"हम लड़कियों को भी समझा जाए" ये शीर्षक उस लघुनाटिका का है जिसे कल मंचित किया गया दिल्ली के कीर्तिनगर इलाके के आर्य समाज मंदिर में ,इस मंचन की एक विशेषता यह थी कि यह नाटिका रंग मंच के कलाकारों द्वारा नहीं बल्कि मलिन बस्तियों में रहने वाली बच्चियों द्वारा मंचित की गयी..... अवसर था फर्गुदिया द्वारा संचालित डायरी लेखन में लगी मलिन बस्तियों में रहने वाली लड़कियों द्वारा अपनी एक अन्य रचनात्मकता के प्रदर्शन का .नाटिका का लेखन और निर्देशन उन्ही बच्चियों में से एक ,प्रियंका द्वारा किया गया था....अद्भुत अकल्पनीय जैसे शब्द तो नहीं प्रयोग करुँगी मैं ,लेकिन जो देखा और सुना वो झकझोर देने वाला जरुर था .लगभग पंद्रह मिनट की उस छोटी सी नाटिका में बच्चियों ने अपनी घुटन ही नहीं कही बल्कि बिना प्रयास,बालिका ,शिक्षा ,सुरक्षा ,घेरलू श्रम जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को भी छुआ
एक पांच वर्ष की बच्ची जानती है की वो बाहर असुरक्षित है ,एक और स्त्री है जिसने अब तक सिर्फ "ठीक है "कहना ही सीखा है , उसका प्रश्न करना सीखना अभी बाकी है ,एक किशोरी है,जो खुद के भीतर उमड़ते सामजिक लिंग भेद के प्रश्न से जूझ रही है ऐसी तमाम बच्चियां हैं वहां जो तमाम जलते हुए प्रश्न लेकर हमारे सामने आयीं और हमें अनुत्तरित छोड़ कर चली गयी ,संक्षेप में कहूँ तो एक मुकम्मल कोशिश थी .अपने जिए और भोगे को कहने की
नाटिका के.मंचन के बाद बच्चियों ने अपनी लिखी डायरी पढ़ी ,सब कुछ जो सुना, वो लिखना यहाँ संभव नहीं हैं बेहद मार्मिक हैं वे डायरियां ,उनमे खोता हुआ बचपन है जूझता हुआ बाल श्रम है अपने अस्मिता को लेकर सवाल करती किशोरियाँ हैं .......
बस एक लाइन आप लोगों को जरुर पढाना चाहूँगी जो कल से मेरा दिमाग मथ रही है
भला बच्चों की खुशियाँ ऐसी भी होती हैं
एक बच्ची लिखती है ."आज मैं बहुत खुश हूँ क्यूंकि आज पापा ने शराब पीकर गाली नहीं बकी".....
वरिष्ठ साहित्यकार और समाज सेविका सुधा अरोरा जी की स्नेहमयी उपस्थिति ने कार्यक्रम को और भी गरिमामय बना दिया सुधा जी ने अपने बेहद संक्षिप्त और सार गर्भित वक्तव्य में
बच्चियों को जीवन के अनेक सूत्र थमाए .उन्होंने अपनी कुछ बेहद खूबसूरत कवितायें भी सुनायी .
ऐसे कार्यक्रम दिल्ली में होते रहने चाहिए .और लोगों को, इस तरह के कार्यक्रमों से जोड़ा जाना चाहिए ,इसके लिए फर्गुदिया की संचालिका शोभा मिश्रा जी विशेष साधुवाद की पात्र है.
- मृदुला शुक्ला