Sunday, June 29, 2014

जूठन की कथावस्तु तथा कल और आज का समाज- विपिन कुमार पाण्डेय

 “जूठन”- एक दलित की आत्म व्यथा-कथा और सामजिक सारोकार
-----------------------------------------------------------------------



    बचपन से ही यह सुनता आ रहा हूँ की साहित्य समाज का दर्पण है,यानी किसी समय के साहित्य द्वारा किसी काल विशेष के समाज को जाना, समझा जा सकता है. इसी क्रम में मैंने दिसम्बर महीने में एक पुस्तक पढ़ी जूठन जिसके लेखक ओंम प्रसाद वाल्मीकि जी है. अपने स्नातक काल में ही मैंने इस पुस्तक के बारे में काफी कुछ सुना था,कि यह दलित साहित्य की प्रथम आत्मकथा है जिसमे की दलितों के जीवन का असल चित्रण किया गया है. यह इस पुस्तक की विशेषता ही है की जब मैंने इस पुस्तक को पढना शुरू किया तो पुस्तक खत्म होने तक पढना न रोक सका. पुस्तक पठन के दौरान कभी हँसा, कभी रोया, कभी विचार किया, कभी उस समय के बारे में सोचा और फिर आज के समय से तुलना करनी चाही, और जब तुलना की तो पता चला की भले ही पुस्तक का घटना क्रम पुराना है, पर उसमे लिखी कुछ बाते आज के सन्दर्भ में भी सही है.
जूठन जिस मनोस्थिति में लिखा गया है, अथवा जिस तरह की विषयवस्तु इसकी है इसकी प्रासंगिकता कल कितनी थी और आज कितनी है इन सब बातो पर गौर करने से पहले हमें इसके लेखक वाल्मीकि जी के जीवन चरित पर नजर डालनी होगी.

लेखक का जीवन परिचय- आजादी के महज 3 वर्षो बाद जून की तपती दोपहरी में 30 तारीख को उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में इनका जन्म हुआ था. वैसे ये भी जन्मे तो हर साधारण बालक की तरह ही थे, पर समाज के अन्त्यज वर्ग में पैदा होने के कारण शायद इनको वे सुख सुविधाए नहीं मिली जो और किसी बालक को मिलनी चाहिए थी.

आज भी जिस शब्द को  उच्च वर्ण के लोग गाली की तरह उपयोग करते है (भंगी या चूहड़ा) ऐसे वर्ण या जाति में इनका जन्म हुआ था. इस वर्ण में पैदा होना ही उस समय भारत देश में सबसे बड़ी गलती मानी जाती थी.

भले ही अम्बेडकर के सुधारवादी नारे, और गाँधी के हरिजन सुधार के नारे फिजा से पूरी तरह गायब नहीं हुए थे पर फिर भी इन नारों और आंदोलनों का मखौल पुरे देश में उड़ाया जा रहा था. दलित परिवार के लोगो को आदमी नहीं समझा जाता था. वाल्मीकि जी ने हिंदी साहित्य से परास्नातक की उपाधि ली और साहित्य सेवा में लग गए. पुरे जीवन भर दलित साहित्य की रचना के द्वारा दलितों का उद्धार करने का प्रयास किया, अनेको नाटक, उपन्यास,कहानियाँ आदि इनकी जिजीविषा की कहानी कहते नजर आते है. अभी विगत वर्ष में नवम्बर महीने में इनका देहावसान हो गया.

जूठन की कथावस्तु तथा कल और आज का समाज- पहले पहल तो पुस्तक का शीर्षक ही काफी चौकाने और सोचने वाला है. काफी लोगो ने विचार किया की आखिर जूठन कैसा नाम है. पर इस नाम को रखने के पीछे लेखक का जो दर्द छिपा हुआ है उसे उन्होंने बताते हुए अपने बचपन के दिनों को याद किया है.बचपन के दिनों को बताते हुए वे कहते है की कैसे उनकी माता और पिता दोनों हाड़तोड़ मेहनत करते थे पर उसके बाद भी दोनों समय निवाला मिलना दुष्कर कार्य था, उनकी माता कई तथाकथित ऊँचे घरो में झाड़ू पोछे का काम करती थी और बदले में मिलता था उन्हें रुखी सुखी रोटियाँ जो जानवरों के भी खाने लायक नहीं होती थी, उसी को खाकर गुजारा करना पड़ता था. ऐसे समय में जब किसी सवर्ण के घर बारात आती थी या उत्सव का कोई अवसर आता था तो उस क्षेत्र के सारे दलित खुश हो जाते थे, क्यूँकी भोजन के बाद फेके जाने वाले पत्तलों को उठाकर वे घर ले जाते और उनके जूठन को एकत्र करके कई दिनों तक खाने के काम में लाते, इस घृणित कार्य के बाद भी पेट की भूख शांत होने पर उन्हें थोड़े समय के लिए ख़ुशी ही मिलती थी.

उपरोक्त विवरण को जब मै पढ़ रहा था तो मुझे अपने जीवन के कुछ प्रसंग अनायस याद आ गए, जैसे मेरी दादी कहा करती थी की उनके बचपन में गाँव के चमार(शायद गाँधी जी द्वारा निर्मित हरिजन शब्द से उनका पाला न पड़ा था) जब खेती कट जाती थी और बैलो के द्वारा अनाज को भूसे से अलग किया जाता था, ऐसे में बैल जो गोबर करते थे उन्हें अपने घर ले जाते थे उसमे से खड़े अनाज निकालकर और धोकर उसे खाते थे.मुझे ये बाते बड़ी खराब लगती थी और उस समय  कुछ समझ में भी नहीं आता था साथ में यह बाते अमानवीय लगती थी.

  या जब मेरे किसी रिश्तेदारी में कोई उत्सव होता था तो उत्सव के उपरान्त आस-पास के सारे दलित एकत्र होकर बचा खाना लेने आते थे, उनके चेहरे पर जो ख़ुशी या ऐसी ही कोई भावना जब उभरती थी तो मेरी समझ में नहीं आता था की ये क्या है.

  ऐसे ही वाल्मीकि जी जब अपने स्कूल की बात बताते है की कैसे सवर्ण अध्यापक उन्हें बात ही बात में मारते थे, या कहते थे की भंगी या चमारो के लड़के पढ़ नहीं सकते क्यूँकी इनका जन्म पढने के लिए नहीं हुआ है,मुझे पढ़ के बड़ा आश्चर्य हुआ की या बात 1960 के दशक की है पर इसके लक्षण आज भी हर जगह दिख जाते है. जैसे की कुछ बाते जो मैंने देखी है याद आ रहीं हैं, मेरे मामा जी एक जूनियर हाई स्कूल में अध्यापक है, स्कूल ऐसी जगह है जहाँ पर दलितों के बच्चे ज्यादा पढने आते है, ऐसे में मेरे मामा जी बच्चो को पढ़ाते ही नहीं है, आज से करीबन 3 साल पहले जब मैंने उनसे पूछा था की आप पढ़ते क्यूँ नहीं हो तो उन्होंने दलितों को गाली देते हुए कहा था की ये पढ़ लेंगे तो हम लोगो के खेतो का काम कौन करेगा.ऐसा ही एक और वाकया अपने स्नातक के दिनों का याद आ रहा है, हम लोग विश्विद्यालय द्वारा आयोजित वाद-विवाद प्रतियोगिता में सहभागिता कर रहे थे मेरे साथ मेरे मित्रो में शुमार मेरे एक दलित मित्र जो आजकल शोध कर रहे है भी प्रतियोगिता में थे, उन्होंने मुझसे अच्छा बोला था और मुझे लगता था की प्रथम स्थान उन्ही का होगा और मेरा दूसरा होगा,पर जब परिणाम आया तो मै पहले स्थान पर था और वह दुसरे स्थान पर, इस बात का उन्हें काफी दिनों तक दुःख रहा, या आज जब मै राजस्थान के बाड़मेर जिले के किसी भी स्कूल में जाता हूँ तो अक्सर अध्यापक यह कहते नजर आते हैकि ये भीलो के बच्चे, मेघवालों के बच्चे पढ़ नहीं सकते. अब मेरे दिमाग में यह प्रश्न आ रहा है की क्या हमने सच में विकास कर लिया  है, हमारा संविधान भी कहता है की हम सब बराबर है और जातिगत आधार पर किसी को कमतर नहीं समझा जा सकता है. आज हम कथित रूप से 21वि सदी में आ गए है, पुरे विश्व में महाशक्ति के रूप में हमे मान्यता मिल रही है, मानवाधिकारों का झंडा बुलंद करने में हम सबसे आगे रहते है, गांधी , अम्बेडकर की विचारधाराओं का प्रचार कर रहे है, वही यह सब भी देखने को मिल रहा हैं.आज भी केवल ब्राह्मण खानदान में पैदा होने के कारण मुझसे उम्र में कई गुना बड़े लोग मुझे प्रणाम करते है, आदर देते है ऐसा क्यूँ होता है मुझे समझ में नहीं आता.

ऐसे ही एक जगह लेखक ने अपने प्रेम संबंधो का जिक्र करते हुए लिखा है की कैसे उनके दलित होने के चलते उन्हें अपने प्रेम की तिलांजलि देनी पड़ी क्यूँकी उन्होंने एक सवर्ण लड़की से प्रेम किया था. और कैसे एक सुसंस्कृत परिवार में उनको तब लज्जित होना पड़ा जब उस परिवार वालो को ये पता चला की ये दलित है, यद्दपि की इसके पहले उनके मध्य काफी घनिष्ठ सम्बन्ध थे.

एक और बात जो उन्होंने लिखी है और जो आज के संदर्भ में भी कही न कही गौरतलब है वह यह की कैसे अगर कुछ दलित आगे मुख्यधारा में शामिल भी हो जाते है तो कैसे समाज उनका बहिष्कार करता है.अपने एक मित्र की बात बताते हुए कहते है की कैसे उसके अधिकारी होने पर भी उसे अपने सहयोगियों से अपमान मिलता था. ऐसी कई बाते आज भी देखने को मिल जाती है, जैसे की मेरे मुहल्ले में एक सरकारी विद्यालय है जिसके प्रधानाध्यापक एक दलित हैं और चपरासी एक सवर्ण है, पर प्रधानाध्यापक साहब की मजाल नहीं की वे चपरासी से कहकर कुछ काम करवा सके, या ऐसे ही हमारी सहयोगी गीतिका भंडारी ने बताया की कैसे उनके मुहल्ले में एक दलित के घर कोई नहीं जाता जबकि दोनों पति-पत्नी भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में कार्यरत है. मैंने एक नियम पढ़ा था की जिसकी सत्ता होती है उसका वर्चस्व होता है, पर यहाँ तो इसका  उल्टा दिखायी देता है, सत्ता और शक्ति के होते हुए भी क्या कारण है ही ऐसे लोगो को समाज वह सम्मान नहीं देता जिसके वे हकदार है इस बात पर आज विचार करने की आवश्यकता है.

ऐसे ही उनके जीवन में कई परेशानियाँ और चुनौतियाँ आई जिसमे से कई तो उनके अपनों ने खुद खड़ी की जैसे की नाम बदल लेने की कवायद या फिर सरनेम हटा लेने की बात.उनके कई परिचितों और रिश्तेदारों ने अपने उपनाम हटा लिए थे और वाल्मीकि जी को भी यही सलाह देते थे, खुद उनकी पत्नी भी उनसे कई बार कह चुकी थी, वाल्मीकि जी का यह मानना था की जिस चीज़ से उनकी पहचान जुडी है उसे भला कैसे बदल ले, और इसी कारण वे ताउम्र अपने नाम को अपने साथ लिए चलते रहे भले ही उसके चलते उन्हें लाखो परेशानियाँ आई हो.

अब आज के ज़माने में एक नया चलन चला है की कई लोग अपने नाम के आगे अपना सर नेम नहीं लगाते, मुझे लगता है इस बात के पीछे कहीं न कहीं अपनी पहचान छुपाने की बात होती है, जिससे की उन्हें समाज में मिलने वाले अपमान से निजात मिल सके, हो सकता है इसके पीछे और भी कई कारण हो पर शायद सबसे प्रमुख कारणों में से एक यह भी जरुर है.

ऐसी ही और भी बाते है जो लेखक ने की है और विचार शक्ति को उद्वेलित किया है. आज जूठन पढने के बाद और आज के समाज से तुलना करने बाद यह बात एकदम दिख रही है की हम चाहे लाख नारेबाजी कर ले, झूठा स्वांग कर ले, मानव की समानता की बात कर ले पर हम अभी सदियों पहले की सोच को ही अपने अंतर्मन में जिन्दा रखे हुए है, तभी तो आज राजस्थान के किसी विद्यालय का प्राचार्य सिर्फ इसलिए हम लोगो के साथ बैठ के नहीं खाता की उस खाने को किसी तथाकथित छोटी जाति के बच्चे द्वारा परोसा गया है, या फिर मकान किराये पर देने से पहले उसकी जाती पूछी जाति है, या उत्तर प्रदेश में एक दलित नेत्री के शासन काल में उसी को गाली दी जाती है महज इसलिए की वो दलित है और फिकरा कसा जाता है की नीच और निम्बू की जितना दबाया जाये उतना रस निकलता है.

आज हमें यह विचार करने की महती आवश्यकता है की हम कहाँ जा रहे, और हमें कैसा समाज चाहिए या फिर इसे कैसे बदला जाए अगर ऐसा नहीं होगा तो फिर कोई लेखक जूठन जैसी पुस्तक   लिखने को मजबूर होगा, फिर किसी को अपमानित होकर अपना नाम बदलना पड़ेगा और हम जैसे लोग बैठे-बैठे ऐसे ही किताब को पढ़कर उनपर विचार करते रहेंगे.



















नाम - विपिन कुमार पाण्डेय 
जन्म स्थान- गोरखपुर , उत्तर प्रदेश 
 वर्तमान में राजस्थान के बाड़मेर जिले में , अजीम प्रेमजी फाउंडेशन में कार्यरत  (शिक्षक प्रशिक्षण का कार्य)
कविता लेखन , और पुस्तक पठन में रूचि.

मो.-9799498911

फेसबुक लिंक - https://www.facebook.com/bipin.pandey.9678?ref=tn_tnmn

Tuesday, June 24, 2014

गंगा दशहरा,गाँव की यादें - सोनरूपा विशाल

 गंगा दशहरा,गाँव की यादें - सोनरूपा विशाल  

-------------------------------------------------------

बुजुर्गों की दुआओं का जो हम पर शामियाना है
बहुत महफूज उसमें ज़िन्दगी का ताना - बाना है

ये बच्चे, ये मकाँ, ये मालो-दौलत सब हैं मुट्ठी में
मगर मिट्टी ही  आखिर में  तेरा - मेरा ठिकाना है

- सोनरूपा विशाल









 सोत नदी के नाम पर
-------------------------------
सोत नदी ठहरी है अब भी अपने उसी मुक़ाम पर लोगों ने गोदाम भर लिए सोत नदी के नाम पर
पुल बनवाने का वादा कर वोट ले गए जो इससे पटरी तक बनवा न सके वो कहे व्यथा अपनी किससे
कबसे ये ख़ामोश पड़ी है रखे भरोसा राम पर |
सपनीली आँखों सी इसकी पड़ी रहीं ख़ाली सीपें उनके मोती चुरा ले गयीं सारी सरकारी जीपें
इसके शंख मुफ़्त में लेकर बेचे महँगे दाम पर |
इसके पानी तक को सोखा  
थानों ने तहसीलों ने 
- डॉ उर्मिलेश




आज गंगा दशहरा है , हमारे शहर बदायूँ से २६ किलोमीटर दूर गंगा के किनारे बसे क़स्बे ‘कछला’ में आज के दिन छोटा सा मेला लगता है ,सुबह अख़बार में मेले में मिलने वाले सामान,विशेषकर लकड़ी के गढ़ोलने बेचते हुए दुकानदारों का फोटो चस्पा था,उसे देख कर मैंने बच्चों को दिखाया और बताया कि’तुम्हारी मम्मा ने इसको पकड़कर चलना सीखा था’ दोनों मुस्कुराये और बोले अच्छा!! फिर वन टू थ्री …..गॉन!

एक और ख़बर थी कि हमारे गाँव भतरी गोवर्धनपुर से होकर निकली सदानीरा नदी ’सोत नदी’ आज इतनी बदहाल और शुष्क हो चुकी है कि उस नदी को अब नाव से नहीं पैदल पार किया जा सकता है !ये ख़बरें कोई नई नहीं थीं लेकिन न जाने आज क्यों लगा जिस तरह सोत नदी का अस्तित्व मिट रहा है उसी तरह एक दिन इन से जुड़ी मेरी यादों का भी यही हश्र न हो !

थोड़ी फ़ुर्सत है आज ,इसीलिए शायद याद भी आ गया कि मेरे पास एक अद्रश्य अलमारी है जिसमें एक छोटा सा,प्यारा सा पर्स है और उसमें कई तरह की

रंगबिरंगी,खट्टी मीठी टॉफियाँ हैं ,जब मन करता है तब उसमें से कुछ टॉफियाँ का स्वाद लेती हूँ फिर दोबारा पर्स में रख देती हूँ , मेरी ये टॉफियाँ कभी ख़त्म नहीं होतीं ,ये टॉफियाँ जादुई हैं क्यों कि मेरे बचपन के कई सारे हिस्सों की उपमायें हैं जिनके रंग,ढंग,स्वाद सब अलग-अलग हैं !

बचपन का चैप्टर क्लोज हुए अर्सा हो गया है लेकिन ये सच्चाई है कि ज़िन्दगी का हर हिस्सा हमेशा खुशनुमा नहीं होता इसीलिए बैलेंस बनाये रखने के लिए ज़िन्दगी के हर हिस्से की अच्छी अच्छी बातों,यादों,अनुभवों को दिल के चार कोष्ठकों में कहीं न कहीं संजो कर रखना बहुत ज़रूरी होता है ! यही ज़रुरत आज मुझे बचपन के कुछ वाक़ये लिखने का इशारा कर रही है ,मेरी समझ से ऐसी ज़रूरतों की अवहेलना नहीं की जानी चाहिए !क्या मालूम आज यादें मजबूत हैं कल शायद कमज़ोर हो जाएँ ....अब क्यों कि बचपन के भी कई चैप्टर्स होते हैं तो क्या लिखा जाये,कहाँ से लिखा जाये ये भी बड़ी समस्या है,चूँकि समस्या की वजह से ही समाधान शब्द अस्तित्व में है ,इसीलिए इस समस्या का समाधान ये है कि मैं बस लिखना शुरू कर रही हूँ फिर ये यादों की नदी जहाँ चाहे वहाँ बहे,मैं रोकने वाली नहीं हूँ और वैसे भी यादें बड़ी ज़िद्दी होती हैं वो सुनती ही किसकी हैं?


मेरे बच्चों की गर्मियों की छुट्टियाँ शुरू हो गयी हैं ,रोज़ जान आफ़त में रहती है ‘मम्मा कहाँ चल रही हो छुट्टी में ? लेकिन इस बार की भीषण गर्मी देख कर बिलकुल मन नहीं कर रहा कि घर से बाहर जाया जाये |मेरे बच्चों की तरह मेरी भी ये समस्या थी कि मेरी नानी का घर भी एक ही शहर में था इसीलिए गर्मियों की छुट्टियों में नानी के घर जाने वाला ऑप्शन मेरे बच्चों के लिए और बचपन में मेरे लिए भी कुछ ख़ास क्रेज़ नहीं रखता था, पापा गाँव से थे लेकिन जबसे होश संभाला तब से हमने यही देखा की पापा कॉलेज और कवि सम्मेलनों की वजह से कभी-कभी ही गाँव जा पाते थे, दादी-बाबा ही अक्सर बदायूँ आ जाते थे, बाबा जी एक प्राइमरी स्कूल में हेड मास्टर थे ,गाँव में ज़मीन बटाई पर दे रखी थी इसीलिए खेती की कोई चिंता नहीं थी|गर्मियों में जब बाबा जी घर आते तो सबसे पहले एक जग भर कर बहुत तेज़ मीठा रूह अफज़ा पीते फिर थोड़ी देर सुस्ताने के बाद हम बच्चों को पास बिठा कर पूछते की बताओ विद्यालय में क्या नया सीखा ? मुझे परेशान करने के लिए पूछते की बताओ अमरुद को इंग्लिश में क्या कहते हैं मैं कहती ‘गुआवा’ तो कहते नहीं ‘बिलकुल ग़लत अमरुद को सपड़ी कहते हैं (यहाँ गाँव में अमरुद को सपड़ी कहा करते हैं) मैं चिढ़ जाती,मेरे ट्यूटर से कहते ‘मास्साब क्या पढ़ा रहे हो अमरुद को ये बच्ची ‘गुआवा’ कह रही है’ वो हँसने लगते थे ,मेरे टीचर की आदत थी जब मैं कोई ग़लती करती थी तो वो सीधे मेरे सिर पर मारते थे मुझे बहुत गुस्सा आता था , वो फिर न मारें इसके लिए जैसे ही वो मुझे मारने के लिए हाथ उठाते थे मैं इंकपैन का नोंक वाला हिस्सा ऊपर कर देती थी और वो नोंक उनके हाथ में चुभते ही वो तिलमिला के रह जाते कहते और मैं मन ही मन मंद-मंद मुस्कुराती थी अपनी विजय पर ,आज भी वो अक्सर टहलते हुए मिल जाते हैं मुझे ,वो शायद भूल गए हों लेकिन उन्हें देख कर मुझे मेरी ये शैतानी याद आ जाती है |

हमारे घर अक्सर गाँव से लोग आ जाया करते थे ,चूँकि पापा प्रोफ़ेसर होने के साथ-साथ देश के जाने माने कवि थे,सब उन्हें बहुत सम्मान देते थे गाँव के सबसे सयाने और लायक सपूत थे ,वो सिर्फ़ ‘पंडित भूप राम शर्मा’( मेरे बाबा जी )के पुत्र नहीं थे वो सबके लिए बेटे जैसे थे,ये अपनापन भी कितना अनमोल होता है न | गाँव के लोगों को जब भी कोई परेशानी होती तो सबसे पहले वो पापा को याद करते,हमारे घर में हर अतिथि सम्मानीय था |मेरी दादी को बड़ा सुकून मिलता था जब कोई उनके बेटे की बड़ाई करता गाँव वाले कहते थे कि’उर्मिलेश तो हमारी ढाल हैं हमें किसी बात की चिंता नहीं है हमें पता है हमारा उर्मिलेश हमें कोई परेशानी नहीं होने देगा”|वो ज़्यादा पढ़ी लिखी तो नहीं थीं लेकिन रामायण की चौपाइयाँ बहुत मन से पढ़तीं |

आये दिन तो उनके व्रत हुआ करते थे ,दान पुण्य करने में सबसे आगे रहतीं थीं ,ज़रा-ज़रा सी बात पर प्रसाद बोल देती थीं ‘कि भगवान ये मनो कामना पूरी हो तो मैं प्रसाद चढ़ाऊँगी’ |हमारे घर में लोगों का, रिश्तेदारों का आना जाना अक्सर लगा रहता था लेकिन मैंने अपनी मम्मी के चेहरे पर कभी शिकन नहीं देखी,बिलकुल मेरी नानी जी की तरह,मेरी नानी को मैंने शायद ही कभी टेंशन में देखा हो वो हर वक़्त मुस्कुराती रहती हैं,कभी-कभी सोचती हूँ कि पुराने समय में दान पुण्य ,सम्मान,मदद,विनम्रता ,सदभाव जैसे संस्कार सिखाये नहीं जाते थे लेकिन आज बच्चों को सिखाना पड़ता है |शायद हम भी इसमें कहीं ना कहीं ज़िम्मेदार हैं | तब ये जीवन जीने के सलीक़े में शामिल थे ,ये ख़ुद ब ख़ुद हमारे व्यक्तित्व में और व्यवहार में शामिल हो जाते थे |

मैं सरस्वती शिशु मंदिर की छात्रा थी ,हमारे एक रिश्तेदार जिनके बच्चे अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल में पढ़ते थे ,एक बार उन्होंने मुझसे पुछा कि बेटा आप कौन से क्लास में पढ़ती हो ? मैंने कहा कि ‘मैं तृतीय कक्षा में पढ़ती हूँ’ मेरा जवाब सुनकर सब हँसने लगे | मुझे बहुत बुरा लगा घर जाकर मैंने पापा को बताया उन्होंने मुझे किस तरह समझाया ये तो मुझे याद नहीं लेकिन उस दिन के बाद से मुझे इतना याद है मुझे शुद्ध हिंदी बोलने में कभी शर्मिदगी नहीं हुई बल्कि गर्व हुआ|

हिंदी से एक बात याद आई जब कभी पापा हमें डांटते थे तब भी शुद्ध हिंदी के शब्द उपयोग करते थे जब कभी मैं तेज़ी से ज़ीने से उतरती थी तब पापा हमेशा टोकते थे कहते थे ‘तुममें सौन्दर्य बोध है या नहीं,इतनी तेज़ी से उतरती हो कि तुम्हारी चप्पलों की आवाज़ औरों को भी सुनाई देती है,क़ायदे से उतरा करो,या शाम को कभी हम अलसाये हुए से बिस्तर पर लेटे रहते तो कहते थे कि तुम बच्चों में बिलकुल ‘शारीरिक चैतन्यता’नहीं है दोनों बेला मिलने के वक़्त सोते रहते हो|

हमारा घर प्रोफेसर्स कॉलोनी में था ,चार-चार क्वाटर्स के चार ब्लॉक्स थे ,एक ही दीवार से चारों क्वाटर्स जुड़े हुए थे ,एक घर में अगर शोर होता तो उससे बाक़ी बचे तीनों क्वाटर्स गुंजायमान रहते थे ,मम्मी खाना बनाते हुए भी रेडियो साथ रखती थीं ,वो फ़िल्मी गानों की और क्रिकेट की बहुत शौक़ीन थीं और आज भी हैं , अगर कभी रेडियो के सिग्नल नहीं आते तो दूसरे घर से आती रेडियो की आवाज़ ध्यान से सुनतीं थीं ,दूसरे क्वाटर में एक बंगाली परिवार था वो अंकल भी क्रिकेट के शौक़ीन थे कमेंट्री के बीच में यकायक शोर सुनकर आवाज़ लगा कर पूछते ...मंजूल (मंजुल) विकीट गीर गया क्या ? मम्मी फटाफट जवाब देतीं ‘जी भाई साहब’|एक क्वाटर में शर्मा परिवार था ,वो अंकल संस्कृत के प्रोफ़ेसर थे और बहुत सख्त थे लेकिन उनका बेटा गोल्डी बहुत शैतान था , मेरा पक्का दुश्मन था वो |मुझे और मेरी मम्मी को बागबानी का बहुत शौक था |गुल्हड़,गुलाब,मोरपंखी,बेला,नीबू,क्रोटन के पेड़ ,पौधे हमने अपने छोटे से लॉन में लगा रक्खे थे ,हमारे घर से लगा हुआ घर गोल्डी का था ,वो मेरे लॉन से अक्सर फूल तोड़ा करता था और पूछने पर झूठ बोल देता था कि मैंने नहीं तोड़े| वो मुझे एक आँख नहीं भाता था ,पूरी दोपहरी मैं खिड़की पर पहरा देती रहती कि देखती हूँ बच्चू आज तुम कैसे फूल तोड़ते हो | पकड़े जाने पर उस पर जैसे मुक़दमा सा दायर कर देती,गवाहों को एकत्र करती, जैसे न जाने उसने कितना बड़ा गुनाह कर दिया हो |


कॉलोनी में मेरे हमउम्र कई बच्चे थे,शाम होते ही मैं अपने छोटे भाई को लेकर घर से निकल जाती थी,सब एक जगह एकत्र हो जाते थे और फिर खेल शुरू होता था, उन दिनों चार्ल्स शोभराज का नाम अख़बारों की सुर्ख़ियों में था ,बड़े लोगों के मुँह से हम बच्चे उसके कारनामे सुना करते थे ,उस को दिमाग में रख कर हम बच्चे भी ‘डॉन पुलिस’ के खेल में एक बच्चे को डॉन बना कर उसका नाम चार्ल्स शोभराज रख देते थे बाक़ी उसे पकड़ने वाले होते थे,किसी एक बच्चे के घर के बाहरी हिस्से को हम पुलिस हेड क्वाटर बनाते वहाँ दो लोग तैनात रहते ,एक प्लास्टिक का फ़ोन लेते ,कुछ कागज़ और पेन और बन जाता हमारा परफेक्ट पुलिस हेड क्वाटर! कभी इक्कल दुक्कल ,कभी घोड़ा है जमाल शाही,कभी वरफ पानी,कभी आई स्पाई | बहुत सारे खेल थे हमारे पास , एक बार जब गर्मियों की छुट्टियाँ शुरू हो गयीं तो मेरे सभी दोस्त कहीं न कहीं घूमने जाने लगे,ज़्यादातर सब नानी या दादी के घर छुट्टियाँ में जाते थे तब कहीं हिल स्टेशन वगैरह जाने का चलन नहीं था|

लेकिन क्यों कि हम नानी के यहाँ अक्सर जाते थे तो वहां जाना हमारे लिए कोई नई बात नहीं थी और दादी के यहाँ गाँव जाना भी मुझे भाता नहीं था लेकिन सब दोस्त वापस आकार पूछेंगे कि मीतू तुम कहाँ गईं? तो मैं क्या बताऊँगी, ये सोच कर मैंने मम्मी पापा से गाँव जाने के लिए पूछा,मम्मी पापा को पता था की मैं गाँव में रुक नहीं पाऊँगी ,उन्होंने मना कर दिया |लेकिन ज़िद करके मैं और मेरी छोटी बहन बाबा दादी जी के साथ गाँव चले आए ,शहर से १७ किलोमीटर दूर एक क़स्बा था ‘वजीरगंज’,वहाँ तक हम बस से आये फिर वहां से पाँच किलोमीटर दूर गाँव हम बैलगाड़ी से पहुँचे,बैलगाड़ी पर पहली बार बैठे थे वो इतनी उचक-उचक के चल रही थी कि न जाने कितनी बार तो मैं डर से चीखी लेकिन फिर मज़ा आने लगा |


गाँव में एक ख़ासियत होती है कि वहाँ किसी के भी घर मेहमान आयें वो पूरे गाँव का मेहमान होता है ,और हम भी गाँव में सबको मेहमान से कम नहीं लग रहे थे हमारा घर सबसे ऊँचाई पर था हमें देख कर औरतें आपस में फुसफुसा रही थीं ‘मास्टर साहब के यहाँ गौतारिया आये हैं’ ‘अरे उर्मिलेश की लड़किनी’आई हैं, ख़ुद को इतनी तवज्जो मिलती देख मुझमें ‘वी आई पी’ की आत्मा आने लग गयी थी ,क्या ऐटीट्यूड था मेरा! आज सोचती हूँ तो ख़ुद पर बहुत हँसी आती है कि कितनी पगली थी मैं |

पूरे दिन में गाँव के सब बच्चे हमें घेरे रहते हम शहरी भाषा बोलते तो वो हँसते और वो गाँव की भाषा बोलते तो हम हँसते |गाँव जाने से एक दो दिन पहले ही मैंने आमिर खान की पिक्चर’ पापा कहते हैं’ देखी थी उस का दीवाना पन उन दिनों मेरे सर चढ़ कर बोल रहा था ,पूरी दुपहरी मैं आमिर की तरह गिटार की जगह हाथ का पंखा लेकर खूब जोर जोर से उस पिक्चर के गाने गाती रहती बाक़ी सब बच्चे भी अपने-अपने राग अलापते | वहां बच्चे गेंहूँ के एवज़ में जब कुल्फ़ी ख़रीदते थे तो मुझे बड़ा आनंद आता था,दादी कहती थी कि तुम पैसे देकर ले लो लेकिन मैं गेंहूँ के एवज़ में ही कुल्फ़ी खरीदती ,मुझे ऐसा लगता कि जैसे मैं फ्री में कुल्फ़ी ले आई | रोज़ाना भरी दुपहरी फिरकी के पंखे बेचने वाला आता था मैं दादी से कहती ‘दादी पैसे दो,मुझे वो पंखा चाहिए जिसे लेकर भागो तो वो चलने लगता है ‘ ये सुन कर सब हँसते,हम दिन भर खूब खाते और मस्ती करते थे ,दादी के हाथ से बने और चूल्हे पर पके खाने का स्वाद आज भी नहीं भूलता|

जब सूरज जी की ड्यूटी ओवर हो जाती तो हम खेत की तरफ निकल जाते,कोई कहता ...आओ लली तुम्हे पालेज दिखावें, हम पूछते..पालेज ,ये क्या होती है ? तो कहते अरे तरबूजन के खेत को पालेज कहत हैं|और भी कई चीज़ों से अनजान हम दोनों बहनों से गाँव वाले कहते ‘उर्मिलेस की लड़किनी तो कतई सहरी हैं,जानती ही नाय हैं कछु,तुम्हारे पापा नै तुम्हें कछु न बताओ, ऐते बड़े सहर में तो नाय हो तुम ,जो बम्बई होत्तीं तो कतई न आतीं हियन ,लली जे देखौ तुम्हारे पापा जाई लड्हौरी में डुक जात्त ऐ जब तुम्हारे बाबा उनकौ पठेत्ते ! हम दोनों को खूब मज़ा आता ये सब बातें सुन कर |

तब सोत नदी आज की तरह सूखी नहीं थी,नदी में एक नाव हर वक़्त चलती रहती थी ..वो एक ओर से गाँव से आने जाने का एक मात्र ज़रिया थी ...उस समय कोई पुल नहीं था ,एक आद चक्कर हम भी लगा लेते नाव से ,वहीँ पास में आम के बाग थे गाँव के लड़के चटपट पेड़ पर चढ़ जाते हमें ताज़ी आम खिलाने के लिए ..इतना बढ़िया आव भगत शायद ही हमारी कहीं हुई होगी लेकिन जैसे जैसे शाम घिरने लगती मुझे मम्मी पापा की याद सताने लगती दिन तो अच्छा कट जाता था,लेकिन रात को जब गाँव में सात बजे से ही सुनसान होने लगता तो लगता की हम ये कहाँ आ गए ,मुझे अपनी कॉलोनी का शोर शराबा याद आने लगता ,पूरे गाँव में घुप्प अँधेरा हो जाता ,घर बस ढिबरी से ही रोशन रहते लेकिन जब ज़िद करके आ ही गए थे तो अब कैसे कहते की हमें वापस पहुँचा दो ,बाबा शाम को हमारी चारपाई बरामदे में डाल देते थे और नीचे पानी का छिडकाव कर देते थे जिससे कि वहां ठंडक बनी रहे,दादी हमारा मन लगाने को खूब सारी कहानी सुनातीं ,हमें गर्मी ना लगे इसीलिए बाबा दादी बारी-बारी से पूरी रात हाथ के पंखे से हमारी हवा करते रहते थे , लेकिन दो-तीन दिन में ही हमारे दावों की पोल राजनेताओं के दावों की तरह खुलने लगी थी बड़ी शान से मम्मी से कह कर आये थे कि देख लेना मम्मी हम कम से कम पंद्रह दिन गाँव में रह कर आयेंगे लेकिन यहाँ तो बस तीन चार दिन में ही मन भर गया था |मेरी छोटी बहन इतना परेशान नहीं करती थी जितना कि मैं |उसको कुछ ख़ास याद भी नहीं आ रही थी घर की ,वो तो जहाँ जाती वहीँ रम जाती,मैं ही थी मम्मी पापा की चिपकू बच्ची |मेरी बहन वापस जाने के लिए एक बार भी नहीं कहती और मुझे समझाती कि ‘अगर तुम रोओगी तो बाबा दादी को कितना बुरा लगेगा वो कितना ध्यान रख रहे हैं हमारा’ |लेकिन उल्टा मैंने ही उसे सिखाती कि ‘मेरे साथ तुम भी कहो कि बाबा जी हमें वापस घर जाना है तो बाबा जी हमें छोड़ आयेंगे’, दादी बाबा मेरा उतरा मुँह देख कर समझ ही गए थे कि इनका मन नहीं लग रहा अब |हमारे कहने पर बाबा हमें वापस घर छोड़ आये , फिर तो तभी गए जब मम्मी-पापा गाँव गए,तो ये थी हमारी एक मात्र गाँव की छोटी सी ग्रीष्मकालीन छुट्टी !

आज इस सब को दोहरा कर मेरा मन भी मीठी-मीठी टॉफी के स्वाद की तरह मीठा-मीठा हो गया है |

-आज का दिन बहुत अच्छा है जिसने मुझे कुछ देर लिए ही सही लेकिन मेरी ज़िन्दगी के सबसे प्यारे वक़्त यानि मेरे बचपन से मुझे बावस्ता करवाया है ,ऐ दिन ...शुक्रिया तुम्हारा !





सोनरूपा
गंगा दशहरा
८ जून २०१४  








-सोनरूपा विशाल, गंगा दशहरा ८ जून २०१४

जन्म – ३० अक्टूबर बदायूँ (उ.प्र.) में

पिता –राष्ट्रीय गीतकार डॉ.उर्मिलेश शिक्षा - एम.ए (हिंदी), पी .एच . डी एम .जे पी रूहेलखंड विश्वविद्यालय.बरेली
एम.ए पूर्वार्द्ध (संगीत) -दयालबाग विश्वविद्यालय,आगरा प्'संगीत प्रभाकर ' प्रयाग संगीत समिति इलाहाबाद सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन एवं गायन आई सी सी आर एवं इंडियन वर्ल्ड कत्चरल फोरम (नयी दिल्ली ) द्वारा ग़ज़ल गायन हेतु अधिकृत दिल्ली,बरेली दूरदर्शन से समय समय पर कवितायेँ प्रसारित आकाशवाणी द्वारा ग़जल गायन हेतु विगत १० वर्षों से अधिकृत लखनऊ एवं बरेली आकाशवाणी से गायन का प्रसारण अखिल भारतीय कविसम्मेलनों में काव्य पाठ हिंदी की ख्यातिलब्ध पत्र -पत्रिकाओं एवं ब्लॉगस में लेख व रचनाएँ प्रकाशित, कृति - 'आपका साथ' (डॉ.उर्मिलेश की ग़ज़लों का आडियो एल्बम सस्वरबद्द) ‘लिखना ज़रूरी है’प्रथम प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह सम्मान -मॉरिशस में आधारशिला फाउंडेशन द्वारा आयोजित विश्व हिंदी सम्मलेन में 'कला श्री सम्मान' कला एवं संस्कृति मंत्रालय मॉरिशस मंत्रालय द्वारा विशिष्ट सम्मान आई सी सी आर एवं उदभव संस्था द्वारा 'उदभव विशिष्ट सम्मान’ 'बदायूँ गौरव सम्मान' तत्कालीन मुख्यमंत्री (उ.प्र.) द्वारा
'उत्तर प्रदेश लेखिका संघ' द्वारा सम्मानित
उपाध्यक्षा बदायूँ क्लब बदायूँ ,(महिला प्रकोष्ठ) डॉ.उर्मिलेश जन चेतना समिति की आजीवन सदस्य संपर्क - डॉ.सोनरूपा 'नमन 'अपो. राजमहल गार्डन प्रोफेसर्स कॉलोनी , 'बदायू'(उ .प्र) २४३६०१ ई मेल –sonroopa.vishal@gmail.com वेबसाइट-www.sonroopa.com likhnazaroorihai.blogspot.com

Thursday, June 12, 2014

'मुक्ति' मन्नू भंडारी,कहानी

कहानी 

मुक्ति -मन्नू भंडारी
--------------------------------










( फोटो : सुशील कृष्नेट )
 


     .... और अंततः ब्रह्म मुहूर्त में बाबू ने अपनी आखिरी सांस ली. वैसे पिछले आठ-दस दिन से डाॅक्टर सक्सेना परिवार वालों से बराबर यही कह रहे थेµ”प्रार्थना कीजिए ईश्वर से कि वह अब इन्हें उठा ले...वरना एक बार अगर कैंसर का दर्द शुरू हो गया तो बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे ये.“ परिवार वालों के अपने मन में भी चाहे यही सब चल रहा हो, पर ऊपर से तो सब एक दुखद मौन ओढ़े खड़े रहते,बिल्कुल चुपचाप! तब सबको आश्वस्त करते हुए डाॅ. सक्सेना ही फिर कहते .

”वैसे भी सोचो तो इससे अधिक सुखद मौत और क्या हो सकती है भला? चारों बच्चे सेटिल ही नहीं हो गए, कितना ध्यान भी रखते हैं पिता का...वरना आज के ज़माने में तो.... बड़े भाग से मिलता है ऐसा घना-गुंथा संयुक्त परिवार, जिसके आधे से ज़्यादा सदस्य तो इसी शहर में रहते हैं और बराबर जो अपनी ड्यूटी निभाते ही रहे हैं, कहीं कोई चूक नहीं, कोई कमी नहीं.“
परिवार के लोग चुप.मेरा मन ज़रूर हुआ कि उन्हीं की बात आगे बढ़ाते हुए इतना और जोड़ दूं कि कितनों को मिलते हैं आप जैसे डाॅक्टर, जो इलाज करते-करते परिवार के सदस्य ही बन गए...बाबू के तीसरे बेटे! पर कहा नहीं गया. मैं भी परिवार वालों के साथ चुप ही खड़ी रही.

”और सबसे बड़ी बात तो यह कि कितनों को नसीब होती है ऐसी सेवा करने वाली पत्नी? मैं तो हैरान हूं उनका सेवा-भाव देखकर. आखिर उम्र तो उनकी भी है ही...उसके बावजूद पिछले आठ महीनों से उन्होंने न दिन को दिन गिना, न रात को रात! बस लगातार...“ और बिना वाक्य पूरा किए ही मुड़कर वे जाने लगते. पता नहीं क्यों मुझे लगता, जैसे मुड़ते ही वे अम्मा के इस सेवा-भाव के प्रति कहीं नत-मस्तक हुए हों और मैं सोचती कि चलो, कम से कम एक आदमी तो है जिसके मन में अम्मा की इस रात-दिन की सेवा के प्रति सम्मान है...वरना परिवार वालों ने इस ओर ध्यान देना ही छोड़ दिया है. बस, जैसे वो करती हैं तो करती हैं. किसी ने इसे उनके फजऱ् के खाते में डाल दिया तो किसी ने उनके स्वभाव के खाते में तो किसी ने उनकी दिनचर्या के खाते में. सब के ध्यान के केंद्र में रहे तो केवल बीमार बाबू. स्वाभाविक भी था...बीमारी भी तो क्या थी, एक तरह से मौत का पैगाम. हां, मुझे ज़रूर यह चिंता सताती रहती थी कि बिना समय पर खाए, बिना पूरी नींद सोए, बिना थोड़ा-सा भी आराम किए जिस तरह अम्मा रात-दिन लगी रहती हैं तो कहीं वे न बीमार पड़ जाएं, वरना कौन देखभाल कर सकेगा बाबू की इस तरह? बाबू दिन-दिन भर एक खास तेल से छाती पर मालिश करवाते थे तो रात-रात भर पैर दबवाते थे. मैं सोचती कि बाबू को क्या एक बार भी ख़याल नहीं आता कि अम्मा भी तो थक जाती होंगी. रात में उन्हें भी तो नींद की ज़रूरत होती होगी या दिन में समय पर खाने की. पर नहीं, बाबू को इस सबका शायद कभी ख्याल भी नहीं आता था. उनके लिए तो अपनी बीमारी और अपनी तीमारदारी ही सबसे महत्त्वपूर्ण थी और इस हालत में अम्मा से सेवा करवाना वे अपना अधिकार समझते थे तो इसी तरह सेवा करना अम्मा का फर्ज़. कई बार अम्मा को थोड़ी-सी राहत देने के इरादे से मैं ही कहती कि बाबू, लाइए मैं कर देती हूं मालिश....चार बज रहे हैं अम्मा खाना खाने चली जाएं, तो बाबू मेरा हाथ झटक कर कहतेµ रहने दे. नहीं करवानी मुझे मालिश. और इस उत्तर के साथ ही उनके ललाट पर पड़ी सलवटों को देखकर न फिर अम्मा के हाथ रुकते, न पैर उठते. उसके बाद तो मैंने भी यह कहना छोड़ ही दिया.

तीन महीने पहले बाबू को जब नर्सिंग-होम में शिफ्ट किया तो ज़रूर मैंने थोड़ी राहत की सांस ली. सोचा, अब तो उनकी देखभाल का थोड़ा बोझ नर्स भी उठाया करेंगी...अम्मा को थोड़ी राहत तो मिलेगी. पर नहीं, नर्स से तो बाबू केवल दवाई खाते या बी. पी. चैक करवाते. बाकी की सारी सेवा-चाकरी तो अम्मा के ही जि़म्मे रही. अम्मा रात-दिन बाबू के साथ नर्सिंग होम में ही रहतीं, और मालिश और पैर दबाने का काम भी पहले की तरह ही चलता रहता. हां, डाॅक्टर सक्सेना की विशेष सिफारिश पर रात में कभी कोई ज़रूरत पड़ जाए तो अम्मा के साथ रहने के लिए परिवार का कोई न कोई सदस्य आता रहता.

कल रात नौ बजे के करीब हम लोग खाना खाकर उठे ही थे कि फोन की घंटी बजी. मैंने फोन उठाया तो उधर बड़े चाचा थेµ
”छोटी, भैया की पहले आवाज गई और फिर थोड़ी देर बाद वे बेहोश हो गए. डाॅक्टर सक्सेना को बुलाया. उन्होंने आकर अच्छी तरह देखा और फिर कमरे से बाहर आकर इतना ही कहाµ‘बस, समझिए कि कुछ घंटे की ही बात और है. आप फोन करके बच्चों को बुला लीजिए.’ फिर उन्होंने नर्स को कुछ आदेश दिए और चले गए. सो देख, तू फोन करके शिवम को कह दे कि सवेरे की पहली फ्लाइट पकड़कर आ जाए. लखनऊ फोन करके बड़ी को भी कह दे कि वह भी जल्दी से जल्दी पहुंचे. अमेरिका से नमन का आना तो मुश्किल है, पर सूचना तो उसे भी दे ही दे. और सुन, फोन करके तू नर्सिंग-होम आ जा. मैं बाहर निकलूंगा...सारी व्यवस्था भी तो करनी होगी.“
सुना तो मैं ज्यों का त्यों सिर थामकर बैठ गई. बिना बताए ही रवि जैसे सब कुछ समझ गए. स्नेह से मेरे कंधे पर हाथ रखकर पूछाµ”नर्सिंग होम चलना है?“
मैंने धीरे-से गर्दन हिलाकर अपनी स्वीकृति दी तो रवि ने पूछाµ”क्या कहा चाचाजी ने...क्या...?“
”बाबू बेहोश हो गए हैं और डाॅक्टर साहब ने अच्छी तरह देखने के बाद कहा कि बस कुछ घंटों की बात ही और है, परिवार वालों को ख़बर कर दो...यानी कि बाबू अब...“ और मेरी आवाज रुंध गई. रवि ने मेरी पीठ सहलाई...”तुम तो हिम्मत रखो वरना अम्मा को कौन संभालेगा?“ अम्मा की बात सोचकर एक बार तो मैं और विचलित हो गई. क्या गुज़रेगी उन पर! पर फिर अपने को संभाल कर उठी और सबसे पहले बंबई बड़े भय्या को फोन किया. सारी बात सुनकर वे बोलेµ
”थैंक गाॅड. बिना तकलीफ शुरू हुए ही शांति से जाने की नौबत आ गई. ठीक है, मैं सवेरे की पहली फ्लाइट लेकर आता हूं...पर देख, सुषमा तो आ नहीं पाएगी. दोनों बच्चों के बोर्ड के इम्तिहान जो हैं. मैं अकेला ही पहुंचता हूं. वैसे भी सब लोग करेंगे भी क्या?’’ दीदी को फोन किया तो उन्होंने भी इतना ही कहा कि जल्दी से जल्दी आने की कोशिश करती हूं. इसके आगे-पीछे न कुछ कहा, न पूछा. बाबू तो ख़ैर जा ही रहे हैं, अम्मा के बारे में ही कुछ पूछ लेते, पर नहीं. लगा, जैसे रस्म-अदायगी के लिए आना है, सो आ रहे हैं.
हैरान-सी मैं गाड़ी में बैठी तो रवि से कहे बिना न रहा गया, ”रवि, भय्या और दीदी की आवाज़ का ऐसा ठंडापन, जैसे सब इस सूचना की प्रतीक्षा ही कर रहे थे...किसी को कोई सदमा ही न लगा हो.“ 
”ऐसा क्यों सोचती हो? याद नहीं, कैसा सदमा लगा था उस दिन जब पहली बार डाॅक्ट्र्स से कैंसर की रिपोर्ट मिली थी? उसके बाद कुछ महीनों तक तो कितनी लगन से बाबू की देखभाल और तीमारदारी चलती रही थी. शुरू के चार महीनों में दो बार तो बंबई से बड़े भय्या आए. एक बार अमेरिका से छोटे भय्या भी आए...उन्होंने तो बीमारी का सारा ख़र्च उठाने का जि़म्मा भी लिया, वरना आज बाबू क्या नर्सिंग-होम का खर्चा उठा पाते? फिर, यहां रहनेवाले परिवार के दूसरे लोग भी तो रोज हाज़री बजाते ही रहे थे. हां, समय के साथ-साथ ज़रूर सब कुछ थोड़ा कम होता चला गया...जो बहुत स्वाभाविक भी था.“
मैंने सोचा, ठीक ही तो कह रहे हैं रवि. दूसरों की क्या कहूं...मैं ख़ुद अब कहां पहले की तरह चार-चार, पांच-पांच घंटे आकर बाबू के पास बैठती रही हूं. इधर तो दो-दो दिन छोड़कर भी आने लगी थी. शायद यही जीवन की नंगी सच्चाई है कि जैसे-जैसे बीमारी लंबी खिंचती चलती है, फजऱ् के तौर पर ऊपर से भले ही सब कुछ जैसे-तैसे घिसटता रहे, पर मन की किसी अनाम परत पर उस अघट के घटने की प्रतीक्षा भी नहीं चलती रहती? शायद इसीलिए मौत की इस सूचना ने सदमा नहीं, राहत ही पहुंचाई सबको. फिर भी कम से कम...
मेरे मन में चलनेवाली हर बात, हर सोच को अच्छी तरह समझने वाले रवि का एक हाथ मेरी पीठ सहलाने लगाµ
”रिलैक्स शिवानी, रिलैक्स! इस समय सब बातों से ध्यान हटाकर तुम केवल अम्मा की बात सोचो. अभी तो तुम्हें ही संभालना है उन्हें. बाकी सब लोग तो बाबू में लग जाएंगे. पर अम्मा पर जो गुजरेगी...“
”जानती हूं. लंबी बीमारी ने जहां अंतरंग से अंतरंग संबंधों के तार भी रेशे-रेशे करके बिखेर दिए, वहां एक अम्मा ही तो जुड़ी रहीं उनसे. उतने ही लगाव, उतनी ही निष्ठा के साथ रात-दिन सेवा करती रहीं उनकी. कितनी अकेली हो जाएंगी वे...कैसे झेलेंगी इस सदमे को?“ 
गाड़ी रुकी तो लगा, अरे, नर्सिंग-होम आ ही गया. समझ ही नहीं पा रही थी कि कैसे सामना करूंगी अम्मा का? जैसे-तैसे हिम्मत जुटाकर ऊपर चढ़ी तो हैरान! अम्मा वैसे ही बाबू के पैर दबा रही थीं. मुझे देखते ही बोलींµ
”अरे छोटी, तू कैसे आई इस बखत?“
समझ गई कि चाचा अम्मा को बिना कुछ बताए ही बाहर निकल गए. मैंने भी अपने को भरसक सहज बनाकर ही जवाब दियाµ”चाचा का फोन आया था. उन्हें किसी ज़रूरी काम से बाहर जाना था, सो उन्होंने मुझे तुम्हारे पास आकर बैठने को कहा, तो आ गई.“
अम्मा का सामना करना मुश्किल लग रहा था, सो यों ही मुड़ गई. सामने टिफि़न दिखाई दिया तो पूछ बैठीµ
”बारह बजे तुम्हारे लिए जो खाना भिजवाया था, खाया या हमेशा की तरह टिफि़न में ही पड़ा है?“
”कैसी बात करे है छोटी? कित्ते दिनों बाद तो आज ऐसी गहरी नींद आई है इन्हें...पैर दबाना छोड़ दूंगी तो जाग नहीं जाएंगे...और जो जाग गए तो तू तो जाने है इनका गुस्सा. देखा नहीं, कैसे लातें फटकारने लगे हैं ये! सो, दबाने दे मुझे तो तू. खाने का क्या है, पेट में पड़ा रहे या टिफि़न में, एक ही बात है.“
कैसा तो डर बैठ गया है अम्मा के मन में बाबू के गुस्से का, कि उन्हें सोता जानकर भी वे पैर दबाना नहीं छोड़ रहीं. पिछले कई महीनों से यही तो स्थिति हो गई है उनकी  कि खाना टिफि़न में पड़ा रहे या पेट में, उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता और इस सबके लिए उन्होंने न कभी कोई किसी से शिकायत की न गुस्सा. गुस्सा करें भी तो किस पर? गुस्सा करना नहीं, बस, जैसे गुस्सा झेलना ही नियति बन गई थी उनकी. आश्चर्य तो मुझे इस बात पर हो रहा था कि इतनी अनुभवी अम्मा को क्या ये बिल्कुल पता नहीं चल रहा था कि बाबू गहरी नींद में नहीं बल्कि बेहोशी की हालत में पड़े हुए हैं. क्या आठ महीने की लंबी बीमारी ने भूख-नींद के साथ-साथ उनकी सारी इंद्रियों को भी सुन्न कर दिया है? एक तरफ तो कुछ घंटों के बाद बाबू के साथ जो होने जा रहा है, उसकी तकलीफ, अम्मा पर होने वाली उसकी प्रतिक्रिया की कल्पना और दूसरी तरफ सहज बने रहने का नाटक...अजीब स्थिति से गुज़र रही थी मैं.

सवेरे ठीक पांच बजे बाबू ने आखि़री सांस ली. आने के कुछ देर बाद ही नर्स ने मुझे बुलाकर कहा था कि वे यदि बार-बार अंदर आएंगी तो अम्मा को शक होगा और वे अभी से रोना-धोना शुरू कर देंगी, इसलिए मैं ही थोड़ी-थोड़ी देर बाद बाबू की सांस का अंदाज़ा लेती रहूं और मैं बाबू के सिर पर हाथ फेरने के बहाने यह काम करती रही थी. कोई पांच-सात मिनट पहले ही उनकी उखड़ी-उखड़ी सांस को देखकर मैं ही नर्स को बुला लाई. नर्स थोड़ी देर तक पल्स पर हाथ रखे खड़ी रही. फिर उसने धीरे-से बाबू के पैरों से अम्मा के हाथ हटाए. सब कुछ समझकर बाबू के पैरों से लिपटकर ही अम्मा छाती फाड़कर जो रोईं तो उन्हें संभालना मुश्किल हो गया. परिवार के कुछ लोग शायद काफी देर पहले से ही नीचे आकर खड़े हो गए थे. नर्स की सूचना पर बड़े चाचा, चाची और रवि ऊपर आ गए. ये सब लोग तो रात से ही इस घटना के लिए मानसिक रूप से तैयार थे, नहीं थीं तो केवल अम्मा. सो, उन्हें संभालना मुश्किल हो रहा था. चाची ने अंसुवाई आंखों से अम्मा की पीठ सहलाते हुए कहाµधीरज रखो भाभी...धीरज रखो. पर अम्मा ऐसी ही रहीं और रोते-रोते फिर जो चुप हुईं तो ऐसी चुप मानो अब उनमें रोने की ताकत भी न बची हो. हथेलियों में चेहरा ढांपे वे बाबू के पैताने जस की तस बैठी रहीं. थोड़ी देर बाद नर्स के इशारे पर चाची, रवि और मैंने उन्हें उठाया तो उठना तो दूर, उनसे हिला तक नहीं गया. मैं हैरान! अभी कुछ देर पहले ही जो अम्मा पूरे दमख़म के साथ बाबू के पैर दबा रही थीं, उनसे अब हिला तक नहीं जा रहा था. गए तो बाबू थे, पर लगा जैसे जान अम्मा की निकल गई हो.

घर लाकर उन्हें बाबू के कमरे में ही बिठा दिया. वे ज़मीन पर दीवार के सहारे पीठ टिकाकर बैठ गईं...बिल्कुल बेजान सी. बाकी सब लोग बाहर चले गए. बस मैं उनके साथ बैठी रही, यह तय करके कि अब मैं यहां से हिलूंगी तक नहीं. बाहर इस अवसर पर होनेवाली गतिविधियां अपने ढंग से चलती रहीं. बड़े भय्या दस बजे की फ्लाइट से आए और एयरपोर्ट से ही सीधे नर्सिंग-होम चले गए. दोनों चाचियां घर की व्यवस्था करने में लगी रहीं. साढ़े ग्यारह बजे के करीब दोनों चाचा, भय्या और रवि, बाबू के शव के साथ घर आए जहां परिवार के लोग पहले से ही इकट्ठा हो गए थे. शव देखकर एक बार ज़रूर सब फूट पड़े. फिर शुरू हुए यहां होने वाले रस्म-रिवाज. पंडित जी जाने कौन-कौन से श्लोक बोलते-पढ़ते रहे और साथ ही साथ कुछ करते भी रहे. फिर बाबू के पैर छूने का सिलसिला शुरू हुआ तो सबसे पहले अम्मा...दोनों चाची और मैं किसी तरह पकड़कर अम्मा को बाहर लाए. हाथ जोड़कर अम्मा ने बाबू के पैरों में जो सिर टिकाया तो फिर उनसे उठा ही न गया. हमीं लोगों ने किसी तरह उन्हें उठाकर वापस कमरे में ला बिठाया और मैं पैर छूने की रस्म के लिए बाहर निकल गई. लौटी तो देखा, अम्मा उसी तरह दीवार में पीठ टिकाए बैठी हैं और उनकी आंखों से आंसू टपक रहे हैं. अम्मा की बगल में बैठकर उनकी पीठ सहलाते हुए मैं सोचने लगी,कैसी विडंबना है? आज अम्मा जिन बाबू के लिए रो रही हैं, कैसी जि़ंदगी जियी है अम्मा ने उनके साथ? बाबू की हर ज़रूरत...उनकी छोटी से छोटी इच्छा को भी पूरा करने के लिए सदैव तत्पर...ज़रा सी चूक होने पर उनके क्रोध के भय से थरथर कांपती अम्मा के जाने कितने दृश्य मेरी आंखों के आगे से गुज़र गए और मैं रो पड़ी. पर इस समय यह रोना बाबू के लिए नहीं, अम्मा के लिए था. मेरा मन हो रहा था कि अम्मा किसी तरह थोड़ी देर सो लें, पर अम्मा तो लेटने तक को तैयार नहीं थीं. 

शाम पांच बजे के करीब सब लोग लौटे. नहाना-धोना हुआ और तब बड़े भय्या अम्मा के पास आकर बैठे. सबसे पहले उन्होंने हाथ जोड़कर ऐसी शांत मृत्यु के लिए ईश्वर को धन्यवाद दिया. फिर अम्मा की पीठ सहलाते हुए आश्वासन में लिपटे सांत्वना के कुछ शब्द बिखेरे...फिर हिम्मत और धीरज रखने के आदेश देते रहे...वे और भी जाने क्या कुछ बोलते रहे, पर अम्मा बिल्कुल चुप. उनसे तो जैसे अब न रोया जा रहा है, न कुछ बोला जा रहा है. देर शाम की गाड़ी से दीदी आईं और ज़ोर-ज़ोर से रोते हुए ही अम्मा के कमरे में घुसींµ”हाय अम्मा, मैं तो बाबू के दर्शन भी नहीं कर सकी...अरे मुझे पहले किसी ने खबर की होती तो जल्दी आती...अरे बाबू...हाय अम्मा...“ मैंने ही उन्हें चुप कराकर जैसे-तैसे कमरे से बाहर भेजा. मैं नहीं चाहती थी कि अब कोई भी अम्मा के पास आए...वे किसी भी तरह थोड़ा सो लेंµपर यह संभव ही नहीं हो पा रहा था. रात में सारे दिन के भूखे लोगों ने डटकर खिचड़ी खाई. मैं जल्दी से अम्मा की प्लेट लगाकर लाई और बराबर मनुहार करती रही कि अम्मा, कुछ तो खा लो...कल सारे दिन भी तुमने कुछ नहीं खाया था पर अम्मा न कुछ बोलीं, न खाया. मेरे बराबर आग्रह करने पर उन्होंने बस किसी तरह हिम्मत करके मेरे आगे हाथ जोड़ दिए. उनके इस नकार के आगे तो फिर मुझसे न कुछ कहते बना, न खाते.

दूसरे दिन सवेरे दस बजे के करीब मातमपुर्सी का सिलसिला शुरू हुआ. पुरुष लोग बाहर बैठ रहे थे तो स्त्रिायां भीतर के कमरे में. सारी औरतें एक तरफ, और दूसरी ओर घूंघट काढ़े, घुटनों में सिर टिकाए अकेली अम्मा. औरतों में शुरू में थोड़ा रोना-गाना चलता और फिर इधर-उधर की बातें. कोई बाबू की लंबी बीमारी की बात करता तो कोई उनकी हिम्मत की, तो कोई उनके धीरज की. नौकर के इशारे पर मैं आनेवालों के लिए पानी की व्यवस्था करने रसोई में चली गई. पानी की ट्रे लेकर बाहर गई तो हर आनेवाला परिवार वालों को सांत्वना देते हुए जैसे यही कहता...‘अरे भाई, यह उनकी मृत्यु नहीं, समझो उनकी मुक्ति हुई. बड़े भागवान थे जो ऐसी जानलेवा बीमारी के बाद भी ऐसी शांति से चले गए.’... ‘यह तो उनके पुण्य का प्रताप ही था कि ऐसे शुभ मुहूर्त में प्राण त्यागे. कितनों को मिलती है ऐसी मौत?...’ ‘तुम्हें संतोष करना चाहिए कि न कोई तकलीफ पाई, न दर्द झेला. बस, इस जी के जंजाल से मुक्त हो गए. हे परमात्मा, उनकी आत्मा को शांति देना.’ खाली ग्लासों की ट्रे लेकर मैं फिर रसोई में आई तो बाहर से हड़बड़ाती हुई-सी दीदी आईंµ
”छोटी, अम्मा क्या वहां बैठी-बैठी सो रही हैं? ये तो गनीमत थी, कि मैं उनके थोड़ा पास ही बैठी थी सो मैंने उनके हल्के-हल्के खर्राटों की आवाज सुन ली. पता नहीं किसी और ने भी सुना होगा तो क्या सोचा होगा? उस समय तो मैंने ज़रा पास सरककर उन्हें जगा दिया, पर उनसे तो जैसे नींद के मारे बैठा भी नहीं जा रहा है. तू चलकर बैठ उनके पास और संभाल, वरना फिर कहीं...“
”अम्मा सो रही हैं?“ मैंने तुरंत ट्रे रखी और कमरे में आई. वहीं बैठी छोटी भाभी को इशारे से बुलाया और उनकी मदद से पास वाले कमरे में लाकर उन्हें पलंग पर सुला दिया और धीरे-धीरे उनका सिर थपकने लगी. देखते ही देखते वे सचमुच ही सो गईं...शायद एक गहरी नींद में. थोड़ी ही देर में फिर दीदी आईं और यह दृश्य देखकर हैरान. भन्ना कर बोलींµ
‘‘ये क्या? तूने तो इन्हें यहां लाकर सुला दिया और ये सो भी गईं. हद्द है भाई, बाहर तो औरतें इनके मातम में शिरकत करने आई हैं और ये यहां मज़े से सो रही हैं. कल बाबू गुज़रे और आज ये ऐसी...“
”दीदी!“ मैंने उन्हें वाक्य भी पूरा नहीं करने दिया ”आप नहीं जानतीं पर मैं जानती हूं...देखा है मैंने कि इन आठ महीनों में कितने बिनखाए दिन और अनसोई रातें गुज़ारी हैं अम्मा ने. आप तो खैर लखनऊ में बैठी थीं, पर जो यहां रहते थे, जिन्होंने देखा है यह सब, उन्होंने भी कभी ध्यान दिया अम्मा पर? और तो और, रात-दिन जिन बाबू की सेवा में लगी रहती थीं, उन्होंने भी कभी सोचा कि वे आखिर कभी थकती भी होंगी...नहीं, बस ज़रा-सी चूक होने पर कितना गुस्साते थे अम्मा पर कि वे थरथरा जाती थीं! दीदी, समझ लीजिए आप कि इन आठ महीनों में पूरी तरह निचुड़ गई हैं अम्मा! आज न उनमें बैठने की हिम्मत है, न रोने की. परिवार की सारी औरतें तो बैठी ही हैं बाहर...आप भी जाकर वहीं बैठिए. कह दीजिए उनसे कि अम्मा की तबियत 
खराब हो गई है, वे बैठने की हालत में नहीं हैं.“
मेरी बात...मेरे तेवर देखने के बाद दीदी से फिर कुछ कहते तो नहीं बना; बस, इतना ही कहा ,”हम तो बैठ ही जाएंगे पर...“ और वे निकल गईं. मैंने उठकर दरवाजा बंद कर दिया और दूसरी ओर की खिड़की खोल दी जो बाहर की ओर खुलती थी. खिड़की खोलते ही बाहर से आवाज़ आईµ
”यह दुख की नहीं, तसल्ली की बात है बेटा...याद नहीं, डाॅक्टर साहब ने क्या कहा था? भगवान ने आखिर इन्हें समय से मुक्त कर ही दिया...“ मैंने घूमकर अम्मा की ओर देखा कि इन आवाज़ों से कहीं वे जग न जाएं...पर नहीं, वे उतनी ही गहरी नींद में सो रही थीं...एकदम निश्चिन्त !
                             *************************

परिचय
नाम- मन्नू भंडारी 
जन्मस्थान: भानपुरा (म.प्र.)
शिक्षा: एम.ए. (काशी हिंदू विश्वविद्यालय) हिंदी-पारिभाषिक-कोष के आदि-निर्माता श्री सुखसंपतराय भंडारी की सबसे छोटी पुत्राी मन्नू भंडारी को लेखन-संस्कार पैतृकदाय के रूप में प्राप्त. बचपन अजमेर में.
कहानी-संग्रह: मैं हार गई, तीन निगाहों की तस्वीर, एक प्लेट सैलाब, यही सच है, प्रिय कहानियां, श्रेष्ठ कहानियां, त्रिशंकु, आंखों देखा झूठ (बाल कहानियां), आस माता.
उपन्यास: एक इंच मुस्कान (राजेन्द्र यादव के साथ), आपका बंटी, स्वामी, कलवा (किशोर उपन्यास), महाभोज.
नाटक: बिना दीवारों के घर, महाभोज
फोन: 26868464

फेसबुक पर LIKE करें-