पुनीत बिसारिया ने समय-समय पर स्त्री विषयक अपने विचारों को विभिन्न मंचों के माध्यम से जनसाधारण के समक्ष रखते रहे हैं। उन्होंने स्त्री विषयक अपने सम्पूर्ण विचारों को ‘वेदबुक से फेसबुक तक स्त्री’पुस्तक में पिरोने का कार्य किया है। यह पुस्तक अटलाण्टिक पब्लिकेशन, नई दिल्ली से प्रका शित हो रही है। फरगुदिया के पाठकों के लिए इस पुस्तक का एक अंश प्रस्तुत है।
उत्तर वैदिक काल का स्त्री विमर्श
डॉ पुनीत बिसारिया
याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा गया है, ‘‘अवरूद्वासु दासीषु भुजिष्यासु तथैव च। गम्यास्वपि पुमान्दाप्यः पंचाशत्पणिंक दमम्।2 अर्थात् कोई पुरूष यदि अवरूद्धा, दासी या भुजिष्या जैसी स्त्रियों से सहवास करे तो उसे पचास पण का दण्ड दिया जाए, बावजूद इसके कि ये स्त्रियाँ गम्या (जिनसे कोई भी सहवास कर सकता है) हैं।
यदि हिन्दू धर्म के प्राचीन ग्रंथों की ओर देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि वैरागिक विचारधारा में सर्वत्र स्त्रियाँ नैतिक एवं आध्यात्मिक उत्थान में बाधक मानी गयी हैं।3 धार्मिक ग्रन्थ प्रायः इन प्रसंगों से भरे पड़े हैं, जब अत्यन्त प्रतिष्ठित ऋषि-मुनि भी स्त्रियों के सौन्दर्य एवं आकर्षण से विचलित हो गए थे।4 इससे स्पष्ट है कि हमेशा से ही नारी को भोग और विलास की सामग्री एवं अध्यात्म का दुश्मन माना जाता रहा है। अतः एकदम स्वाभाविक ही था कि वैदिक कालीन भोगवाद के बाद जब समाज अध्यात्म की ओर झुका तो नारी सहज ही नरक की द्वार और दुर्गुणों की खान घोषित कर दी गयी।5
मनुस्मृति में स्त्रियों की स्वतन्त्रता को निषिद्ध करते हुए मनु ने लिखा है कि स्त्रियों को पति के बिना अलग यज्ञ, व्रत और उपवास करने का अधिकार नहीं है,6 उसे पति के मर जाने के बाद भी पर-पुरूष का नाम नहीं लेना चाहिये7 किन्तु पहले मरी हुई स्त्री का दाह आदि अन्त्येष्टि कर्म करके पुरूष पुनः गृहस्थाश्रम में जाने के लिए विवाह कर सकता है।8 मेगास्थनीज ने लिखा है, ‘‘ ब्राह्मण लोग अपनी स्त्रियों पर विश्वास नहीं करते। वे उन्हें ज्ञानार्जन और वेदाध्ययन करने के अवसर नहीं देते। इतना ही नहीं, उन्हें डर सताता रहता है कि वेद पढ़ने के बाद उनकी स्त्रियाँ उन विषयों को उन लोगों (शूद्रों-अछूतों) के सामने प्रकट कर देंगी, जो उनके अधिकारी नहीं हैं।9
ब्रह्मवैवत्र्त पुराण में कहा गया है कि कुलीन पतिव्रता नारी अपने पापी, पतित, पागल, दरिद्र रोगी अथवा मूर्ख पति को (भी) विष्णु के समान देखती है।10
मनुस्मृति में एक ओर जहाँ ‘स्त्री पूजा’ की बात कही गयी है, वहीं उसकी भूमिका को अत्यन्त निरीह बनाकर पेश किया गया है। मनु कहते हैं कि क्षत्रिय की हत्या होने पर 15,000 गायों का दण्ड, वैश्य की हत्या होने पर 1000 गायों का दण्ड एवं स्त्री तथा शूद्र की हत्या होने पर मात्र 10 गायों का दण्ड पर्याप्त है। लेकिन कौटिल्य स्त्रियों के अधिकारों की रक्षा किए जाने का समर्थन करते हैं और उन्हें समाज का एक सामान्य सदस्य मानते हुए सम्पत्ति का अधिकार भी प्रदान करते हैं।11
श्रीमद्भगवत्गीता में अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं कि हे श्रीकृष्ण ! बुराई के बढ़ जाने के कारण परिवार की महिलाएँ भ्रष्ट हो जाती हैं और महिलाओं के दुराचारी एवं पतित हो जाने की स्थिति में अन्तर्जातीयता अर्थात् वर्णसंकरता बढ़ जाती है।12 इसमें अर्जुन ने बुराइयों के बढ़ने के फलस्वरूप स्त्रियों के ही पतित हो जाने की बात की है।
इस सम्बन्ध में गाँधी जी का वक्तव्य भी उल्लेखनीय है, वे कहते हैं कि हिन्दुओं के धर्मशास्त्रों में स्त्रियों के सम्बन्ध में जो आक्षेप हैं, उनके निवारण के लिए सीता और द्रौपदी जैसी पवित्र, अत्यन्त दृढ़ संकल्पित और संयमी नारियाँ उत्पन्न करती होंगी।13 हालांकि गाँधी जी मनुस्मृति में व्यक्त स्त्री की स्वतंत्रता के नकार को अस्वीकार करते हैं, और ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता’ की भावना को स्वीकार करते हैं।14
वृहदारण्यक उपनिषद में ऐसा वर्णित है कि पांचाल नरेश प्रवाहण जाबालि के पास ज्ञान प्राप्ति के लिए जब अपने पुत्र श्वेतकेतु के साथ पहुँचे तो उन्होंने अपने पास गौ, अश्व व दासियाँ होने का उल्लेख किया था। छांदोग्य उपनिषद में भी कहा गया है कि राजा अश्वपति ने सत्ययज्ञ में खच्चरियों से जुता हुआ रथ और दासियों के साथ हार का उल्लेख किया था।15
कमलेश कुमार गुप्ता का निष्कर्ष है कि, ‘‘महिलाओं को वैदिककाल में जो पुरूषों के बराबर सम्मान एवं महत्त्व प्राप्त था, वह उत्तरोत्तर कम होता चला गया। उत्तर वैदिक काल में धर्म सूत्रों में बाल विवाह का निर्देश दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप महिलाओं की शिक्षा में बाधा पहुँची और उनकी शिक्षा का स्तर गिरता चला गया। उत्तर वैदिक युग में महिलाओं को धार्मिक तथा सामाजिक अधिकारों से वंचित रखने के दो प्रमुख कारण थे- (1) कर्मकाण्ड की जटिलता तथा पवित्रता की धारणा, (2) अन्तर्जातीय विवाह16
लाला लाजपत राय ने अपनी पुस्तक दुःखी भारत में मिस कैथरीन मेयो की पुस्तक ‘मदर इण्डिया’ द्वारा हिन्दू समाज के ग्रंथों में स्त्रियों की पराधीनता सम्बन्धी आरोपों का उत्तर दिया है तथा यह कहने का प्रयास किया है कि इन ग्रंथों में स्त्रियों के प्रति कदापि अनादर नहीं था। उनका मत है कि कतिपय अवस्थाओं में स्त्री को प्रधानता दी गयी है और कतिपय अवस्थाओं में पुरूष को; दोनों समान रूप से महत्त्वपूर्ण, अनिवार्य और अभिन्न हैं।17 भगवान दास अपनी पुस्तक ‘समाज संगठन विज्ञान में कहते हैं कि, ‘‘दोनों में कुछ ऐसी शारीरिक विशेषताएँ हैं कि वे एक दूसरे की कमी को पूरा करते हैं। प्रत्येक के व्यक्तिगत जीवन में दोनों विद्यमान रहते हैं, परन्तु कतिपय अवसरों पर एक अपने स्वरूप में और दूसरा अपने विशेष और समुन्नत स्वरूप में प्रकट होता है।18 एक प्रकार से वे भी लाला लाजपत राय की ही बात की पुष्टि करते हैं। लाला लाजपत राय इस मत के समर्थन में विष्णुपुराण से एक वर्णन उद्धृत करते हैं, जिसमें कहा गया है-
‘‘पुरूष विष्णु है, स्त्री लक्ष्मी। पुरूष विचार है, स्त्री भाषा। पुरूष धर्म है, स्त्री बुद्धि। पुरूष तर्क है, स्त्री भावना। पुरूष अधिकार है, स्त्री कर्तव्य। पुरूष रचयिता है, स्त्री रचना। पुरूष धैर्य है, स्त्री शान्ति। पुरूष हठ है, स्त्री इच्छा। पुरूष दया है, स्त्री दान। पुरूष मंत्र है, स्त्री उच्चारण। पुरूष अग्नि है, स्त्री
इंधन। पुरूष सूर्य है, स्त्री आभा। पुरूष विस्तार है, स्त्री सीमा। पुरूष युद्ध है, स्त्री शक्ति। पुरूष दीपक है, स्त्री प्रकाश। पुरूष दिन है, स्त्री रात्रि। पुरूष वृक्ष है, स्त्री फल। पुरूष संगीत है, स्त्री स्वर। पुरूष न्याय है, स्त्री सत्य। पुरूष सागर है, स्त्री नदी। पुरूष स्तम्भ है, स्त्री पताका। पुरूष शक्ति है, स्त्री सौन्दर्य। पुरूष आत्मा है, स्त्री शरीर। इसके अतिरिक्त वे मनुस्मृति से भी कई उद्धरण उद्धृत करते हैं।19
प्रोफेसर कुसुमलता केडिया तथा प्रोफेसर रामेश्वर प्रसाद मिश्र एक अत्यन्त तार्किक बात करते हैं कि, ‘‘मनुस्मृति का पालन आज तक कभी भी पूर्णतः निष्ठापूर्वक नहीं किया गया। मनु का प्रसिद्ध वाक्य है कि वृत्ति का शुल्क लेते ही ब्राह्मण शिक्षक शूद्र हो जाता है, तथा वेद न पढ़ने वाला द्विज शूद्र होता है। आज द्विज जातियों के लाखों शिक्षक वेतन ले रहे हैं। इसी तरह अन्य अनेक व्यवस्थाओं के विषय में यही स्थिति है। यथा, वेद न पढ़ने वाला शिक्षक शूद्र हो जाता है।20 ब्याज लेने वाले ब्राह्मण को राजा किसी मुकदमे की गवाही में शूद्रवत् मानकर व्यवहार करें। इसी प्रकार व्यापार कर रहे,21 गायन नत्र्तन से जीविका चलाने वाले,22 सेवावृत्ति वाले ब्राह्मणों को राजा साक्ष्य में शूद्रवत् माने।23 दूध बेचने वाला ब्राह्मण तीन दिन में ही शूद्र हो जाता है, इत्यादि।24 आज इनमें से प्रत्येक प्रकार के व्यक्ति ब्राह्मण जाति में मिल जायेंगे। उन्हें न तो ब्राह्मण समाज शूद्र मानता है, न ही शेष समाज और न ही भारतीय संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था है कि अमुक त्याज्य कर्म करने पर ब्राह्मण शूद्र हो जाएगा। अतः मनुस्मृति की दुहाई का आज अधिक अर्थ नहीं है। ब्राह्मणों की जो महत्ता मनुस्मृति में वर्णित है, उसे भी तो आज कोई मान्यता या प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं है। मदिरापान करने वालों को महापातकी मानकर उनसे सम्पर्क तक नहीं रखें, यह आज कौन मानता है ? श्रेष्ठ धर्माचार्य तक आज इसे नहीं मान पाते। उनके सम्पन्न शिष्यों में मदिरापान करने वाले मिल ही जायेंगे। ऐसे में केवल स्त्रियों के उपनयन एवं वेदाध्ययन के निषेध की बात पर मनुस्मृति का आग्रह करना तथा हारीत, यम प्रभृति स्मृतियों की, वेदों की, महाभारत की एवं गृह्यसूत्रों की उपेक्षा और अवज्ञा करना कथमपि धर्मसम्मत नहीं कहा जा सकता।”25
सुभाष शर्मा अपने वर्षों के चिन्तन एवं अनुसन्धान के पश्चात् इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि, ‘‘ भारत में महिलाओं की कई छवियाँ रही हैं। पहली छवि देवी की है जिसकी पूजा की जाती है। यह आकस्मिक नहीं कि महिलाओं के नाम के साथ ‘देवी’ शब्द (जैसे रमावती देवी, महादेवी) जोड़ा जाता है। इसके अलावा ‘कुमारी’ शब्द भी जोड़ा जाता है जो देवी का प्रतीक (कुमारी पूजा) है। इसी सन्दर्भ में मनु ने कहा है, ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता’ अर्थात् जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहाँ देवता वास करते हैं। मगर दूसरी छवि इसके विपरीत है। कहा गया हैः ‘नाक न हो तो महिला मैला खा सकती है, ‘महिला डाइन होती है, ‘ सारा गांव जरिगा फूहर कहें लत्ता गन्धान, ‘बुजरी’ छिनाल, ‘बांझ’ (बन्ध्या), बेवा, रांड (विधवा), ‘ ढोल, गँवार, शूद्र, पशु, नारी ये सब ताड़न के अधिकारी ‘(तुलसीदास) ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो ‘ (जयशंकर प्रसाद), ‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल में है दूध और आँखों में पानी, पराया धन, ‘‘तिरिया चरित्र’ आदि कहा जाता है। मनु ने तो सारी सीमाएँ तोड़ दीं, जब उन्होंने स्त्री को हमेशा बन्धन में रखने की बात कही- स्त्री बचपन में पिता के अधीन, युवावस्था में पति के अधीन तथा वृद्धावस्था में पुत्र के अधीन रहे। वह कभी स्वतन्त्र न रहे। इस प्रकार महिला को दोयम दर्जे का नागरिक या अर्द्ध गुलाम माना गया है। तीसरा नजरिया इसके बिल्कुल विभिन्न स्त्री-पुरूष सम्बन्धों पर आधारित है, जिसके अनुसार स्त्री की भूमिकाएँ तीन प्रकार की हैं- पत्नी, प्रेमिका या रखैल।”26 अनामिका ने राजेन्द्र यादव तथा अर्चना वर्मा द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्य’ में ‘हम पुरबिया औरतें और हमारा स्त्री विमर्श’ शीर्षक से अत्यन्त विचारोत्तेजक लेख लिखा है, जिसमें उन्होंने मनुस्मृति में वर्णित आठ प्रकार के विवाहों में से अन्तिम तीन असुर विवाह, राक्षस विवाह तथा पैशाच विवाह को स्त्रियों के लिए त्रासद माना है और आश्चर्य प्रकट किया है कि स्त्रियाँ ऐसे विवाहों के लिए कैसे तैयार हो जाती होंगी।27 वे ऐतरेय ब्राह्मण का उद्धरण देते हुए बताती हैं कि इस ग्रंथ में तो कन्या की उत्पत्ति को स्पष्ट शोक का कारण (कृपणं हि दुहित, ज्योतिहि पुत्रः) माना गया है।28
देवी भागवत पुराण में स्त्री को ‘देवी’ माने जाने के बावजूद उसे विष से भरी हुई, अभिमानिनी तथा स्वार्थी कहा गया है। उसे मलीन हृदया, नित्य नए-नए युवकों की खोज में रहने वाली, कामदेव का आधार स्तम्भ, लज्जा का नाटक करने वाली तथा एकान्त में अपने प्रेमी से हँस-हँस कर बातें करने वाली कहकर अपमानित किया गया है।29 देवी भागवत पुराण के अनुसार समाज में दो प्रकार की स्त्रियाँ पाई जाती हैं- वास्तव रूपा तथा अवास्तव रूपा। इन्हें प्रशस्त तथा अप्रशस्त भी कहा जाता है। सरस्वती, लक्ष्मी आदि सभी देवियों के रूपों को वास्तव रूपा कहा गया है, तथा इसी प्रकार सत्व प्रधान स्त्रियों को भी वास्तविक कहा गया है। तमो रूप स्त्रियों को अधम या अवास्तव माना गया है।30
देवी भागवतकार साहित्य को भी स्त्रियों के आधार पर तीन भागों में वर्गीकृत करता है। 1. सात्विक 2. मध्यम और 3. अधम। स्वकीया के वर्णन में पूर्ण साहित्य सात्विक, वेश्या का वर्णन करने वाला मध्यम तथा परकीया स्त्री के वर्णन से पूर्ण साहित्य अधम माना जाता था।31 स्त्रियों को देवीभागतकार सन्यासियों के मार्ग का बन्धन स्वीकारता है और उन्हें अपवित्र तथा मलमूत्रादि दुर्गन्धपूर्ण वस्तुओं का आधार कहता है।32
इस आधार पर डॉ लज्जावती निष्कर्ष निकालती हैं कि, ‘‘तत्कालीन समाज में स्त्री के विविध रूप दृष्टिगोचर होते थे परन्तु फिर भी स्त्री को समाज में आदर की दृष्टि से नहीं देखा जाता था। उसकी स्थिति में अवनति के चिन्ह प्रकट होने लगे थे।33 यह कम आश्चर्यजनक नहीं है कि देवी को शिखर स्थान पर पूजित करने के लिए जिस देवीभागवत पुराण की रचना की गयी, उसी ग्रन्थ में स्त्रियों के प्रति उपेक्षा की भावना यत्र-तत्र दृष्टिगत् होती है।
उपनिषदों के युग में सहशिक्षा का प्रसार तो था, परन्तु स्त्रियों की दशा में अवनति आनी प्रारम्भ हो गयी थी। वह सम्पत्ति की उत्तराधिकारिणी नहीं रह गयी थी और उसके द्वारा अर्जित धन पर उसके पिता अथवा पति का अधिकार समझा जाने लगा था। सामाजिक कार्यों में भी स्त्री का सहयोग कम होने लगा था, और विवाह में भी उन्हें आंशिक स्वतन्त्रता ही प्राप्त थी। इस समय तक विधवा को पुनर्विवाह का अधिकार प्राप्त था, वह अपने पति के भाई अथवा किसी अन्य पुरूष के साथ विवाह कर सकती थी, परन्तु उसके धार्मिक अधिकारों पर अंकुश लगना प्रारम्भ हो गया था। बलिदान के बहुत से कार्य जो अभी तक केवल स्त्रियों के द्वारा सम्पादित हो रहे थे, अब पुरूष द्वारा सम्पादित किए जाने लगे थे।34
श्वेताश्वतरोपनिषद जीवात्मा को स्त्री, पुरूष अथवा नपुंसक भेद से रहित मानता है। उसके अनुसार जो जीवात्मा आज स्त्री है, वही दूसरे जन्म में पुरूष और जो पुरूष है, वह स्त्री हो सकता है-
नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसकः।
यद् यच्छरीरमादत्ते तेन-तेन स युज्यते।।35
वृहदारण्य कोपनिषद् में प्रजापति से मिथुन की उत्पत्ति बताई गयी है। इसके अनुसार पति-पत्नी का शरीर अर्द्धवृगल (द्विदल का एक भाग) की भांति होता है। प्रजापति ने अपने शरीर को पति-पत्नी के रूप में दो भागों में विभक्त कर लिया। इसलिए यह (पुरूषार्द्ध) आकाश स्त्री से पूर्ण होता है।36
डॉ अमलदार नीहार उत्तर वैदिक कालीन स्त्री विमर्श की चर्चा करते हुऐ कहते हैं, ‘‘स्त्री जाति के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण का अध्ययन करने के लिए जब हम धर्मशास्त्र के प्रचलित ग्रन्थों, साहित्य और इतिहास में उल्लिखित आप्त वचनों और प्राचीन मूल्य-मान्यताओं का अवलोकन करते हैं, तो बड़े अन्तर्विरोध देखने को मिलते हैं। इस अन्तर्विरोध से दो बातें प्रमाणित होती हैं- एक तो यह कि देश और काल के स्तर पर ऋचा, मंत्र अथवा सूक्त भाषा के आशय को समझने के लिए (निरूक्त, निघण्टु अथवा उपयुक्त आधार कोश के अलावा) जिस उपकरण का प्रयोग किया गया, वह असमर्थ रहा हो अथवा छिन्न प्रसंग व्याख्या भी कई बार विभ्रम को जन्म देती है। और दूसरा यह कि यदि घृणोत्पादक बातें सचमुच कही गयी हैं, तो उनका रचनाकार अथवा मन्त्रदृष्टा या तो तत्व ज्ञान रहित निरामूर्ख है या शिवेतरकामी, मनुष्यता का शत्रु और दुष्ट प्रकृति का कोई सेंधमार, जिसने सांस्कृतिक रत्नों के खजाने में घृणा की बारूदी सुरंग बिछा दी है।“37
इस प्रसंग में डॉ भगवतशरण उपाध्याय एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण परन्तु चिन्तनीय प्रश्न उठाते हैं, ‘‘ भरत का विधान था कि नारी नाटक में, चाहे वह जनक की पुत्री और राम की पत्नी क्यों न हो, विश्वामित्र की कन्या महर्षि कण्व की सांस्कृतिक अनुकम्पा में ही क्यों न पली हो, दुष्यन्त की पत्नी और भरत की माँ क्यों न हो, सम्यक् रूप से संस्कृत भाषा का उपयोग वह नहीं कर सकती। उसे प्राकृतें ही बोलनी होंगी- बोलियाँ ही, जो उसके भृत्यादि, उसकी चेरियाँ आदि बोलती हैं।38
तस्लीमा नसरीन ने अपनी पुस्तक ‘औरत के हक में’ में नारी के सन्दर्भ में अनेक अशोभनीय एवं अविश्वसनीय कथनों को महाभारत से उद्धृत किया है। उनके अनुसार, ‘‘महाभारत के इस भाग (भृगुवंशी ऋषिगण द्वारा रचित अन्तिम संयोजन (ब्राह्मण) में बहुत ही स्पष्ट रूप से लिखा है कि नारी अशुभ है, सारे अमंगल का कारण है, कन्या दुखद है (1/159/11) भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर से कहा- नारी से बढ़कर अशुभ और कुछ नहीं। नारी के प्रति पुरूष के मन में कोई स्नेह या ममता रहना उचित नहीं (12/40/1)। पिछले जन्म के पाप के कारण इस जन्म में नारी जन्म होता है। (6/33/32)। स्त्री साँप की तरह है, इसलिए पुरूष को कभी उसका विश्वास नहीं करना चाहिए (5/37/29)। त्रिभुवन में कोई ऐसी नारी नहीं, जो स्वतन्त्रता पाने योग्य हो (12/20/20)। जो छह वस्तुएं एक क्षण की असतर्कता से नष्ट हो जाती हैं, वे हैं- गर्भ, सैन्य, कृषि, स्त्री, विद्या एवं शूद्र के साथ सम्बन्ध (5/33/90)।”39
तस्लीमा आगे लिखती हैं, ‘‘गिद्ध, नेवला, छछूँदर, कुत्ता, शूद्र और नारी के बीच शास्त्रों ने कोई अन्तर नहीं माना और कोई भेदभाव नहीं रखा। इसलिए समाज ने भी नहीं रखा। वैदिक भारत में नारी को मनुष्य के रूप में स्वीकृति नहीं दी गयी थी। ईसा पूर्व बारहवीं शताब्दी के समाज ने नारी को जितना असम्मानित किया, तीन हजार वर्षों में आज भी, वर्तमान ईस्वी का समाज भिन्न-भिन्न तरह से, भिन्न-भिन्न दशा में, नारी को एक समान अपमानित करता आ रहा है।”40
जो लोग प्राचीन ग्रंथों की दुहाई देकर स्त्रियों के जीवन में कांटे खड़े करते हैं, उन्हें धिक्कारते हुए महादेवी वर्मा ने ठीक ही लिखा है, ‘‘प्राचीनता की दुहाई देकर जीवन को संकीर्णतम बनाते जाना और विकास के मार्ग को चारों ओर से अवरूद्ध कर लेना किसी जीवित व्यक्ति पर समाधि बना देने से भी अधिक क्रूर और विचारहीन कार्य है।”41
शायद इसे ही ध्यान में रखते हुए नरेन्द्र सिंह सिसौदिया ‘निर्मोही अपनी कविता में कह उठते हैं-
‘‘तुम देवों ने,
वैदिक कर्म विहीन किया नारी को,
धर्मशास्त्रों की व्यवस्थाएँ बदलीं,
स्व अनुरूप
स्त्रियाँ इन्द्रिय शून्य हुईं घोर असंयमशीला,
शास्त्र ज्ञान से रहित,
असत्य की मूर्ति निपट,
ये सभी विशेषण अभियोग सदृश,
दिए पुरूषों ने,
किन्तु धरती को बाँटा खण्ड-खण्ड में।”42
इस सन्दर्भ में के0एस0 तूफान बड़ा ही मार्के का प्रश्न उठाते हैं। उनका कहना है कि, ‘‘वस्तुतः उत्तर वैदिक काल अथवा रामायण काल से ही नारी के पतन की कथा प्रारम्भ हो जाती है। यहाँ वह पति को स्वयं चुनती है, किन्तु उसका अधिकार संकुचित अथवा सीमित हो गया है। जो पुरूष पूर्वकाल में नारी की कृपा का प्रसाद पाने के लिए लालायित रहता था, वह अब नारी को बाहुबल से विजित भी करने लगा।”43 वे ययाति का कामोपभोग हेतु देहान्तर तथा उनकी पुत्री माधवी की कारूणिक एवं लोमहर्षक विक्रय कथा का वर्णन करते हुए बताते हैं कि ऋग्वैदिक पुरूष ययाति की काम लालसा एवं अवैध सम्बन्धों के प्रति तीव्र स्पृहा वैदिक समाज की झांकी प्रस्तुत कर देती है, तो महाभारत के उद्योग पर्व अध्याय 112-117 में माधवी को अश्वों के बदले बार-बार बेचे जाने की कथा निस्सन्देह एक शर्मनाक घटना है। इसी प्रकार वे इन्द्रासन के लिए प्रम्लोचा की बलि, अप्सराओं के प्रेम पर प्रतिबन्ध, देवदासियों की व्यथा, अमानुषिक सती प्रथा, बाल विवाह, बेमेल विवाह, दासी प्रथा, यौन शुचिता की सलीब पर टाँगी गयी अहिल्या के विवरण देकर बताते हैं कि नारी शोषण स्थिर काल से मानव सभ्यता का प्रिय शगल रहा है।43
ज्ञानेन्द्र रावत अपनी सम्पादित पुस्तक ‘औरतः त्रासदी का सच’ में ‘अपनी बात’ में उत्तर वैदिक समाज की चर्चा करते हुए कहते हैं, ‘‘उत्तर-वैदिक काल जो 1000 ई0पू0 से 600 ई0पू0 तक माना जाता है, इस काल में स्त्री की स्थिति बद से बदतर हो गयी। बालिका का जन्म दुर्भाग्य माना जाता था। इस काल में अनेक श्लोक ऐसे मिलते हैं, जिनसे पता चलता है कि उस समय ईश्वर से प्रार्थना की जाती थी कि गर्भ में यदि पुत्री हो, तो उसे पुत्र में परिवर्तित कर दिया जाए।”44
इसी पुस्तक में ज्ञानेन्द्र रावत पुखराज परिहार का सन्दर्भ देते हुए बताते हैं, ‘‘प्रख्यात लेखक पुखराज परिहार का मानना है कि ऋग्वेद काल में कभी नारी की स्थिति एक सी नहीं रही। इसी कारण ऋग्वेद के प्रारम्भिक मंत्रों में नारी की उपमा तथा अधिकारों पर विशेष बल दिया गया और आगे चलकर उसके अधिकारों को सीमित ही नहीं, बल्कि समाप्त भी कर दिया गया। रामायण काल में पुरूष को देवतुल्य माना गया और नारी को मात्र उसकी छाया-स्वार्थ रहित, पति परायण तपस्विनी नारी, मात्र पति की सेविका दासी। नारी को अशिक्षित और मूढ़ रखने के लिए हिन्दू शास्त्रकारों ने कहा-‘‘स्त्री को शिक्षित करा दो और समझो कि तुमने उसके हाथों में कटार थमा दी।”45
मीनाक्षी निशांत सिंह अपनी पुस्तक ‘महिला सशक्तीकरण का सच’ में दुबाइस नामक एक पाश्चात्य लेखक का जिक्र करती हैं। वे बताती हैं , ‘‘हिन्दूः मैनर्स, कस्टम्स एण्ड सेरेमनीज़’ नामक अपनी पुस्तक में दुबाइस ने लिखा है कि प्राचीन भारत में शिशु हत्या और सती प्रथा जैसी कई बर्बर परम्पराएँ प्रचलन में थीं। उनके अनुसार शिशु हत्या एक धार्मिक कृत्य था और शिशुओं में भी सबसे अधिक कन्या शिशुओं को जन्म लेते ही मार दिया जाता था।”46
निशांत सिंह भी कुछ ऐसा ही मत प्रकट करते हुए लिखते हैं, ‘‘वैदिक युग के बाद ई0पू0 600 से 300 ई0पू0 के कालखण्ड को क्रान्ति युग की संज्ञा दी जाती है। लगभग इसी समय कौटिल्य ने अर्थशास्त्र और मनु ने मनुस्मृति की रचना की। निष्कर्षतः इसी दौरान समाज में महिलाओं की स्थिति का क्षरण शुरू हुआ। अर्थशास्त्र व मनुस्मृति में कहीं भी महिला शिक्षा का जिक्र नहीं किया गया है। अब कन्याओं को अपना वर स्वयं चुनने की आज़ादी छीन ली गयी थी और अब पिता द्वारा चुने गए व्यक्ति को कन्यादान करने की प्रथा प्रचलन में आ गयी थी।”47
डॉ सुमंगला झा बताती हैं, ‘‘महाभारत काल से ही नारी के प्रति अन्याय शुरू हुआ। पुत्रों को पुत्री की अपेक्षा अधिक प्यार स्त्रियों को अपवित्र मानना, उसे शूद्र के समकक्ष रखना, स्त्रियों का पुरूषों पर पूर्ण निर्भर होना आदि कई दोष उत्पन्न हो गए। फलस्वरूप नारियों के प्रति समाज उदार नहीं रहा।48 डॉ प्रतिभा येरेकार इस कथन से पूर्ण सहमति नहीं रखतीं।
उनका मन्तव्य है कि उत्तर वैदिक युग में नारी को आध्यात्मिक ज्ञान और दर्शनशास्त्र की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाती रही है। उस समय लिखे ब्राह्मण ग्रन्थों में ‘स्त्री हि ब्रह्मा बभूविव‘ अर्थात् नारी को सृजक कहा गया है, किन्तु इस युग में नारी को शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरूकुलों में न भेजकर उन्हें अपने ही किसी योग्य रिश्तेदारों के घर भेजकर शिक्षा पूरी करवा दी जाती रही है।”49
उपनिषद काल में नारी की विस्तीर्ण प्रतिष्ठित स्थिति धीरे-धीरे पतन की ओर उन्मुख होने लगी। आर्य-अनार्य संघर्ष के परिणामस्वरूप जाति बन्धन धीरे-धीरे कठोर होते गए और बहुविवाह, बाल विवाह, सती प्रथा जैसी कुरीतियाँ जड़ जमाने लगीं। इस दौरान तप और वैराग्य को अधिक महत्त्व मिलने से स्त्री के प्रति उपेक्षणीय दृष्टिकोण प्रबल होने लगा। जो पत्नी अभी तक सहचरी हुआ करती थी, वह अब दासी के तुल्य मानी जाने लगी।50 मैत्रायाणी संहिता ने तो इससे आगे बढ़कर नारी को जुआ और मदिरा के समकक्ष स्थान दे डाला।51 तैत्तिरीय संहिता द्वारा स्त्री को शूद्र से भी निकृष्ट घोषित किया गया।52 पुत्री के जन्म न होने की प्रार्थना करने हेतु विशेष अनुष्ठान किए जाने लगे।53
कमलेश कुमार गुप्ता वैदिक युग को उत्तर वैदिक युग की तुलना में श्रेष्ठ मानते हुये कहते हैं, ‘‘इस युग में (उत्तर वैदिक युग) ‘विष्णु संहिता, ‘पाराशर संहिता’ एवं ‘याज्ञवल्क्य संहिता’ की रचना हुई, जिसमें ‘मनुस्मृति’ को ही व्यवहार की कसौटी मानकर वैदिक नियमों को पूर्ण रूप से तिलांजलि दे दी गयी। भारत में हिन्दू महिलाएँ इस युग में सामाजिक एवं धार्मिक रूप से संकीर्ण विचारधारा का शिकार बनीं। वैदिक काल की ‘गृहलक्ष्मी’, ‘माता’ एवं ‘शक्तिप्रदायिनी देवी’ अब ‘याचिका’, ‘सेविका’ तथा ‘अबला’
के प्रतीक के रूप में दिखाई देने लगी।”54
उत्तर वैदिक काल की स्त्रियों का प्रतिनिधित्व प्रमुख रूप से मैत्रेयी और गार्गी करती हैं। मैत्रेयी याज्ञवल्क्य की पत्नी थीं तथा अमरत्व के सिद्धान्तों की तलाश करने में उनकी विशेष अभिरूचि थी। विदेहराज जनक के दरबार में आयोजित दार्शनिक वाद-संवाद में उन्होंने याज्ञवल्क्य तथा अन्य विद्वानों के समक्ष अपनी विद्वता का परिचय इस प्रकार दिया कि वे स्वयं को विवेचना कर पाने तथा प्रत्युत्तर देने में असमर्थ पाते थे। तब वे उस पर क्रोधित होकर गरज उठते थे, गार्गी, माति प्राक्षीर्मा ते मूद्र्धा न्ययपत (री गार्गी, मुझसे बहुत सवाल पूछेगी, तो तेरा सिर नीचे गिर जायेगा) वृहदारण्यक उपनिषद 3/6/8। जैमिनीय ब्राह्मण में स्त्री जाति को दःुख का मूल बताया गया है, तो शंकराचार्य नारी को ‘नरक का द्वार’ बताते हैं। कौटिल्य की विश्वविश्रुत उक्ति ‘त्रिया चरित्राम् पुरूषस्य भाग्यम्, दैवम् न जानामि कुतो मनुष्यः से आज भला कौन व्यक्ति परिचित नहीं है। चाणक्य नीति के एक अन्य विचार को भी देखें- स्त्रीनाम् सर्वशुभानाम् क्षेत्रम्, स्त्रीषु किंचिदषि न विश्वसेत्। अर्थात् स्त्री स्वयं के लिए शुभ ही क्षेत्र चाहती है, किन्तु वह कभी किसी अन्य स्त्री पर विश्वास नहीं करती।
वायु पुराण में दीर्घतमा ऋषि का प्रसंग आता है, जो स्त्री विमर्श की तत्कालीन दशा को समझने के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जब दीर्घतमा अपनी माँ के गर्भ में थे, तभी उनके चाचा बृहस्पति ने उनकी माँ से पाशविक सम्भोग किया, जिससे वे अन्धे पैदा हुये। वेद एवं वेदांग में पारंगत होने के बावजूद वे ‘गोधर्म’ (पशुओं की भाँति सार्वजनिक रूप से व्यभिचार करना) किया करते थे। उनके समकालीन मुनियों ने उनके इस अनैतिक व्यवहार पर रोष प्रकट करते हुए उन्हें आश्रम से निकल जाने को कहा। इसके पश्चात् उन्होंने प्रद्वेषी नामक युवा एवं सुन्दर ब्राह्मण कन्या के साथ विवाह किया तथा अनेक पुत्र उससे उत्पन्न किए लेकिन बाद में वह भी उनसे घृणा करने लगी। जब उन्होंने पत्नी से इसका कारण पूछा, तो उसने उत्तर दिया, ‘‘पति पत्नी को भोजन देता है, इसलिये परम्परानुसार उसे वत्र्ता (पोषक) कहते हैं, वह पत्नी को आश्रय देता है, इसलिए उसे पति (स्वामी) कहा जाता है, लेकिन आप जन्म से अन्धे होने के कारण मेरा पालन-पोषण कर पाने में असमर्थ हैं, फिर मैं आपसे प्रेमभाव क्यों रखूँ? यह सुनकर ऋषि दीर्घतमा को क्रोध आ गया और उन्होंने क्रोध में उफनते हुये कहा, ‘‘रे मूढ़ स्त्री ! तुझे कितने धन की आवश्यकता है ? चल मुझे किसी क्षत्रिय राजा के पास ले चल। मैं तेरे धन की सारी इच्छा पूर्ण कर दूंगा।” इस पर क्रोध से फुफकारते हुए प्रद्वेषी ने कहा, ‘‘तुम्हारे धन की आवश्यकता नहीं है। तुम्हारा जो जी करे, वह करो, कहीं भी जाओ लेकिन साफ सुन लो, मैं अब तुम्हारा भरण-पोषण नहीं करूंगी। मैं तो अपने और अपने पुत्रों के सुख के लिए दूसरा भत्र्ता कर लूँगी।” यह सुनकर दीर्घतमा व्याकुल होकर पुकार उठा, ‘‘ठहर प्रद्वेषी ! दूसरे पति की बात अब मुँह से न निकालना। मैं आज से संसार में यह सदाचार स्थापित करता हूँ कि स्त्री मरते दम तक एक पति के ही अधीन रहेगी। जो इसका उल्लंघन करेगी, वह पतिता समझी जायेगी।” दीर्घतमा के यह कहने पर प्रद्वेषी और अधिक आगबबूला हो गयी और उसने क्रोध में आकर अपने पुत्रों को आदेश दिया कि वे नेत्रहीन दीर्घतमा को गंगा नदी में बहा आएँ। गौतम आदि पुत्रों ने ऐसा ही किया।
जिस समय दीर्घतमा गंगा की धारा में बहा जा रहा था, तो बलि नाम के राजा गंगा में स्नान कर रहे थे। उन्होंने उसे नदी से निकाल लिया और उनका पूरा परिचय प्राप्त कर लेने के बाद उनसे प्रार्थना की, ‘‘हे महात्मा, आप धर्म को जानने वाले मेधावी पण्डित हैं। मेरी इच्छा है कि आप मेरी रानी के गर्भ से कुछ मेधावी पुत्र उत्पन्न करें। इससे बढ़कर मेरा और अधिक कल्याण आप नहीं कर सकते।” दीर्घतमा ने राजा बलि की बात मान ली, तब राजा ने अपनी रानी सुदेष्णा के पास जाकर अपना मन्तव्य बताया। रानी ने राजा की बात को अस्वीकार नहीं किया लेकिन बूढ़े और अन्धे दीर्घतमा को देखकर उसके मन में उसके प्रति घृणा जाग उठी। वह स्वयं सहवास के लिए नहीं गयी, बल्कि उसने अपनी दासी को दीर्घतमा के पास सहवास हेतु भेज दिया। दीर्घतमा के वीर्य से दासी के गर्भ से कक्षीवान आदि ग्यारह वेदपाठी पुत्र उत्पन्न हुए। जब सभी पुत्र कुछ बड़े हो गए, तब एक दिन राजा बलि ने कौतूहलवश दीर्घतमा से पूछा, ‘‘हे महात्मा ! क्या ये ग्यारह बालक मेरे ही पुत्र हैं ?” दीर्घतमा ने उत्तर दिया, ‘‘ नहीं राजन् ! ये मेरे वीर्य से शूद्र योनि में उत्पन्न बालक हैं। तुम्हारी रानी सुदेष्णा मुझे वृद्ध एवं अन्धा समझकर मेरे साथ सहवास करने नहीं आयी थी। उसने अपनी दासी को भेज दिया था। उसी के गर्भ से मैंने इन बालकों की उत्पत्ति की है, अतः ये तुम्हारे पुत्र न होकर मेरे पुत्र हैं।” यह सुनकर राजा बलि को बहुत दुख हुआ। वे सुदेष्णा के पास गए और उन्होंने फिर उसे दीर्घतमा के द्वारा गर्भधारण के लिए राजी कर लिया। जब सुदेष्णा सहवास के लिए दीर्घतमा के पास पहुंची तो उस अंधे ऋषि ने सुदेष्णा के अंगों को छूकर कहा, ‘‘हे सुन्दरी ! तुम्हारे गर्भ से अंग, बंग, कलिंग, पौण्ड्र और सुह्य नाम के सूर्य के समान पांच तेजस्वी पुत्र पैदा होंगे और वे अपने नाम से एक-एक देश में एक-एक राज्य स्थापित करेंगे।“55
यह कहानी महाभारत के अध्याय 104 के सम्भव उपपर्व में वर्णित है तथा वायु पुराण में 99वें अध्याय में भी आई है। इस कथा में स्त्री विमर्श के कई अर्थान्तर गुंथे हुए हैं। प्रथम, वैदिक व्यवस्था में भी दासी प्रथा थी, दूसरे स्त्री स्वतन्त्रता तथा स्त्री स्वच्छता बनाम स्त्री परतन्त्रता की अनेक गांठें इस कथा में हैं। इस कथा से यह स्पष्ट होता है कि बलात्कार तत्समय भी हुआ करते थे और स्त्री भी आवश्यकता पड़ने पर पति को त्याग सकती थी। इसके अतिरिक्त यौन शुचिता जैसी कोई विचारधारा उस समय नहीं रही होगी, क्योंकि जब एक पति ही अपनी पत्नी को अन्धे एवं वृद्ध ऋषि के पास सम्भोग हेतु भेज सकता है, तो इससे उस समाज की दशा की सुस्पष्ट झांकी मिल जाती है।
आइए, अब उपनिषदों पर विचार करते हैं। वृहादारण्यक उपनिषद में स्त्री-पुरूष ‘जननेन्द्रियों’ को सभी आनन्दों का एकमात्र अधिष्ठान’ बताया गया है- ‘स यथा सर्वसमापां समुद्र एकायतनमेवं सर्वेषां स्पर्शानां त्वगेकायतनमेवं’ 56 इसी ग्रंथ में अन्यत्र कहा गया है कि नाना उपभोगों की रसिक, रति रंग में निपुण, कमल जैसे नेत्रों वाली, प्रियतम से राग बाँधे हुए कामदेव के अभिमान को प्रदीप्त करने के स्वभाव वाली, कोमल रति वाली तीरयुक्त की स्त्री विद्वानों द्वारा ‘समझी’ जानी चाहिये।”57
इससे भी बढ़कर वृहदाराण्यक उपनिषद कहता है कि कामदेव से पीडि़त दीनमुख वाली स्त्री की जो कामना नहीं करता, उसे ब्रह्म हत्या का पाप लगता है।58
स्त्री के सम्बन्ध में मनु द्वारा दी गयी स्थापनाओं को ही अधिकांश पुराणों में स्वीकार किया गया है। अग्नि पुराण (172/9, 227/7, 173/44), हरिवंश पुराण (86/56, 89/79), गरूड़ पुराण (108/13, 111/12, 115/68, 109/48) ब्रह्मवैवत्र्त पुराण (35/77, 25/11) में अनेक स्थलों पर स्त्रियों को पुरूष की ‘व्यक्तिगत् सम्पत्ति’ कहकर सम्बोधित किया गया है या उसे सम्पत्ति का अंश माना गया है और यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि स्त्री की कोई व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं होती।
यही कारण था कि तत्कालीन समाज में विधवा की स्थिति अत्यन्त दयनीय थी। स्कन्द पुराण में उल्लिखित है कि अमंगलों में विधवा सबसे अमंगल है, विधवा दर्शन से सिद्धि नहीं प्राप्त होती और हाथ में लिया गया कार्य सिद्ध नहीं होता। विधवा की आशीर्वादोक्ति को विज्ञजन ग्रहण नहीं करते, मानो वे सर्प विष हों।”59
आज के पुरातनपंथी भारतीय समाज में भी कमोवेश यह मनोवृत्ति काम कर रही है। स्कन्दपुराण में ही विधवाओं का धर्म बताते हुए कहा गया है कि ‘‘विधवा को अपना सिर मुण्डित रखना चाहिये। उसे दिन में केवल एक बार भोजन करना चाहिये, या उसे मास भर उपवास करना चाहिये या उसे चन्द्रायण व्रत करना चाहिये, जो स्त्री पर्यंक पर सोती है, वह पति को नरक में डालती है।60 याज्ञवल्क्य कहते हैं कि पत्नी का कत्र्तव्य है कि वह घर के बरतन उनके उचित स्थान पर रखे, गृहकार्य दक्ष हो, हँसमुख हो, पति के मन के योग्य कार्य करे, श्वसुर-सास के पैर दबाए, सुन्दर ढंग से चले-फिरे और अपनी इन्द्रियों को वश में रखे।61 पद्मपुराण में कहा गया है कि वही स्त्री पतिव्रता है, जो कार्य में दासी की भांति, सम्भोग में अप्सरा जैसी, भोजन देने में माँ की भाँति तथा विपत्ति में मंत्री (अच्छी राय देने वाली) की भूमिका का निर्वहन करे।62 बृहस्पति पतिव्रता को परिभाषित करते हुए बताते हैं कि वही स्त्री पतिव्रता है, जो पति के आत्र्त होने पर आत्र्त होती है, प्रसन्न होने पर प्रसन्न होती है, पति के विदेश गमन पर मलिन वेश धारण करती है और दुर्बल हो जाती है एवं पति के मरने पर मर जाती है।63 पत्नी का कत्र्तव्य समझाते हुए बृहस्पति कहते हैं कि स्त्री को अपने पति एवं गुरूजनों से पूर्व ही सोकर उठ जाना चाहिये, उनके खा लेने के पश्चात् ही भोजन या व्यंजन लेना चाहिये तथा उनसे नीचे आसन पर बैठना चाहिये।64 स्कन्दपुराण कहती है कि पत्नी को पति के नाम का उच्चारण नहीं करना चाहिये, उसे परपुरूष का भी नामोच्चारण नहीं करना चाहिये, भले ही पति उसे उच्च स्वर में अपराधी क्यों न सिद्ध कर रहा हो, पीटे जाने पर उसे जोर से रोना नहीं चाहिए। उसे हंसमुख बने रहना चाहिये।65व्यास का अभिमत है कि पति की मृत्यु के अनन्तर पत्नी को पति का शव गोद में लेकर अग्नि प्रवेश करना चाहिये। यदि वह जीवित रहती सती नहीं होती, तो उसे व्यक्त केश होकर तप से अपने शरीर को सुखा देना चाहिये।66
आइए अब पौराणिक काल की पाँच महान स्त्रियों पर भी विचार कर लें। अहिल्या, द्रौपदी, तारा, कुंती तथा मंदोदरी इन पाँच स्त्रियों को किसी न किसी स्तर पर अपमान एवं तिरस्कार का सामना करना पड़ा है। इन्द्र द्वारा अहिल्या से व्यभिचार करना, द्रौपदी का पांच पतियों के साथ जीवन निर्वाह करने को अभिशप्त होना, तारा का पति बालि की मृत्यु के पश्चात् देवर सुग्रीव की उपपत्नी बनकर रहना तथा मंदोदरी पति को राम से युद्ध न करने हेतु शतरंज खेल का आविष्कार कर उसे उसमें रमाना चाहती है, परन्तु सफल नहीं हो पाती और रावण की मृत्यु के पश्चात् विभीषण की पत्नी बनकर रहने लगती हैं। हिन्दू समाज इन पाँचों स्त्रियों को नित्य स्मरणीय तो कहता है, परन्तु उनके गुणों की प्रशंसा होने के बावजूद उनका उद्धार पुरूष (अहिल्या का राम, द्रौपदी का कृष्ण) करते हैं। इनमें से अधिकांश को बहिष्कृत, अपमानित एवं अनिच्छापूर्वक दूसरों के साथ संसर्ग करने या विवाह करने को विवश किया जाता है। इनके अलावा सत्यवती, सीता, पार्वती, सावित्री, दमयंती, शुभ्रू, सुदेष्णा, उर्वशी आदि स्त्रियों की भी कमोबेश यही स्थिति है। ‘‘भारतीय संस्कृति की द्योतक चरित्र सीता को भी अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ता है। पतिनिष्ठा को एकमात्र माडल गुण के रूप में भारतीय स्त्री के समक्ष रखा गया है, मैत्रेयी की ज्ञान पिपासा को स्थान नहीं।”67
मत्स्य पुराण में ‘अनंग व्रत’ का उल्लेख आता है। इसके अनुसार ‘‘देवों तथा असुरों के बीच हुए युद्ध में असुरों के पराजित होने के बाद उनकी हजारों पत्नियों तथा विधवाओं को सम्बोधित करते हुए इन्द्र कहते हैं कि अब तुम सबको गणिका की भूमिका निभानी है और ‘नृप मन्दिर’ में निवास करना है। पिता अथवा पुत्र जो भी चाहे, वह पैसा देकर तुमसे यौन सन्तुष्टि प्राप्त कर सकता हे। ओ अनिन्द्य सुन्दरियों ! तुम्हें सदैव ब्राह्मणों की सलाह माननी होगी। अब मैं तुम्हें एक व्रत के विषय में बता रहा हूँ, जो तुम्हें तुम्हारे सभी कष्टों से मुक्ति दिला देगा। यदि कोई रविवार पुण्य अथवा पुनर्वसु नक्षत्र में पड़े, तो उस दिन तुम स्त्रियों को सुगंधित जल से स्नान करने के पश्चात् मदन देव की प्रतिमा के समक्ष इस मंत्र का जाप करना होगा-
कामाय मोहकारिणे कन्दर्प निधये प्रीतिमते सौख्य समुद्राय,
रामाय हृदयेशाय आह्लादकारिणे पुष्पचापाय पुष्पबाणाम
मानसाय विलोलाय सर्वात्मने नमःI
इसके पश्चात् प्रत्येक स्त्री को चाहिये कि वह एक वेदपाठी ब्राह्मण को ससम्मान सुगंधित पुष्प इत्यादि भेंट करें और अक्षत, मक्खन, पर्याप्त मात्रा में पकवान आदि प्रदान करें और कहें कि इसके द्वारा मैं माधव (भगवान विष्णु) को प्रसन्न करना चाहती हूँ। इसके पश्चात् उसे भोजन कराकर उस पवित्र पुरूष के समक्ष स्वयं को बिना कोई शर्त लगाए सौंप दे। ऐसा करने से इस व्रत का प्रथम चरण पूर्ण होगा। इस व्रत के नियमों को तेरह महीनों तक नियमपूर्वक करने पर ही इसे सम्पूर्ण माना जाएगा। इसके बाद भी यदि कोई ब्राह्मण किसी भी रविवार को घर पर पधारे तो तुम्हें उसकी कामाग्नि शान्त करनी चाहिये। जो स्त्री ऐसा करेगी वह सीधे माधव लोक (विष्णु लोक) में जाएगी और देवता उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करेंगे।”68
पुराणों में व्रतों, तीर्थों तथा कुछ पवित्र नदियों के जल से स्नान की महिमा के पीछे कुछ अन्य कारण भी रहे हैं, जो पुरोहितों द्वारा गढ़े गए ताकि ब्राह्मणों को पाप करने के बाद भी दोषमुक्त रखा जा सके। माता-पुत्र69 अथवा बहन-भाई70 के बीच पनपे अवैध सम्बन्धों के पापों को धोने के लिए उन्होंने पुरोहितों को भारी-भरकम दक्षिणा देने तथा यमुना एवं गोदावरी नदी में स्नान करके पापमुक्त हो जाने का प्रावधान किया और इससे उन्होंने गन्दे रूमाल को पानी में धोकर साफ कर लेने की भाँति आसान व्यवस्था अपने कुकर्मों को छुपाने एवं दोषमुक्त होने के लिए कर ली।71
य़द्यपि अग्निपुराण में कुछ दण्डात्मक प्रावधान भी रखे गए हैं। यह पुराण कहती है कि यदि कोई व्यक्ति
किसी अन्य स्त्री के नीबी बन्धन को जानबूझकर खोलने का प्रयास करता है, वक्ष स्थल के ऊपर की कंचुकी को खोलने का प्रयास करता है या उसके नाभि के नीचे के वस्त्रों को उतारने की चेष्टा करता है या अकेले में उससे भीड़-भरे अथवा अंधेरे स्थान पर बात करने की चेष्टा करता है, तो उस पुरूष तथा स्त्री दोनों में से प्रत्येक को 200 पण का दण्ड देना होगा।72 लेकिन कोई व्यक्ति यदि किसी वेश्या के साथ दिल्लगी करता है तो उसके लिए बहुत कम दण्ड का प्रावधान था। दूसरी ओर यदि कोई व्यक्ति यदि अपनी नौकरानी अथवा साध्वी का शीलभंग करने का प्रयास करता था तो उसके लिए मृत्युदण्ड का प्रावधान था, लेकिन यदि परस्पर सहमति के पश्चात् सम्भोग हुआ हो तो भी पुरूष पर भारी जुर्माना लगाया जाता था और महिला को छोड़ दिया जाता था।73
पुराणों में स्त्रियों की कोटियाँ वर्णित हैं। ब्रह्मवैवत्र्त पुराण के अनुसार अपने पति के प्रति तन-मन से निष्ठा रखने वाली स्त्री ‘पतिव्रता’ कहलाती है, जबकि दो पतियों (अथवा यारों) के साथ निष्ठा रखने वाली ‘कुलटा’ होती है, और तीन के साथ सम्बन्ध रखने वाली धर्शिनी कहलाती है, जबकि चार के साथ सम्भोग करने वाली ‘पुंश्चली’ और पांच या पांच से अधिक पुरूषों से शारीरिक सम्बन्ध रखने वाली ‘महावैश्या’ कहलाती है। यदि कोई व्यक्ति इनमें से पतिव्रता को छोड़कर अन्य के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाता था तो उसके लिए विभिन्न प्रकार के दण्डों का प्रावधान था।74 इसी प्रकार गरूड़ पुराण के छठवें अध्याय में भी स्त्रियों की कोटि का वर्णन करते हुए उन्हें हर प्रकार से हीन माना गया है। गरूड़पुराणकार ने एक वेश्या के जीवन के स्याह पक्षों को ध्यानपूर्वक विश्लेषित किया है। वह स्पष्ट बताता है कि एक वेश्या की निद्रा दूसरे व्यक्ति के ऊपर निर्भर होती है, उसे दूसरों की पसन्द-नापसन्द पर संचालित होना पड़ता है, दुखी होने के बावजूद होठों पर सदैव मुस्कान लपेटे रखना पड़ता है, उसे हरेक व्यक्ति को अपना शरीर सौंप देना पड़ता है और अपनी इच्छाओं को मारना पड़ता है। शायद अंत में उन्हें किसी दुष्ट आगंतुक के आने पर मृत्यु का वरण करना पड़ता है।75
हालांकि मत्स्य पुराण में शुभ सूचकों में वेश्या दर्शन को भी स्थान दिया गया है। दक्षिण भारत में आज भी नव वधू के हाथों में जो मंगलसूत्रम् बांधा जाता है, वह वेश्या के हाथों से निर्मित होता है। इसी प्रकार पूर्वी भारत विशेषकर बंगाल में माँ दुर्गा की प्रतिमा बनाने के लिए वेश्या के घर की मुट्ठी भर मिट्टी मिलाना आवश्यक होता है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में हिन्दू कत्र्तव्यों की चर्चा करते हुए कहा है कि यदि कोई वेश्या वृद्ध हो जाती है और उसे वेश्यावृत्ति से विरत होना पड़ता है तो उसे परिचारिका, रसोइया अथवा रानी की दासी बनाया जा सकता है।76 विष्णु संहिता कहती है कि वेश्या को भ्रमण कराना एक पवित्र प्रथा है।77
रामायण काल तक आते-आते स्त्रियों की स्थिति और अधिक शोचनीय हो गयी थी। सीता के अग्निपरीक्षा सम्बन्धी वृत्तान्त से हम सभी भली-भांति अवगत हैं, किन्तु एस0एन0 सिन्हा एवं एन0के0 वसु ने अपनी पुस्तक ‘वोमेन इन एन्शिएन्ट इण्डिया’ में
कुछ अछूते एवं रोचक वृत्तान्त वर्णित किए हैं, जिनमें हम पाते हैं कि अयोध्या नरेश दशरथ ने अपने ज्येष्ठ पुत्र राम के लिए एक श्रेष्ठ सेना की टुकड़ी तैयार करने का आदेश देते हुए कहा था कि जिन स्त्रियों की जीविका उनकी सुन्दरता पर निर्भर है, जो मृदुभाषी हैं, उन्हें राजकुमार की सेना को प्रसन्न करना होगा। इसके पश्चात् जब युवराज राम का राज्याभिषेक होने जा रहा था, उससे पूर्व वशिष्ठ ने नगर को सुसज्जित करने तथा राजमहल की सुन्दर महिलाओं को युवराज के स्वागत में खड़े होने को कहा था। किन्तु दुर्भाग्यवश राम को बनवास जाना पड़ा और चौदह वर्ष के बनवास के पश्चात् जब राम अयोध्या वापस आने लगे, तो उन्होंने इसकी सूचना भरत तक पहुंचाने के लिए हनुमान को भेजा। हनुमान से राम के अयोध्या लौटने की खबर सुनकर हर्षातिरेक में भरत ने कहा कि चूँकि हनुमान राम के अयोध्या आगमन का शुभ समाचार लेकर आए हैं, अतः उन्हें श्रेष्ठ कुलों की सुन्दर मुखों वाली, सुन्दर देह वाली, सुन्दर वक्ष वाली, चौड़े नितम्बों से युक्त, पतली जंघाओं वाली एवं सुन्दर आभूषणों से युक्त सोलह स्त्रियां पत्नी रूप में भेंट की जाएं।78
वे आगे लिखते हैं कि जब भरत राम की अगवानी करने के लिए अपनी भारी-भरकम सेना के साथ ऋषि भारद्वाज के आश्रम पहुंचे, तो भारद्वाज ऋषि ने अपने तपोबल से सभी सैनिकों को दुराचार में प्रवृत्त कर दिया। ऋषि भारद्वाज ने इन्द्र के स्वर्ग से सभी अप्सराओं को बुलवा लिया, ब्रह्मा ने सत्तर हजार सुन्दर मोहिनी स्त्रियों को भेजा तो कुबेर ने नब्बै हजार रमणियों को भेजा, स्वयं इन्द्र ने बीस हजार स्त्रियां इन सैनिकों के मनोरंजन के लिए भेजीं। ऋषि भारद्वाज ने वन की लताओं को भी अपने तप के तेज से स्त्रियों में परिवर्तित कर दिया। प्रत्येक सैनिक के (जो प्रायः विवाहित थे) स्नान के दौरान सात या आठ मनमोहक रमणियों ने उन्हें प्रसन्न किया और इसके पश्चात् उन्हें स्वादिष्ट भोजन एवं पेय दिया तथा उन्हें सभी प्रकार का विषय सुख प्रदान किया। इसके पश्चात् उन सैनिकों ने नाचते हुए कहा कि हे भरत ! हम तो यहीं रहेंगे, क्योंकि यही स्वर्ग है।79