाधर्म और यौन शुचिता की सिल को अपनी छाती पर दुपट्टा और आँचल बना कर टाँगे स्त्रियाँ अनजाने ही जन्मांध सी , शासकों द्वारा बेहद बारीक महीन पीसा और लहू में घोला गया शोषण धर्म, ख़ुशी-ख़ुशी मुस्कुराते हुए खा-पी और ढो रही है |
उनकी मुक्ति और सत्तावान होने की स्वप्नित अवधारणा एक ऐसे विद्रोह का बबूल है जो अनादिकाल से चली आ रही पितृसत्ता को क्षत-विक्षत कर देगा | शोषण धर्म को चिंदी-चिंदी कर फूंक देगा |
धार्मिक स्थलों की सत्ता से वंचित रखने के लिए सत्ताओं ने माहवारी होने के कारण स्त्री की अपवित्रता के कुचक्र का ऐसा मकड़-जाल बुना जिसमें वह स्त्री के होने के प्राथमिक एवं मूलभूत पायदान को ही खा चबा जाता है | अपने अस्तित्व को दिए गए इस अपवित्रता मूलक धक्के से स्त्री आजीवन नहीं उबर पाती है |
किसी स्त्री का रजस्वला होना सृष्टि का,जीवनचक्र का सबसे बड़ा उत्सव है | उत्सव उसके होने का, उसके सृष्टा होने का , सृष्टा अर्थात ईश्वर के समकक्ष होने का , उसके स्वतंत्र अस्तित्व होने का | सत्ताएं ठीक इसी जगह , इसी बिंदु , इसी चरण पर उसके हाथ-पाँव ,सोच-समझ बाँध देती है , बाधित कर देती है |
यह पवित्रता और अपवित्रता के मध्य खेला जाने वाला ऐसा दुष्चक्र है जिसमें स्त्री एक लतगौंजी-हथगौंजी गेंद के सिवाय कुछ नहीं है | इस खेल को खेलने वाले उसे हर स्तर पर कमजोर कर देते है तोड़ देते है | शारीरिक शुचिता इतनी बड़ी जिम्मेदारी और भय बना दी जाती है ठीक इसी उत्सवधर्मी मोड़ पर कि वह आजीवन इस जिम्मेदारी और भय के साये से बाहर नहीं आ पाती है | जाने-अनजाने अभिशप्त है स्वयं इसका हिस्सा बने रहने को और इस दुष्चक्र के सतत प्रवाहमान बने रहने के लिए अपनी संततियों को भी इसमें झोंकने के लिए |
यदि स्त्रियाँ इस दुष्चक्र इस होमयज्ञ से बाहर निकल आएँगी इस लज्जाधर्म से बाहर निकल आएँगी और धार्मिक सत्ताएं हासिल करेंगी तो वह वर्चस्व के सबसे प्रधान मुकाम पर बैठेगी | पितृसत्ता के ठाठ, मक्कारी, अय्याशी और अकड़ के बेहद फूले उड़ते हुए गुब्बारे की हवा को निकाल कर उसे जमीन पर पटक देंगी | वह धर्म की आड़ में चलते इस दुष्चक्र के समस्त खोखलेपन को जान लेंगी |
यही हो भी रहा है पढ़ी-लिखी जागरूक स्त्रियाँ, प्रश्न करती, तर्जनी उठाती, आँख मिलाती स्त्रियाँ सत्ता वर्ग की तिलमिलाहट का बायस है |
अब तक शासक वर्ग के रूप में चली आ रही पितृसत्ता को उकडूँ बैठने की मुद्रा में होने का स्वप्न भी गंवारा नहीं है | यह एक अलग बात है कि स्त्रियों के स्वभाव में दमन और प्रतिशोध के बीज नहीं बोये गए है | वह एक साथ खड़ी होना और मुस्कुराना चाहती है | स्वतंत्रता और समानता से प्रेम करना चाहती है, सोना-जागना, हगना-मूतना चाहती है , खुल कर कर मुक्त कंठ से हँसना चाहती है | एक इंसान की तरह से चुनने और होने की आजादी चाहती है | एक व्यक्ति होने के चयन की आज़ादी जिसमे उसके गलतियाँ करने और चूक जाने का और उन्हें सुधारने का अधिकार मूलभूत रूप से सम्मिलित है |
पितृसत्ताएं स्त्री की अस्मिता में एक ऐसी आततायी घुसपैंठ है जो उनकी साँसों पर चौबीसों घंटे पाँव धरे ही रहती है |
इन चौबीस घंटे सोते-जागते, मरते-जीते, चलने वाले दबावों ने स्त्रियों के जीवन को नरक के गर्त में झोंक रखा है | वह घायल है पर घाव देख पाने की सामर्थ्य से हीन है यदि सामर्थ्य पा भी लेती है अपने को देख भी लेती है तो उन्हें मरहम लगाने एवं बंद दरवाजे खोलने की सतत् जंग में अपने को होम करना पड़ता है | सतत् विरोध, पथभ्रष्ट और बागी होने के आहारों का अनवरत विषपान करना पड़ता है |
योनि-चरित्र उन्हें सब कुछ दिखता है सिवाय उनके स्वयं के |
स्त्रियाँ, स्त्रियाँ नहीं रह जाती है बागियों में परावर्तित कर दी जाती है और सत्ताएं बागियों का रूपांतरण सब कुछ विध्वंश और विनाश के गर्त में ले जाने वाली भयावह आग उगलती तोपों के रूप में कर देती
है |
सत्ताओं की इस नृसंश, बेहद क्रूर वर्चस्ववादी दुनियाँ में बहुतेरी खाप सल्तनतें है और खाप सल्तनतों की
सबसे बड़ी तौहीन है उनकी ‘प्रजा’ अर्थात स्त्रियों के मुँह में जबान होना |
असहिष्णु सत्ताएं मुँह में जबान रखने वाली, विरोध में तिलमिला उठने वाली, आँख में आँख डाल कर सीधी खड़ी और चुप रहो, अपनी औकात मत भूलों सुनने पर कदापि पीछे न हटने वाली स्त्रियों के झोंटे उखाड़ डालना चाहती है |
उन्हें शारीरिक, मानसिक और सामाजिक पटल पर बड़ी सिद्धहस्तता से अनवरत चलते रहने वाले सार्वजनिक बलात्कार का शिकार बनाया जाता है |
ऐसी शक्तियों से कुछ भी पाने के लिए इन दुष्चक्रों को समझना और इनके पालित दृढ संस्कारों को काट कर फेंकना होगा तभी वर्चस्व के इस चक्र में कोई पैठ संभव होगी |
अपने जीवन को इस अतार्किक जेलर समाज और इस देह धरे की जेल में जबरन कैद किये जाने के निराधार दंड से मुक्त करने के लिए स्त्री को चौतरफा श्रम और जद्दोजहद करनी होगी |
इससे भी एक कदम आगे बढ़ कर अपने ऐसे सार्वजनिक बलात्कार के लिए अपनी पूर्ण क्षमता से सामर्थ्यवान होना पड़ेगा |
यौन-शुचिता एवं लज्जाधर्म की अर्थी को कंधा देने के लिए इनके प्रमाणपत्र बांटने वालों के साथ अपनी ऊर्जा बिना गवाएं अपनी राह स्वयं निर्मित करनी होगी |
----- हेमा दीक्षित -----
लेखिका, कवयित्री
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साभार उत्पल पत्रिका
----------------कानपुर विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में स्नातक एवं विधि स्नातक. हिन्दी साहित्य एवं अंग्रेजी साहित्य लेखन में रूचि. हाल ही में ‘कथादेश’ के जनवरी २०१३ के अंक में और ‘समकालीन सरोकार’ अगस्त-अक्टूबर २०१३ में 'जनसंदेश' टाइम्स में कवितायें प्रकाशित. २०१४ में 'उम्मीद' में एक लम्बी कविता एवं 'यात्रा' में कवितायें प्रकाशित बोधि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित स्त्री विषयक कविताओं के संग्रह स्त्री हो कर सवाल करती है में भी कविताओं का प्रकाशन. विधिनय प्रकाशन, कानपुर द्वारा प्रकाशित द्विमासिक विधि पत्रिका 'विधिनय'की सहायक संपादिका. कानपुर से प्रकाशित ‘कनपुरियम’ एवं ‘अंजुरि’ पत्रिकाओं में कवितायें प्रकाशित. जनसंदेश टाइम्स, नव्या ई पत्रिका, खरी न्यूज ई पत्रिका, अनुनाद, पहली बार ब्लॉग, आपका साथ-साथ फूलों का ब्लॉग, नई-पुरानी हलचल ब्लॉग, कुछ मेरी नज़र से ब्लॉग एवं’फर्गुदिया’ ब्लॉग, शब्दांकन ब्लॉग पर कवितायें प्रकाशित .
वर्चस्व की राजनीति और हाशिये की परम्परा
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औरतें धार्मिक स्थलों की सर्वेसर्वा के रूप में इतनी कम और यदा-कदा ही क्यों दिखाई देती है ... ??
सवालों के लिए उनके हलों की उत्कंठा ही हमें दौड़ाती है आखिर इस सवाल की उत्पत्ति के कारक कहाँ है ... आखिर धार्मिक स्थल है क्या ... और क्यों इतना महत्वपूर्ण है उनका सर्वेसर्वा होना ... उनके सर्वेसर्वा होने के मायने और हासिल क्या है ... और वो आखिर करते क्या है ...
धार्मिक स्थल आखिर है क्या ...
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बेहद मोटे तौर पर कहने की कोशिश करने पर कहा जा सकता है कि समस्त जीवित मृत प्राणियों के ऊपर भी एक सर्वशक्तिमान सत्ता की परिकल्पना अथवा एक सर्वोच्च शक्ति की ऐसी अवधारणा को, जिससे ऊपर इस सृष्टि में कुछ भी नहीं है एक धूल का कण भी नहीं, जो परम सत्ता है जो अपनी विद्यमानता में सार्वभौम है सम्पूर्ण सृष्टि का नियंत्रण जिसमें निहित है ... उसे भिन्न-भिन्न नाम रूपों में गढ़ा गया ...
इस स्थूल प्राणहीन गढ़न को अपने फलने-फूलने और संचालन हेतु मानवीय शक्ति की सहायता से ही संचालित होना था आखिर यह ईश्वरीय संकल्पना उनके ही भयों एवं निराकरणों को दृष्टिगत रखते हुए की गई उपज जो थी ...
उस संकल्पना के इर्द-गिर्द रची-गढ़ी गई प्रक्रियाओं एवं व्यवस्था को सतत रूप से चलाने और स्थायित्व प्रदान करने वाली कार्यप्रणाली को ही कालांतर में धर्म कहा गया और उनके संचालित होने के स्थलों को धार्मिक स्थल ...
सारे तर्कों से परे जो सर्वशक्तिमान जनक और संहारक होगा अविवादित रूप से उसके पास ही सारे सर्वोच्च वर्चस्व निहित एवं केंद्रीभूत होने थे और हुए ...
धार्मिक स्थल क्यों महत्वपूर्ण हैं और वह क्या करते है ...
किसी भी विस्तार में न जाते हुए अपनी बात अपने शब्दों में कही जाए तो “धर्म और ईश्वर का प्रतिनिधि होना इस दुनियाँ के किसी भी कोने में सबसे बड़े वर्चस्व का स्वामी होना है “...
धार्मिक स्थल सदैव से ही अपने मूल उद्गम से ही शक्ति, सत्ता, सम्पदा एवं सर्वोच्च वर्चस्व का एकीकृत केंद्र रहे है | बड़ी से बड़ी मानवीय ताकतें भी धर्म एवं ईश्वर के समक्ष नतमस्तक होती है |
मुद्दे का सवाल है कि ऐसा वर्चस्व क्या खायेगा जो उसकी क्षुधापूर्ति के साथ-साथ, उसके स्वामित्व की संतुष्टि के नीचे पददलित होने के लिए एक वृहद् दुनियाँ सतत निर्मित रख सके |
जवाब की खोज मुझे कमजोर एवं निरीह इयत्ताओं की एक बेहद बिखरी एवं विक्षिप्त दुनियाँ के विस्तार में ले जाती है |
किसी भी स्वामित्व के समक्ष सबसे बड़ा प्रश्न अपने अस्तित्व की सतत रक्षा का होता है | कोई भी छोटी बड़ी सत्ता सिर्फ तभी तक अस्तित्वमयी होती है जब तक उसके पास कमजोरों की मौजूदगी बनी रहे | सत्ता के स्वामित्व हेतु सबसे अहम् कार्य होता है अपने को शक्तिवान बनाए रखना |
शक्ति सिर्फ और सिर्फ अन्यों की उपस्थितियों पर शासन नियंत्रण एवं उसके अबाध व्यवस्थापन द्वारा ही प्राप्त होती है | इसके लिए सत्ताएं अपने लिए एक विशेष प्रकार का चरित्र गढ़ती है ... और वह है ऐसे उपायों की सतत खोज की योग्यता जिसके द्वारा लोगों को तोडा जा सके कमजोर किया जा सके |संक्षेप में ऐसे अस्त्रों का निर्माण जिनसे एक व्यक्ति की सबसे बड़ी ताकत उसके सोचने-समझने की क्षमता को कुंद किया जा सके |
सत्ताओं को हांकी जा सकने भीड़ का निर्माण करना होता है | सत्ताएँ लोगो की रीढ़ को तोड़ती है | स्वयं हर तरह की शक्ति और सम्पदा हासिल करती है | सत्ताएँ येन-केन-प्रकारेण लोगों को शारीरिक,मानसिक एवं सामजिक दासत्व के चक्र में एक अदद उपनिवेश में परिवर्तित कर उनका दोहन करती हैं | अपने वर्चस्व का राज-पाट चलाती है |
स्त्रियाँ अर्थात आधी दुनियाँ अनादि काल से इस जगत की सबसे बड़ी मूक कामगार शक्ति है | स्त्रियाँ समाज एवं सृष्टि चक्र की रीढ़ है |
आधी दुनियाँ का अर्थ क्या है ...
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आधी दुनियाँ शब्द मेरे लिए एक ऐसी शक्तिशाली मध्यमान रेखा है जो बाकी आधी दुनियाँ से हर मायने में सम पर हो उत्पत्ति,वृद्धि,क्षमता एवं योगदान सभी क्षेत्रों में ...
स्वामित्व की कामना रखने वाली सत्ता इच्छाएं ऐसी वृहद् शक्ति की उपस्थिति को स्वतंत्र,शक्तिमयी, अस्तित्वमयी एवं रचनाधर्मी कैसे छोड़ सकती थी /है |
जो भी स्वतंत्र है ,शक्तिमय है ,अस्तित्वमय एवं रचनाधर्मी है उसकी अपनी निजी सत्ता होगी |
वह सहभागी धर्म में तो जी सकता है परन्तु सर झुकाए पीठ के पीछे हाथ बांधे दासत्व में कदापि नहीं जियेगा | उसकी ग्रीवा सधी और तनी होगी | वह उठी हुई तर्जनी का जवाब उठी हुई तर्जनी से ही आँखों में आँखें डाल कर ही देगा |
घुटनों के बल रेंग कर सत्ताओं के कोड़े खाने को स्वतंत्र अस्तित्व कभी भी किसी भी परिस्थिति में स्वीकार नहीं करेंगे |
सत्ताओं ने तय किया कि स्वतंत्र अस्तित्व की अवधारणा को ही स्त्रियों के लिए सिरे से कुचल दो | एक स्त्री को स्त्री ही न रहने दो बाकी वह जो कुछ भी कहलाएगी हम बताएँगे | उसके होने की परिधियाँ हम तय करेंगे |
सत्ताएं स्वामी हुई | पुरुष रूप हुई | बाक़ी आधी दुनियाँ उनके दासत्व की प्रजा रूप | इस प्रजा को अलग-अलग नाम-रूपों में बेहद षडयंत्रकारी तौर पर दिखावटी स्वरूपों में महिमामंडित किया गया | बेटी, बहन, माँ, पत्नी, प्रेयसी, कुलवधू, नगरवधू इत्यादि-इत्यादि | खाकें और साँचें तमाम उद्देश्य एक कि इन सभी खाकों का कोई न कोई स्वामी होगा | यह स्वतंत्र स्वस्वामित्व में नहीं जियेंगी | स्त्रियों की स्वतंत्र सत्ता में कोई भी अधिकार नहीं छोड़े गए | मातृत्व का नैसर्गिक अधिकार तक भी नहीं | जो दिखावटी तौर पर छोड़े भी गए उन तक स्त्रियों की पहुँच के रास्ते और दृष्टि बाधित कर दी गई | जन्म से मृत्यु तक उन पर सिर्फ और सिर्फ किरदारों और कर्तव्यों के अंधत्व लाद दिए गए | कोल्हू के आँखों पर पट्टी बंधे बैल की तरह किरदार और दायित्व जीवन-मरण प्रश्न बना कर बांधे गए | सत्ताओं के कोल्हू ने अपने वर्चस्व की भूख में किसी और को नहीं स्त्रियों को पेरा और अपने लिए परम स्वतंत्रता और संतुष्टियाँ हासिल की |
वंचितों के वर्गों का बने रहना ही सत्ताओं के हाड-माँस एव रक्त-मज्जा को पुष्ट एवं पोषित करता है |
स्त्रियों से भूख, प्यास, सोना, जागना, प्रेम, साथी, नित्यक्रिया आदि जैसे मामूली से मामूली और नैसर्गिक हकूक भी बड़े सलीके और अहद से तमाम नियमों एवं आवरणों के तहत छीन लिए गए | शिक्षा, संपत्ति, स्वतंत्रता, समानता, एवं धर्म तो बहुत ही बड़ी चीज़े थी | ऐसी जिनके बल पर सत्ताएँ टिकती और मिटती है |
धर्म और उससे शासित समाज ने लज्जा और चरित्र (यौन-शुचिता) दो ऐसे रोग स्त्री के सम्पूर्ण जीवन पर आरोपित किये जिन्होंने स्त्री की रीढ़ तोड़ डाली | यह रोग इतने शक्तिशाली थे / है कि इन्होने स्त्री को हर स्तर पर तोड़-मरोड़ डाला |
इस हद तक कि स्त्रियाँ अपने जन्मगत कर्म मल-मूत्र त्याग को भी नियंत्रित करना सीखने हेतु बाध्य हुई | गाँव जवार में आज तक वह सुबह मुँह अँधेरे ही किसी छिपे कोने में सामूहिक मल-त्याग के लिए निकलती है | अपनी तथाकथित ‘इज्जत’ की सुरक्षा के लिए कई स्त्रियों के समूह में ही निकलती है | लम्बे समय तक मूत्र-त्याग न करने से अधिकाँश महिलायें तमाम रोगों की शिकार बनती है | सिर्फ गाँव-देहात ही क्यों आधुनिक शहरों में घरों से बाहर निकलने वाली काम-काजी स्त्रियाँ भी इस आरोपित लज्जाधर्म की अनचाहे अनजाने ही शिकार है |
इसी लज्जाधर्म के तहत एक छोटी बच्ची को उसके समस्त शारीरिक अंगों के नामों से परिचित कराया जाता है पर उसे योनि (vagina ) के लिए कोई शब्द ही नहीं दिया जाता है उस अंगविशेष के प्रति उसके चैतन्य होते ही बस लज्जा बोध दे दिए जाते है बहुत खोजने पर भी मुझे कोई शब्द योनि के लिए नहीं मिलता है | उसके विपरीत पुरुषों के लिंग के लिए तमाम शब्द है जो छुटपन से ही प्रयुक्त होते सुने गए है और आम भाषा एवं जीवन के चलन में है |(यहाँ भाषा में मौजूद अश्लील भाषायी शब्दों को विचार में नहीं लिया गया है ) एक जैविक संरचना का अस्तित्वमूलक शब्द ही भाषा एवं चलन की याददाश्त में लिखा ही नहीं गया ... आखिर क्यों ...
एक बच्ची की योनि भी ढँक कर रखो उसका दिख जाना समस्त स्त्रीजाति के लिए लज्जा का विषय हो जाता है आस-पास उपस्थित स्त्री समूह अपने को नग्न महसूस करने लग जाते है और कपडा ले कर दौड़ पड़ते है ढंकने-मूंदने को ...
योनि क्यों इतनी लज्जास्पद बना दी गई ... उत्तर एक है ... सिर्फ अस्तित्त्व के नकारात्मक बोध के साथ एक जीवन की वृद्धि को प्रारंभ से ही निस्तेज कर डालने के लिए ...
योनि के लिए कोई शब्द नहीं सिर्फ एक नकारात्मक भाव बोध और वह है असुरक्षा ...
उसका अर्थ है सतत लूटी जा सकने वाली किसी चीज़ की मौजूदगी ...
एक ऐसी कीमती बोझ ‘वस्तु’ जिससे कोई छुटकारा इस जीवन में संभव ही नहीं है | जिसका संरक्षण और छिपाव ही सबसे बड़ा स्त्री धर्म है |
लज्जाधर्म और यौन शुचिता की सिल को अपनी छाती पर दुपट्टा और आँचल बना कर टाँगे स्त्रियाँ अनजाने ही जन्मांध सी , शासकों द्वारा बेहद बारीक महीन पीसा और लहू में घोला गया शोषण धर्म, ख़ुशी-ख़ुशी मुस्कुराते हुए खा-पी और ढो रही है |
उनकी मुक्ति और सत्तावान होने की स्वप्नित अवधारणा एक ऐसे विद्रोह का बबूल है जो अनादिकाल से चली आ रही पितृसत्ता को क्षत-विक्षत कर देगा | शोषण धर्म को चिंदी-चिंदी कर फूंक देगा |
धार्मिक स्थलों की सत्ता से वंचित रखने के लिए सत्ताओं ने माहवारी होने के कारण स्त्री की अपवित्रता के कुचक्र का ऐसा मकड़-जाल बुना जिसमें वह स्त्री के होने के प्राथमिक एवं मूलभूत पायदान को ही खा चबा जाता है | अपने अस्तित्व को दिए गए इस अपवित्रता मूलक धक्के से स्त्री आजीवन नहीं उबर पाती है |
किसी स्त्री का रजस्वला होना सृष्टि का,जीवनचक्र का सबसे बड़ा उत्सव है | उत्सव उसके होने का, उसके सृष्टा होने का , सृष्टा अर्थात ईश्वर के समकक्ष होने का , उसके स्वतंत्र अस्तित्व होने का | सत्ताएं ठीक इसी जगह , इसी बिंदु , इसी चरण पर उसके हाथ-पाँव ,सोच-समझ बाँध देती है , बाधित कर देती है |
यह पवित्रता और अपवित्रता के मध्य खेला जाने वाला ऐसा दुष्चक्र है जिसमें स्त्री एक लतगौंजी-हथगौंजी गेंद के सिवाय कुछ नहीं है | इस खेल को खेलने वाले उसे हर स्तर पर कमजोर कर देते है तोड़ देते है | शारीरिक शुचिता इतनी बड़ी जिम्मेदारी और भय बना दी जाती है ठीक इसी उत्सवधर्मी मोड़ पर कि वह आजीवन इस जिम्मेदारी और भय के साये से बाहर नहीं आ पाती है | जाने-अनजाने अभिशप्त है स्वयं इसका हिस्सा बने रहने को और इस दुष्चक्र के सतत प्रवाहमान बने रहने के लिए अपनी संततियों को भी इसमें झोंकने के लिए |
यदि स्त्रियाँ इस दुष्चक्र इस होमयज्ञ से बाहर निकल आएँगी इस लज्जाधर्म से बाहर निकल आएँगी और धार्मिक सत्ताएं हासिल करेंगी तो वह वर्चस्व के सबसे प्रधान मुकाम पर बैठेगी | पितृसत्ता के ठाठ, मक्कारी, अय्याशी और अकड़ के बेहद फूले उड़ते हुए गुब्बारे की हवा को निकाल कर उसे जमीन पर पटक देंगी | वह धर्म की आड़ में चलते इस दुष्चक्र के समस्त खोखलेपन को जान लेंगी |
यही हो भी रहा है पढ़ी-लिखी जागरूक स्त्रियाँ, प्रश्न करती, तर्जनी उठाती, आँख मिलाती स्त्रियाँ सत्ता वर्ग की तिलमिलाहट का बायस है |
अब तक शासक वर्ग के रूप में चली आ रही पितृसत्ता को उकडूँ बैठने की मुद्रा में होने का स्वप्न भी गंवारा नहीं है | यह एक अलग बात है कि स्त्रियों के स्वभाव में दमन और प्रतिशोध के बीज नहीं बोये गए है | वह एक साथ खड़ी होना और मुस्कुराना चाहती है | स्वतंत्रता और समानता से प्रेम करना चाहती है, सोना-जागना, हगना-मूतना चाहती है , खुल कर कर मुक्त कंठ से हँसना चाहती है | एक इंसान की तरह से चुनने और होने की आजादी चाहती है | एक व्यक्ति होने के चयन की आज़ादी जिसमे उसके गलतियाँ करने और चूक जाने का और उन्हें सुधारने का अधिकार मूलभूत रूप से सम्मिलित है |
पितृसत्ताएं स्त्री की अस्मिता में एक ऐसी आततायी घुसपैंठ है जो उनकी साँसों पर चौबीसों घंटे पाँव धरे ही रहती है |
इन चौबीस घंटे सोते-जागते, मरते-जीते, चलने वाले दबावों ने स्त्रियों के जीवन को नरक के गर्त में झोंक रखा है | वह घायल है पर घाव देख पाने की सामर्थ्य से हीन है यदि सामर्थ्य पा भी लेती है अपने को देख भी लेती है तो उन्हें मरहम लगाने एवं बंद दरवाजे खोलने की सतत् जंग में अपने को होम करना पड़ता है | सतत् विरोध, पथभ्रष्ट और बागी होने के आहारों का अनवरत विषपान करना पड़ता है |
योनि-चरित्र उन्हें सब कुछ दिखता है सिवाय उनके स्वयं के |
स्त्रियाँ, स्त्रियाँ नहीं रह जाती है बागियों में परावर्तित कर दी जाती है और सत्ताएं बागियों का रूपांतरण सब कुछ विध्वंश और विनाश के गर्त में ले जाने वाली भयावह आग उगलती तोपों के रूप में कर देती
है |
सत्ताओं की इस नृसंश, बेहद क्रूर वर्चस्ववादी दुनियाँ में बहुतेरी खाप सल्तनतें है और खाप सल्तनतों की
सबसे बड़ी तौहीन है उनकी ‘प्रजा’ अर्थात स्त्रियों के मुँह में जबान होना |
असहिष्णु सत्ताएं मुँह में जबान रखने वाली, विरोध में तिलमिला उठने वाली, आँख में आँख डाल कर सीधी खड़ी और चुप रहो, अपनी औकात मत भूलों सुनने पर कदापि पीछे न हटने वाली स्त्रियों के झोंटे उखाड़ डालना चाहती है |
उन्हें शारीरिक, मानसिक और सामाजिक पटल पर बड़ी सिद्धहस्तता से अनवरत चलते रहने वाले सार्वजनिक बलात्कार का शिकार बनाया जाता है |
ऐसी शक्तियों से कुछ भी पाने के लिए इन दुष्चक्रों को समझना और इनके पालित दृढ संस्कारों को काट कर फेंकना होगा तभी वर्चस्व के इस चक्र में कोई पैठ संभव होगी |
अपने जीवन को इस अतार्किक जेलर समाज और इस देह धरे की जेल में जबरन कैद किये जाने के निराधार दंड से मुक्त करने के लिए स्त्री को चौतरफा श्रम और जद्दोजहद करनी होगी |
इससे भी एक कदम आगे बढ़ कर अपने ऐसे सार्वजनिक बलात्कार के लिए अपनी पूर्ण क्षमता से सामर्थ्यवान होना पड़ेगा |
यौन-शुचिता एवं लज्जाधर्म की अर्थी को कंधा देने के लिए इनके प्रमाणपत्र बांटने वालों के साथ अपनी ऊर्जा बिना गवाएं अपनी राह स्वयं निर्मित करनी होगी |
----- हेमा दीक्षित -----
लेखिका, कवयित्री
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साभार उत्पल पत्रिका