“जूठन”- एक दलित की आत्म
व्यथा-कथा और सामजिक सारोकार
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बचपन
से ही यह सुनता आ रहा हूँ की साहित्य समाज का दर्पण है,यानी किसी समय के साहित्य
द्वारा किसी काल विशेष के समाज को जाना, समझा जा सकता है. इसी क्रम में मैंने
दिसम्बर महीने में एक पुस्तक पढ़ी जूठन
जिसके लेखक ओंम प्रसाद वाल्मीकि
जी है. अपने स्नातक काल में ही मैंने इस पुस्तक के बारे में काफी कुछ सुना था,कि यह
दलित साहित्य की प्रथम आत्मकथा है जिसमे की दलितों के जीवन का असल चित्रण किया गया
है. यह इस पुस्तक की विशेषता ही है की जब मैंने इस पुस्तक को पढना शुरू किया तो पुस्तक
खत्म होने तक पढना न रोक सका. पुस्तक पठन के दौरान कभी हँसा, कभी रोया, कभी विचार
किया, कभी उस समय के बारे में सोचा और फिर आज के समय से तुलना करनी चाही, और जब
तुलना की तो पता चला की भले ही पुस्तक का घटना क्रम पुराना है, पर उसमे लिखी कुछ
बाते आज के सन्दर्भ में भी सही है.
जूठन
जिस मनोस्थिति में लिखा गया है, अथवा जिस तरह की विषयवस्तु इसकी है इसकी
प्रासंगिकता कल कितनी थी और आज कितनी है इन सब बातो पर गौर करने से पहले हमें इसके
लेखक वाल्मीकि जी के जीवन चरित पर नजर डालनी होगी.
लेखक का जीवन परिचय- आजादी
के महज 3 वर्षो बाद जून की तपती दोपहरी में 30 तारीख को उत्तर प्रदेश के
मुजफ्फरनगर जिले में इनका जन्म हुआ था. वैसे ये भी जन्मे तो हर साधारण बालक की तरह
ही थे, पर समाज के अन्त्यज वर्ग में पैदा होने के कारण शायद इनको वे सुख सुविधाए
नहीं मिली जो और किसी बालक को मिलनी चाहिए थी.
आज
भी जिस शब्द को उच्च वर्ण के लोग गाली की
तरह उपयोग करते है (भंगी या चूहड़ा)
ऐसे वर्ण या जाति में इनका जन्म हुआ था. इस वर्ण में पैदा होना ही उस समय भारत देश
में सबसे बड़ी गलती मानी जाती थी.
भले
ही अम्बेडकर के सुधारवादी नारे, और गाँधी के हरिजन सुधार के नारे फिजा से पूरी तरह
गायब नहीं हुए थे पर फिर भी इन नारों और आंदोलनों का मखौल पुरे देश में उड़ाया जा
रहा था. दलित परिवार के लोगो को आदमी नहीं समझा जाता था. वाल्मीकि जी ने हिंदी
साहित्य से परास्नातक की उपाधि ली और साहित्य सेवा में लग गए. पुरे जीवन भर दलित
साहित्य की रचना के द्वारा दलितों का उद्धार करने का प्रयास किया, अनेको नाटक,
उपन्यास,कहानियाँ आदि इनकी जिजीविषा की कहानी कहते नजर आते है. अभी विगत वर्ष में
नवम्बर महीने में इनका देहावसान हो गया.
जूठन की कथावस्तु तथा कल और
आज का समाज- पहले
पहल तो पुस्तक का शीर्षक ही काफी चौकाने और सोचने वाला है. काफी लोगो ने विचार
किया की आखिर जूठन कैसा नाम है. पर इस नाम को रखने के पीछे लेखक का जो दर्द छिपा
हुआ है उसे उन्होंने बताते हुए अपने बचपन के दिनों को याद किया है.बचपन के दिनों
को बताते हुए वे कहते है की कैसे उनकी माता और पिता दोनों हाड़तोड़ मेहनत करते थे पर
उसके बाद भी दोनों समय निवाला मिलना दुष्कर कार्य था, उनकी माता कई तथाकथित ऊँचे
घरो में झाड़ू पोछे का काम करती थी और बदले में मिलता था उन्हें रुखी सुखी रोटियाँ
जो जानवरों के भी खाने लायक नहीं होती थी, उसी को खाकर गुजारा करना पड़ता था. ऐसे
समय में जब किसी सवर्ण के घर बारात आती थी या उत्सव का कोई अवसर आता था तो उस
क्षेत्र के सारे दलित खुश हो जाते थे, क्यूँकी भोजन के बाद फेके जाने वाले पत्तलों
को उठाकर वे घर ले जाते और उनके जूठन को एकत्र करके कई दिनों तक खाने के काम में
लाते, इस घृणित कार्य के बाद भी पेट की भूख शांत होने पर उन्हें थोड़े समय के लिए
ख़ुशी ही मिलती थी.
उपरोक्त
विवरण को जब मै पढ़ रहा था तो मुझे अपने जीवन के कुछ प्रसंग अनायस याद आ गए, जैसे
मेरी दादी कहा करती थी की उनके बचपन में गाँव के चमार(शायद गाँधी जी द्वारा
निर्मित हरिजन शब्द से उनका पाला न पड़ा था) जब खेती कट जाती थी और बैलो के द्वारा
अनाज को भूसे से अलग किया जाता था, ऐसे में बैल जो गोबर करते थे उन्हें अपने घर ले
जाते थे उसमे से खड़े अनाज निकालकर और धोकर उसे खाते थे.मुझे ये बाते बड़ी खराब लगती
थी और उस समय कुछ समझ में भी नहीं आता था
साथ में यह बाते अमानवीय लगती थी.
या
जब मेरे किसी रिश्तेदारी में कोई उत्सव होता था तो उत्सव के उपरान्त आस-पास के
सारे दलित एकत्र होकर बचा खाना लेने आते थे, उनके चेहरे पर जो ख़ुशी या ऐसी ही कोई
भावना जब उभरती थी तो मेरी समझ में नहीं आता था की ये क्या है.
ऐसे
ही वाल्मीकि जी जब अपने स्कूल की बात बताते है की कैसे सवर्ण अध्यापक उन्हें बात
ही बात में मारते थे, या कहते थे की भंगी या चमारो के लड़के पढ़ नहीं सकते क्यूँकी
इनका जन्म पढने के लिए नहीं हुआ है,मुझे पढ़ के बड़ा आश्चर्य हुआ की या बात 1960 के
दशक की है पर इसके लक्षण आज भी हर जगह दिख जाते है. जैसे की कुछ बाते जो मैंने देखी
है याद आ रहीं हैं, मेरे मामा जी एक जूनियर हाई स्कूल में अध्यापक है, स्कूल ऐसी
जगह है जहाँ पर दलितों के बच्चे ज्यादा पढने आते है, ऐसे में मेरे मामा जी बच्चो
को पढ़ाते ही नहीं है, आज से करीबन 3 साल पहले जब मैंने उनसे पूछा था की आप पढ़ते
क्यूँ नहीं हो तो उन्होंने दलितों को गाली देते हुए कहा था की ये पढ़ लेंगे तो हम
लोगो के खेतो का काम कौन करेगा.ऐसा ही एक और वाकया अपने स्नातक के दिनों का याद आ
रहा है, हम लोग विश्विद्यालय द्वारा आयोजित वाद-विवाद प्रतियोगिता में सहभागिता कर
रहे थे मेरे साथ मेरे मित्रो में शुमार मेरे एक दलित मित्र जो आजकल शोध कर रहे है
भी प्रतियोगिता में थे, उन्होंने मुझसे अच्छा बोला था और मुझे लगता था की प्रथम
स्थान उन्ही का होगा और मेरा दूसरा होगा,पर जब परिणाम आया तो मै पहले स्थान पर था
और वह दुसरे स्थान पर, इस बात का उन्हें काफी दिनों तक दुःख रहा, या आज जब मै
राजस्थान के बाड़मेर जिले के किसी भी स्कूल में जाता हूँ तो अक्सर अध्यापक यह कहते
नजर आते हैकि ये भीलो के बच्चे, मेघवालों के बच्चे पढ़ नहीं सकते. अब मेरे दिमाग
में यह प्रश्न आ रहा है की क्या हमने सच में विकास कर लिया है, हमारा संविधान भी कहता है की हम सब बराबर
है और जातिगत आधार पर किसी को कमतर नहीं समझा जा सकता है. आज हम कथित रूप से 21वि
सदी में आ गए है, पुरे विश्व में महाशक्ति के रूप में हमे मान्यता मिल रही है,
मानवाधिकारों का झंडा बुलंद करने में हम सबसे आगे रहते है, गांधी , अम्बेडकर की विचारधाराओं
का प्रचार कर रहे है, वही यह सब भी देखने को मिल रहा हैं.आज भी केवल ब्राह्मण
खानदान में पैदा होने के कारण मुझसे उम्र में कई गुना बड़े लोग मुझे प्रणाम करते
है, आदर देते है ऐसा क्यूँ होता है मुझे समझ में नहीं आता.
ऐसे
ही एक जगह लेखक ने अपने प्रेम संबंधो का जिक्र करते हुए लिखा है की कैसे उनके दलित
होने के चलते उन्हें अपने प्रेम की तिलांजलि देनी पड़ी क्यूँकी उन्होंने एक सवर्ण
लड़की से प्रेम किया था. और कैसे एक सुसंस्कृत परिवार में उनको तब लज्जित होना पड़ा
जब उस परिवार वालो को ये पता चला की ये दलित है, यद्दपि की इसके पहले उनके मध्य
काफी घनिष्ठ सम्बन्ध थे.
एक
और बात जो उन्होंने लिखी है और जो आज के संदर्भ में भी कही न कही गौरतलब है वह यह
की कैसे अगर कुछ दलित आगे मुख्यधारा में शामिल भी हो जाते है तो कैसे समाज उनका बहिष्कार
करता है.अपने एक मित्र की बात बताते हुए कहते है की कैसे उसके अधिकारी होने पर भी
उसे अपने सहयोगियों से अपमान मिलता था. ऐसी कई बाते आज भी देखने को मिल जाती है,
जैसे की मेरे मुहल्ले में एक सरकारी विद्यालय है जिसके प्रधानाध्यापक एक दलित हैं
और चपरासी एक सवर्ण है, पर प्रधानाध्यापक साहब की मजाल नहीं की वे चपरासी से कहकर
कुछ काम करवा सके, या ऐसे ही हमारी सहयोगी गीतिका भंडारी ने बताया की कैसे उनके
मुहल्ले में एक दलित के घर कोई नहीं जाता जबकि दोनों पति-पत्नी भारतीय प्रशासनिक
सेवाओं में कार्यरत है. मैंने एक नियम पढ़ा था की जिसकी सत्ता होती है उसका वर्चस्व
होता है, पर यहाँ तो इसका उल्टा दिखायी
देता है, सत्ता और शक्ति के होते हुए भी क्या कारण है ही ऐसे लोगो को समाज वह
सम्मान नहीं देता जिसके वे हकदार है इस बात पर आज विचार करने की आवश्यकता है.
ऐसे
ही उनके जीवन में कई परेशानियाँ और चुनौतियाँ आई जिसमे से कई तो उनके अपनों ने खुद
खड़ी की जैसे की नाम बदल लेने की कवायद या फिर सरनेम हटा लेने की बात.उनके कई
परिचितों और रिश्तेदारों ने अपने उपनाम हटा लिए थे और वाल्मीकि जी को भी यही सलाह
देते थे, खुद उनकी पत्नी भी उनसे कई बार कह चुकी थी, वाल्मीकि जी का यह मानना था
की जिस चीज़ से उनकी पहचान जुडी है उसे भला कैसे बदल ले, और इसी कारण वे ताउम्र
अपने नाम को अपने साथ लिए चलते रहे भले ही उसके चलते उन्हें लाखो परेशानियाँ आई
हो.
अब
आज के ज़माने में एक नया चलन चला है की कई लोग अपने नाम के आगे अपना सर नेम नहीं
लगाते, मुझे लगता है इस बात के पीछे कहीं न कहीं अपनी पहचान छुपाने की बात होती
है, जिससे की उन्हें समाज में मिलने वाले अपमान से निजात मिल सके, हो सकता है इसके
पीछे और भी कई कारण हो पर शायद सबसे प्रमुख कारणों में से एक यह भी जरुर है.
ऐसी
ही और भी बाते है जो लेखक ने की है और विचार शक्ति को उद्वेलित किया है. आज जूठन
पढने के बाद और आज के समाज से तुलना करने बाद यह बात एकदम दिख रही है की हम चाहे
लाख नारेबाजी कर ले, झूठा स्वांग कर ले, मानव की समानता की बात कर ले पर हम अभी
सदियों पहले की सोच को ही अपने अंतर्मन में जिन्दा रखे हुए है, तभी तो आज राजस्थान
के किसी विद्यालय का प्राचार्य सिर्फ इसलिए हम लोगो के साथ बैठ के नहीं खाता की उस
खाने को किसी तथाकथित छोटी जाति के बच्चे द्वारा परोसा गया है, या फिर मकान किराये
पर देने से पहले उसकी जाती पूछी जाति है, या उत्तर प्रदेश में एक दलित नेत्री के शासन
काल में उसी को गाली दी जाती है महज इसलिए की वो दलित है और फिकरा कसा जाता है की नीच और निम्बू
की जितना दबाया जाये उतना
रस निकलता है.
आज
हमें यह विचार करने की महती आवश्यकता है की हम कहाँ जा रहे, और हमें कैसा समाज
चाहिए या फिर इसे कैसे बदला जाए अगर ऐसा नहीं होगा तो फिर कोई लेखक जूठन जैसी
पुस्तक लिखने को मजबूर होगा, फिर किसी को अपमानित होकर
अपना नाम बदलना पड़ेगा और हम जैसे लोग बैठे-बैठे ऐसे ही किताब को पढ़कर उनपर विचार
करते रहेंगे.
नाम - विपिन कुमार पाण्डेय
जन्म स्थान- गोरखपुर , उत्तर प्रदेश
वर्तमान में राजस्थान के बाड़मेर जिले में , अजीम प्रेमजी फाउंडेशन में कार्यरत (शिक्षक प्रशिक्षण का कार्य)
कविता लेखन , और पुस्तक पठन में रूचि.
मो.-9799498911
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