Tuesday, August 27, 2013

‘अन्हियारे तलछट में चमका ’-अल्पना मिश्र


अल्पना मिश्र के उपन्यास  ‘अयारेन्हि तलछट का ’ में चमका अंश -    
आधार प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य
फूल लाया हूँ   कमल के.....
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- अल्पना मिश्र






हिंदी कहानियों में अल्पना मिश्र एक स्थापित नाम हैं ..अपने तीन कहानी संग्रहों के बाद पहली बार वो एक उपन्यास के माध्यम से हमसे मुखातिब हैं ..."भीतर का वक्त", "छावनी में बेघर", "कब्र भी, कैद औ जंजीरें भी" कहानी संग्रह के बाद आधार प्रकाशन से उनका पहला उपन्यास ‘अन्हियारे तलछट में चमका ’ शीघ्र प्रकाशित होने वाला है !

उपन्यास का कुछ अंश आप फरगुदिया पर पढ़ सकतें हैं .. अल्पना जी का आभार
!



    यह भी एक उमस भरी दोपहर थी। दिन भर के काम धाम से थकी सुमन खटिया के पायताने सिर टिका कर बैठी थीं। कहीं अदृश्य में उनकी दृष्टि अटकी थी। कभी कभी माथे पर अंगुलियों और अंगूठे से थोड़ा दबाव डालती थीं । कोई दर्द वहा बैठा था, ऐसा लगता था। दो एक बार खटिया के पायतान पर सिर टिकाए सोने का प्रयत्न भी कर चुकी थीं। पर उमस इतनी थी कि सोना मुश्किल लगता था। दूसरे, खटिया पर लेटी उनकी सास उनके सोने के प्रयत्न को विफल कर देती थीं। तत्क्षण उन्हें हल्का सा धक्का दे कर उठा देतीं ओर पंखा झलने का संकेत करतीं। उसी पंखे के सहारे तो वे जरा सा झपकी ले पा रही थीं। बेंत या बाॅस से बुना और रंग बिरंगे कपड़ों की झालर से सजा पंखा नहीं था, अखबार था, जिसे मोड़ कर पंखा बना लिया गया था। इसी से वे खाट के उपर के प्राणी को हवा कर रही थीं। बीच बीच में यह हवा अपनी ओर भी कर लेती थीं। उसी बीच में खाट का प्राणी झल्ला उठता-‘‘तनि हवा करतू!’’

वे फिर अपना सिर सहलाने और हवा को अपनी तरफ करने के प्रति लापरवाह हो उठतीं।
‘‘हे प्रभु!’’ धीरे से उनके मुॅह से निकला। इसका अर्थ ‘ईश्वर’ नहीं था। इसका अर्थ ‘थकान’ था। ‘प्रभु’ का अर्थ ‘थकान’ हो सकता था, यह सोच कर उन्हें बहुत राहत मिली।

उसी पतले से बारामदे में कपड़े पर बना एक पुश्तैनी दीवार चित्र टॅगा था। यह चित्र मटमैला हो चुका था। यह भी इतिहास का हिस्सा था, चित्र भी और उसका मटमैलापन भी। इस इतिहास को मुन्ना जी के पिता जी, उनके छोटे भाई गिरधारी तिवारी और उनके अन्य भाई और उसके बाद की पीढ़ी गाहे बगाहे सुनाती रहती थी। यह इतिहास जितना सच था उतना ही यह भी सच था कि इस सच्चाई का कोई गवाह था, इसका इतिहास नहीं था। हर कोई किसी गवाह की बात करता था। पर कौन, यह तय नहीं हो पाता। फिलहाल लोगों ने इसे कथाओं और उपकथाओं के घालमेल में से अपने अपने अनुसार निकाल लिया था।

तो बात कुछ इस तरह कही जाती थी कि एक बार बड़के बाबा मतलब गिरधारी तिवारी के पिता जी के पिता के सबसे बड़े भाई बाॅके बिहारी जी के मंदिर से लौट रहे थे, तब रास्ते में परेशान हाल कलकत्ते का सेठ उनसे टकरा गया। हर साल वह बाॅके बिहारी जी से मनौती मान कर जाता था। लेकिन बात बनती नहीं थी। उसका मुकदमा बीसों साल से चल रहा था। कुल धन सम्पत्ति तीव्र गति से इस पर न्यौछावर होती जा रही थी। मामला कंगाली तक न पॅहुच जाए, इस चिंता में सेठ गल रहा था। मुकदमा था उसकी पत्नी के घर वालों की तरफ से, जो यह मानते थे कि उसी ने अपनी पत्नी की हत्या की थी। वह ऐसा नहीं मानता था। बड़के बाबा से भावुक हो कर उसने बताया था कि भला वह क्यों अपनी पत्नी की हत्या करना चाहेगा? इतना काम संभालने वाली औरत थी। कितना पैसा खर्च कर लो, वैसा काम नौकर नहीं कर सकता! फिर अपनी जोरू थी तो कभी कभार किसी बात पर हाथ उठ जाता था। यह भी कोई नई और बड़ी बात नहीं थी। उस दिन जरा ज्यादा चोट लग गयी होगी। हाथ गले पर था, आवेश में जरा ज्यादा दब गया होगा। इतनी सी बात का बतंगड़ बना कर रख दिया है उसके घरवालों ने! उन्हें भी कौन सा प्यार मोहब्बत गलाए जा रहा है? चाहते हैं कि मैं कुछ ले दे के बात रफा दफा कर दूं। पर मैं भी अड़ गया हॅू, कानून के हाथों बरी हो कर निकलूंगा, तब देखेंगे, एक कौड़ी उनके हाथ नही आयेगी, उल्टा उनका भी पैसा ऐसे ही लगेगा, जैसे कि मेरा बहा जा रहा है।’’

बहुत भावुक हो कर सेठ ने कहा-‘‘ कुछ भी कहो, मगर थी तो अपनी बीबी। मैं जैसे चाहता, वैसे रखता। इसमें उसके मायके वाले क्यों कूद पड़े? यही बात गले का कांटा है पंडित जी। मैं तो इन मायके वालों को ही उसकी मौत का जिम्मेदार मानता हॅू। जब तब उसे भड़काते रहते थे और उसे भी देखो तो अपने पति परमेश्वर से ज्यादा मायके वालों की बातों पर यकीन कर लेती थी। यही सारे झगड़ा फसाद की जड़ था।’’
भावातुर सेठ जी रोने को हो आए थे। कहने लगे-‘‘ पंडित जी, भोली थी मेरी बीबी। उसके मायके वालों ने उसे चढ़ाया। शुरू में कुछ न बोलती थी लेकिन इन सबों के बहकावे में आ कर अनाप शनाप बकने लगी। आप ही बतावें, जो खाना दे, पहनने को दे, रहने को हवेली दे, गहने गढ़वावे, उसी को अनाप शनाप.... बतावें, कितना सहन करेगा आदमी? गुस्सा न आयेगा? बस, यही बात थी। मूल दोष उन्हीं लोगों का था और अब मुझे फॅसाना चाहते हैं। मैं भी छोड़ने वालों में से नहीं हॅू। आप से सब सच कह दिया है। बाकी बाॅके बिहारी की कृपा ।’’
बड़के बाबा उसके दुख से दुखी हुए। दुखी हो कर पूछा था कि ‘‘अपनी बीबी थी तो मायके वालों के चक्कर में पड़ने क्यों दिया? मायके वाले तो होते ही ऐसे हैं, दामाद के दुश्मन। उपर से खातिरदारी करते हैं मगर भीतर भीतर घात करते हैं।’’

यह बात सेठ के दिल को छू गयी। वह उनके पैरों पर झुक आया।
‘‘बाबा, आप तो पंडित हैं। आशीर्वाद दें कि मैं इस झंझट से निकल जाउं।’’
बाबा ने अश्रुपूरित नेत्रों से आशिर्वचन उचारे। और संयोग ऐसा बना कि आशीष फलीभूत हो गया। साल बीतते न बीतते सेठ की बीबी का वह भाई, जो जी जान से मुकदमा संभाले था, मर गया और सेठ का मुकदमा मुअत्तल हो गया। सेठ बड़के बाबा को ढ़ूढते हुए आया और गद्गद् भाव से उनके पैरों पर गिर पड़ा। उसकी धन दौलत स्वाहा हो चुकी थी। यही एक पेंटिग थी, जिसे वह गुजरात से लाया हुआ बताता था, उसने आॅखों में आॅसू भर कर बाबा को भेंट किया था। बाॅके बिहारी के प्रति अगाध श्रद्धा इसमें से झलकती थी। मानने वाले ऐसा मानते थे। दूसरा पाठान्तर भी था।

चित्र में बाॅके बिहारी भाव विह्वल से, कमल का फूल थामे खड़े हैं। राधा रानी उनकी तरफ केश खोले, मुॅह दूसरी तरफ किए खड़ी हैं मानो कह रही हों कि ‘लो सजा दो मेरे केश....’
इस पर दूसरे पाठान्तर वालों ने कहा कि ‘जनौ सेठवा बड़ा रसिक रहा। और कौनो चित्र ओकरा के न सूझल!’
कोई कहता-‘‘ का हो, सेठवा भक्त रहल कि प्रेमी? जनात नाहीं! अइसन चित्र भेंट कइलस?’’
‘‘प्रेम भी भक्ति का रूप है।’’ कोई बुजुर्ग टोकता।
‘‘काहे झूठ बोलत हउवा? ननकी के बेरा कइसन गड़ासा ले के काटे दौड़ले रहला!’’ कोई युवा चिढ़ाता।
‘‘चुप सार! जबान लड़ावत हउवा!’’
‘‘सही बात बोले पे डटबा?’’ कोई दूसरा बच्चा मजे ले कर कहता।
विवाद बढ़ने लगता तो बीच में गाने का स्वर गूंजने लगता। पता चलता कि दामोदर जी गा रहे हैं-‘‘ झूठे रे जग पतियाओ.... साॅच कहे तो मारन धायो.... साॅच कहे तो...... झूठे रे जग पतियाओ.....
यह आग लगउवा गीत था। इस पर जो भी पुरानी पीढ़ी का सामने पड़ता, चाहे वह ज्यादातर दूसरे लोक की यात्रा में लीन गिरधारी तिवारी ही क्यों न हों, दो चार गाली दिए बिना न टलता।
‘‘बुढ़वन से गाली गुफ्ता का औरो मजा हौ।’’ मनोहर पूरी मस्ती में कहते।

चित्र चूॅकि वहीं रूक गया था और पाठान्तर को जन्म देता था, इसलिए कल्पना में लोगों ने कृष्ण के एक कदम आगे बढ़ जाने और कमल के बालों में लग जाने को भी सराह लिया था या न लग पाने की कचोट में भी कुछ रह गए थे। इस सब के बावजूद चित्र की साफ सफाई पर किसी का ध्यान नहीं था। चित्र मटमैला हो चुका था। कई जगह से उसके असली रंग का अनुमान नहीं हो पाता था। बल्कि कालान्तर में ऐसा भी होता गया था कि लोगों के ध्यान से उतर गया था कि यहाॅ ऐसा मनोरम भाव चित्र टंगा है! वे भूल चुके थे। भूले हुए उसके सामने से गुजर जाते थे। अभी इस वक्त भी चित्र के सामने दो व्यक्ति चित्र से बिल्कुल ही अनजान गर्मी से परेशान से, कुछ आराम का उपक्रम करने में लगे थे।

ठीक इसी समय दामोदर जी उधर से गुजरे। उनके हाथ में शनि महाराज को चढ़ाने के लिए लाए गए गेंदे के फूल थे। कत्थई पीली पंखुडि़यों वाले। उन्होंने अपनी हथेली का दोना बना कर उसे संभाला था। ये फूल मामूली नहीं थे। किसी के घर की चारदीवारी फाॅद कर उनके गमले में से चुराए गए थे। इसे चारी नहीं कहते थे। इसे चैर्य कला कहते थे। इस कला पर दामोदर जी को अभी फिलहाल नाज़ था। दुनिया इधर से उधर हो जाए पर शनि देवता के लिए फूल चाहिए ही थे। इसके लिए कई बार किसी छोटे बच्चे को बहलाना फुसलाना भी पड़ा था। आज दोपहर के इस वक्त कैसा मौका हाथ लग गया था। वे मन ही मन मुस्कराते हुए गुजर रहे थे कि उनके पाॅव से कोई चीज टकराई। झुक कर देखने लगे कि ससुर है क्या? पाया कि बिलार कल जो कटोरा ले कर भाग गयी थी और जिसके लिए बड़ा कोहराम मचा था, वही कटोरा पड़ा है। वे एक पल को खुश हुए। इसी के लिए त्राहि त्राहि मची थी लेकिन तत्क्षण उनकी खुशी स्थगित हो गई। उसमें रखा बड़की अम्मां का दाॅत वाला डेंचर तो था ही नहीं! चारों तरफ देखा। क्या पता यहीं कहीं पड़ा हो! बिलार का क्या ठिकाना? कहीं छोड़ गयी हो!
इसी चारों तरफ डेंचर की ढ़ूढाई में उनका ध्यान दीवार चित्र की तरफ चला गया। वे पल भर को रूक गए। पहली बार उन्होंने चित्र को इतने गौर से देखा। पहली ही बार उन्हें सचमुच अफसोस हुआ कि कृष्ण कमल का फूल ले कर वर्षों से रूके रह गए हैं। पहली ही बार उन्हें राधा रानी के चेहरे के भाव नजर आए। मनोरम तृप्ति से जगमगाता उनका चेहरा.... वे मंत्रमुग्ध खड़े रह गए। पहली ही बार उनका मन इस तरह भर आया कि वे कृष्ण के देर करने पर खीझे और फूल उनसे ले कर उन खुले सघन केशराशि में सजा देने को एक कदम आगे बढ़े। राधा का प्राचीन वैभव धीरे धीरे उनके आगे साकार होने लगा....

 सामने खटिया के पायताने सिर टिकाए सुमन की आॅख पल भर को लग गयी थी। पंखा बना अखबार हाथ में तब भी झूल रहा था। पसीने की झिलमिलाती बूंदें उनकी आॅखों के नीचे और ढोड़ी पर चमक रही थीं। सुन्दर नील कमल सी उनकी साॅवली त्वचा लावण्य से भर उठी थी। ‘सुन्दर नील कमल’ दामोदर जी के मन में कौंधा। साड़ी का पल्ला हल्का सा नीचे खिसक आया था। बेध्यानी में दो सुन्दर कलश हल्का हल्का हिल रहे थे। सांस की आती जाती गति से नाक भी हल्का हल्का कंपायमान थी। नाक पर नकली पत्थर से मढ़ी लौंग थी। नकली पत्थर किसी असली हीरे सा जगमगा रहा था। पाॅव ढका था पर अंगुलियाॅ थोड़ा थोड़ा झाॅक रही थीं। खुली झाॅकती अंगुलियाॅ किसी बच्चे सी नटखट लग रही थीं। ब्लाउल की काॅख पर पसीने का बड़ा सा गोला उभर आया था। थकी हुयी उंघती स्त्री, इससे पहले कभी उनके ध्यान में न आयी थी। थकान भी इतनी सुंदर हो सकती है, पहली बार दामोदर जी देख रहे थे। खिंचे, बॅधे, चित्रलिखित से.....। थकान के इस पल का नाम राधा रानी भी हो सकता था! या राधा रानी का पर्याय थी थकान! अब तक जैसे उन्होंने यह दीवार चित्र देखा ही न था! अब तक जैसे उन्होंने इतनी पस्त स्त्री देखा ही न था! उनकी हथेलियों का दोना कत्थई पीली पंखुडि़यों वाले फूलों से भरा था। वे एक कदम आगे बढ़े, फिर हिचक गए। नहीं, इस पल के विश्राम को किसी भी थके आदमी से नहीं छीना जा सकता!

उन्होंने आॅखे मूंद लिया। हृदय में राधा रानी जाग उठीं। उनकी हथेलियों से कब कत्थई पीली पंखुडि़यों वाले फूल धीरे धीरे राधा रानी की अभ्यर्थना में गिरने लगे, उन्हें ख्याल तक न रहा।
कत्थई पीली पंखुडि़यों वाले फूलों के खुली अंगुलियों पर गिरने से तत्क्षण राधा रानी की आॅखें खुल गयीं। तत्क्षण दामोदर जी की भी आॅख खुल गयीं।


- 55 कादम्बरी अपार्टमेंट
सेक्टर - 9 ,रोहिणी, दिल्ली- 85
मो. 9911378341




Tuesday, August 13, 2013

"डायरी लेखन सम्मान समारोह - २०१३ "- रिपोर्ट

"डायरी लेखन सम्मान समारोह - २०१३ " रिपोर्ट -
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दिनांक १०/०८/२०१३ को मानसरोवर गार्डन स्थित आर्यसमाज मंदिर में "डायरी लेखन सम्मान समारोह " आयोजित किया गया जिसमें झुग्गियों में रहने वाली लड़कियों को उनके लेखन के लिए सम्मानित किया गया । इस समारोह का आयोजन गैर-सरकारी एवं सामाजिक संगठन फरगुदिया समूह द्वारा किया गया.

विदित हो कि कुछ माह पहले फरगुदिया समूह द्वारा झुग्गी में रह रही महिलाओं और लड़कियों को लेखन हेतु प्रोत्साहित करने के लिए डायरी उपहार स्वरुप भेंट की गयीं थीं । इस प्रोत्साहन का सकारात्मक परिणाम सामने आया जब उन लड़कियों ने अपने विचार और अपने सपनों को इन डायरियों में लिखना शुरू किया । कुछ ने तो अपने भाव कविताओं में व्यक्त किया । ऐसी और लड़कियों को पढ़ने-लिखने के साथ अपनी रचनात्मकता को बाहर लाने के लिए इस समारोह का आयोजन किया गया । जिन लड़कियों ने पहले से अपनी डायरी लिखी थी उन्हें प्रतीक-चिन्ह , प्रमाण-पत्र और कुछ पुस्तकों के साथ सम्मानित किया गया तथा आर्थिक सहयोग भी दिया गया .



कार्यक्रम में काजल,ज्योति,प्रेमा,प्रियंका,पूनम ने अपनी डायरी अंश का पाठ भी किया, डायरी लेखिकाओं में रूबी, रितु और परवीन निजी कारण से और दिल्ली से बाहर होने की वजह से कार्यक्रम में उपस्थित नहीं हो सकीं, परवीन को तीसरी कक्षा तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद कुछ निजी कारणों की वजह से पढ़ायी छोडनी पड़ी, सोलह वर्षीय परवीन सब्जी बेचने में अपने पिता की मदद करतीं हैं, परवीन आगे और पढना चाहतीं हैं , फिर से स्कूल जाना चाहती हैं , परवीन के पिता नशा करतें हैं जिसकी वजह से परवीन और घर के सभी सदस्य तनाव में रहतें हैं, नन्ही परवीन ने अपने नाजुक कन्धों पर गृहस्थी का बोझ उठाया हुआ है , इन्ही सब समस्याओं का जिक्र परवीन ने अपनी डायरी में किया है, 21 वर्षीय रूबी विवाहित हैं , बचपन से लेकर युवावस्था तक रूबी का जीवन किस तरह संघर्ष में बीता ,इसका जिक्र रूबी ने अपनी डायरी में किया है, छः वर्ष की खेलने-कूदने की उम्र में रूबी सुबह तीन बजे उठकर सड़क किनारे अपने पिता के संग चाय बेचती थी और उसके बाद वही सड़क किनारे तैयार होकर स्कूल चली जाती थी, आर्थिक तंगी की वजह से कभी -कभी रूबी और उसके परिवार को भूखे पेट भी सोना पड़ा . लगभग बारह- तेरह वर्ष की उम्र में रूबी के माता -पिता ने उसका विवाह कर दिया , विवाह के बाद इतनी छोटी उम्र में भी रूबी की वही छः वर्ष की उम्र वाली दिनचर्या थी , पहले वो तीन बजे उठकर अपने पिता के व्यवसाय में उनकी मदद करती थी , अब वो चार बजे उठकर पहले अपने ससुराल वालों के लिए खाना बनाती है , उसके बाद दूसरों के घरों में काम करने जाती है . अभाव में रहते हुए.. संघर्ष करते हुए रूबी जिस तरह अपना जीवन व्यतीत कर रही है उसी का जिक्र अपनी डायरी में किया है . पंद्रह वर्षीय काजल ने अपनी डायरी में गद्य के साथ- साथ पद्य में भी बहुत सुन्दर और गंभीर कवितायेँ लिखीं हैं, काजल कार्यक्रम में उपस्थित थी , उन्होंने डायरी में लिखी बेहद खूबसूरत कविता "नए मांझे" का पाठ किया , डायरी पढ़ते हुए वो भावुक भी हो गयी , उसके रोने से कार्यक्रम में उपस्थित सभी लोग भावुक हो उठे , काजल नौवीं कक्षा की छात्रा हैं. कार्यक्रम की मुख्य अतिथि वरिष्ठ कवयित्री सुमन केसरी जी ने सभी लड़कियों के लेखन को सराहते हुए उन्हें उज्जवल भविष्य की शुभकामनायें दीं और लड़कियों के लिए अपनी बनायीं पाठ्यपुस्तकें सरगम और स्वरा फरगुदिया समूह को भेंट की . कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहें वरिष्ठ व्यंगकार डॉ हरीश नवल जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि " जिस घर में बेटियाँ ना हों वो घर रेगिस्तान की तरह होता है", डायरी लिख रही लड़कियों को प्रोत्साहित करते हुए उन्होंने कहा कि आजकल लडकियां हर क्षेत्र में आगे जा रहीं हैं , आत्मविश्वाश और लगन से आप सब भी अपने भीतर छिपी प्रतिभा को मूर्त रूप दो । कार्यक्रम में उपस्थित लेखिका रमा भारती जी ने भी लड़कियों को संबोधित करते हुए उनका हौसला बढाया । इन लड़कियों को बोधि प्रकाशन द्वारा भेजी गयी पुस्तकें भेंट की गईं, साहित्यिक पत्रिका मगहर के संपादक मुकेश मानस जी ने अपने आरोही प्रकाशन के कविता संग्रह और कुछ अन्य पुस्तकें लड़कियों को भेंट की, ग़ज़लकार आनंद द्विवेदी जी ने भी अपना ग़ज़ल संग्रह लड़कियों को भेंट किया । कार्यक्रम के अंत में फरगुदिया समूह की सदस्य और संयोजक डॉ वंदना ग्रोवर जी ने सभी के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया ।

कार्यक्रम का संचालन समूह की संस्थापिका शोभा मिश्रा ने किया । दीपक, चंद्रकांता,निरुपमा सिंह,सरोज सिंह, इंदु सिंह, सुशील कृष्नेत, अंजू शर्मा, मृदुला शुक्ला,राघव विवेक पंडित, रविन्द्र के दास, सरिता दास, , प्रगति मिश्रा, परिक्रमा, आयुशी आदि लोगों की उपस्थिति और सहयोग से कार्यक्रम सफलतापूर्वक संपन्न हुआ .


शोभा मिश्रा
संचालिका/संस्थापक

फरगुदिया समूह

Friday, August 02, 2013

प्रेमचन्द जयंती (३१ जुलाई) पर उन्हें याद करते हुए - सरोज सिंह

प्रेमचन्द  जयंती (३१ जुलाई) पर उन्हें याद करते हुए
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समाज की कड़वी हक़ीकतों को भोगने वाला वो अफ़साना निगार जिसके अफ़सानों को आज भी पढ़ने पर ज़ुल्म,भूख,गरीबी,मज़बूरी,के पैरहन में लिपटे किरदार हमारे सामने ज़िंदा हो, ज़ेहन को झकझोर देते है !
हर उम्र,जात और तबके का आदमी उसके अफ़साने में खुद को खड़ा पाता हैं !ऐसा नहीं कि आज का कलमकार इन मौंजू पर नहीं लिखता बेशक लिखता है! अलबत्ते इसी कलम के ज़ोर पे इत्मीनान बख्श शोहरत और पैसे कमाता है! मगर उनमे, मुफ़लिसी जीने और लिखने का फ़र्क साफ़ नजर आता है!!
ऐसे में कलम का सिपाही" "मुंशी प्रेमचंद याद आता है

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अपने सपनों के परों को काटकर
नन्हा "हामिद" रोटी से जले......दादी के हाथों पर
चिमटे का मलहम रखता है
वृद्धाश्रम में रहने वाली
जाने कितनी दादियों की नज़रें
अपने "हामिद" को ढूँढती नज़र आती हैं
और "हामिद" अपने से बड़े सपनों के पीछे
भागता नजर आता है .
ऐसे में मुंशी तेरा "ईदगाह" याद आता है !

बदले नहीं है आज भी "बुधिया" के हालात
वो आज भी कमरतोड़ मेहनत कर
परिवार का दोजख भरती है
और थकन से चूर,ज़ुल्म के प्रसव से तड़पती है
और उसका पति........
अपना दिहाड़ी देसी ठेके में गँवाकर
नशे में धुत्त नाली में गिरा नजर आता है
ऐसे मे मुंशी तेरा "कफ़न" याद आता है !

"जालपा" के चन्द्रहार की हसरत,
उसके पति से ग़बन करवाती है
हसरतें, सभी तबक़े की एक सी हैं आज भी
छोटा आदमी बड़ा और ......
बड़ा आदमी और बड़ा होना चाहता है !
बड़ा आदमी बड़े से बड़े घोटाले कर
आसानी से पचा जाता है
छोटा आदमी चंद रुपयों के एवज
चोरी,घूसखोरी,बेइमानी करता पकड़ा जाता है
ऐसे में मुंशी तेरा "ग़बन" याद आता है !

यूँ तो हाक़ीम-हुक़ुमतों औ ज़ालिम-ज़ुल्मतों का
ज़माना ना रहा मगर
अब भी गाँव का "होरी" कर्ज़ के बोझ से लदा,
ज़िन्दगी से खफ़ा नज़र आता है !
वो जो अपनी ज़मीन पर बैल सा जुता नजर आता था
अब अपनी ही ज़मीं पर औरों की इमारत ढोता नजर आता है
और गुज़र करने को खून बेच दो जून की रोटी कमा लाता है
ऐसे में मुंशी तेरा "गोदान" याद आता है !

राजनीति में शोषण,शोषण की राजनीति बदस्तूर जारी है
प्यास से तड़पता जोखू
कुँए का गन्दला पानी पी जाता है
जैसे गरीब बच्चे "मिड-डे-मील"
खाने को मजबूर हो जाते हैं
तब कुएं में मरा जानवर गिर जाता था
अब उनके खाने में
मरी छिपकली और चूहा निकल आता है
ऐसे में मुंशी तेरा "ठाकुर का कुआं" याद आता है !
~s-roz~

Thursday, August 01, 2013

प्‍यारी लड़कियों- मनीषा पाण्डेय

मनीषा पाण्डेय     

"मैं कम से कम दस ऐसी लड़कियों को जानती हूं, जिन्‍होंने अपने थोड़े प्रोग्रेसिव और थोड़े फ्यूडल पैरेंट्स से आसानी से लड़ाई लड़ी, जो अपने घरों से बाहर निकलीं, दूसरे शहरों में पढ़ने गईं, अच्‍छी नौकरी की, ठीक-ठाक पैसा कमाया। सारे सामंती रिश्‍तों को कहा, ''आउट''।
लेकिन उस लड़के को पांच साल तक नहीं कह पाईं, ''आउट'', जिससे वो प्रेम करने लगी थीं।
बीस साल की उम्र में प्रेम पाने की ऐसी अदम्‍य कामना थी, जो मां-पापा और घर के तमाम प्‍यार करने वाले लोग पूरी नहीं कर सकते थे।
वो सारी कामनाएं, जो वो लड़का पूरा करता था। लेकिन जो हर मामले में बहुत सामंती और controlling था। लड़कियां उसे नहीं कह सकीं, ''आउट''।"
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प्‍यारी लड़कियों,
अगर तुम इस लड़ाई में इसलिए शामिल नहीं हो क्‍योंकि तुम्‍हें लगता है कि

- जिस लड़की के साथ गैंगरेप हुआ, वो तुम नहीं हो
- कि जिस लड़की के मुंह पर तेजाब फेंका गया, वो तुम नहीं हो
- कि जिस लड़की को दहेज के लिए जलाकर मार डाला गया, वो तुम नहीं हो
- कि जिस औरत का पति उसे रोज या साल में कभी एक बार ही सही, पीटता है, वो तुम नहीं हो
- कि जो लड़की महंगी पढ़ाई इसलिए नहीं कर पाई कि पापा सिर्फ भाई की फीस भर सकते थे, वो तुम नहीं हो
- कि जो दिन रात घर-गृहस्‍थी के चूल्‍हे में फुंक रही है, वो तुम नहीं हो
- कि घर में अच्‍छी सब्‍जी और मिठाई जिसकी थाली में सबसे कम आती है, वो तुम नहीं हो
- कि दो घंटे लोकल टेन में सफर करने के बाद घर पहुंचते ही जो और सबसे पहले रसोई में घुसती है, वो तुम नहीं हो
- कि जिसके पति ने कभी बिस्‍तर पर उसकी भावनाओं और जरूरतों का ख्‍याल नहीं रखा, वो तुम नहीं हो
- कि पीरियड्स के समय भी जो रोज की तरह घर और ऑफिस में खटती है, वो तुम नहीं हो
- कि जिसके पेट का बच्‍चा गिराया गया क्‍योंकि वो लड़की थी, वो तुम नहीं हो
- कि सफदरजंग अस्‍पताल के वुमन वॉर्ड से जो अभी-अभी अबॉर्शन करवाकर बाहर निकली थी और उसका पति उसे कह रहा था, "तेज-तेज चलो," वो तुम नहीं हो

तो तुमसे बड़ी अभागी कोई नहीं है।
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- मैं मां से तेज आवाज में बात करने वाले, उन्‍हें डांटने और उन पर चिल्‍लाने वाले पापा को रिजेक्‍ट करती हूं।
- मैं मां पर हाथ उठाने वाले पापा को रिजेक्‍ट करती हूं।
- मैं मां को दिन भर आदेश देने वाले पापा को रिजेक्‍ट करती हूं।
- मैं मां को यह कहने वाले कि ''तुम चुप रहो, तुम्‍हें क्‍या आता है,'' पापा को रिजेक्‍ट करती हूं।
- मैं अपना गंदा अंडरवियर बाथरूम में छोड़कर आने वाले पापा और भाई दोनों को रिजेक्‍ट करती हूं।
- मैं खाना खाकर अपनी थाली टेबल पर सरका देने वाले पापा और भाई को रिजेक्‍ट करती हूं।
- मैं खाना पसंद न आने पर थाली फेंक देने वाले पापा को रिजेक्‍ट करती हूं।
- मैं अपनी जाति में मेरे लिए दूल्‍हा ढूंढने वाले पापा को रिजेक्‍ट करती हूं।
- मैं भाई को सारी संपत्ति और मुझे दहेज देने वाले पिता को रिजेक्‍ट करती हूं।
- मैं दादू की सारी प्रॉपर्टी अकेले हड़प कर लेने और बुआ को कुछ भी न देने वाले पापा को रिजेक्‍ट करती हूं।
और अंत में
- मैं मुझे ''चुप रहो, धीरे बोलो, धीरे चलो, धीरे हंसो, छत पर मत जाओ, घर में रहो, लड़कों से बात मत करो, दुपट्टा ओढ़ो, पीरियड्स का स्‍टेन छुपाओ'', कहने वाली मां को भी रिजेक्‍ट करती हूं।
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1- देश, सरकार और कानून से पहले मैं अपने घर में अपनी आजादी और बराबरी हासिल करूंगी।
2- घर में मेरे और मेरे भाई के लिए अलग-अलग नियम नहीं होगा। घर के भीतर और बाहर मुझे वह सब करने का हक है, जो हक भाई को है।
3- पापा मां से तेज आवाज में, चिल्‍ला कर या कभी डांटकर भी बात नहीं करेंगे। हाथ उठाना तो बहुत दूर की बात है। मैं ऐसा होने नहीं दूंगी। मैं मां पर हाथ उठाने वाले पापा को रिजेक्‍ट करती हूं।
4- घर के सारे काम साझे होंगे। पापा और भाई को भी घर के कामों में मां का हाथ बंटाना होगा।
5- मेरी पढ़ाई और कॅरियर बहुत कीमती है। मुझे अपने पैसे कमाने हैं और अपना घर बनाना है।
6- पिता की संपत्ति में मेरा और भाई का बराबर का हक होगा। मैं हर उस कौड़ी को लात मारती हूं, जो मेरे दहेज के नाम पर जमा की जा रही है।
7- मैं प्रेम करूंगी। अपनी शादी का फैसला सिर्फ और सिर्फ मैं लूंगी। मैं जाति और धर्म नहीं मानती। घर में भी कोई पंडिताई या ठकुरैती बघारेगा तो मैं उसे रिजेक्‍ट करती हूं।
8- मैं उन सारे रिश्‍तेदारों चाचा-मामा-नाना-काका-ताया-बुआ को रिजेक्‍ट करती हूं, जो जाति, धर्म, पितृसत्‍ता और संसार का सारा कचरा अपने दिमाग में लेकर चलते हैं।
9- मैं अपने ऊपर लगे मां-बहन-बेटी-पत्‍नी-बहू के सारे टैग्‍स को रिजेक्‍ट करती हूं। मैं सबसे पहले एक इंसान हूं और मुझे बराबरी और सम्‍मान से जीने का हक है।
10- मैं अच्‍छा पैसा कमाने वाले पति की सुविधाओं और पैसे को रिजेक्‍ट करती हूं। मैं उन तमाम ऐशो-आराम के लालच को रिजेक्‍ट करती हूं।
11- मैं सुंदरता के उन सारे मानदंडों को रिजेक्‍ट करती हूं, जो टेलीविजन और विज्ञापन मुझे बताते हैं। मैं अपनी सुंदरता के पैमाने खुद गढूंगी।
- मैं सबसे पहले अपने घर के भीतर एक इंसान बनूंगी।
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"मेरे मुहल्‍ले का एक लड़का अकसर सड़क पर मेरे साथ छेड़खानी करता था। एक दिन मैंने उसे बीच सड़क पर ही पीट दिया। घर आकर बताया कि उसे पीटकर आई हूं।
मां डर गईं।
पापा ने कहा, "शाबास।''
फिर एक दिन यूनिवर्सिटी के सामने एक लड़का मेरी छाती पर कोहनी मारकर चला गया। मैंने उसे बीच सड़क ही दम भर थूरा। घर आकर बताया।
मां डर गईं।
पापा ने कहा, ''शाबास।''
फिर पापा बोले, तुम अपने पास एक चाकू रखा करो। छेड़ने वाले को मारकर भी आओगी तो मुझे गर्व होगा।
मां डरती ही रहीं। आज भी डरती हैं।
हमें डरना छोड़ना होगा, अपनी इस देश की लाखों डरी हुई मांओं ओर लड़कियों का डर भगाने के लिए।"
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"आनंद पटवर्द्धन की फिल्‍म ''जय भीम कॉमरेड'' में एक मराठी गीत है। गीत के बोल तो याद नहीं, लेकिन उसका सार कुछ यूं है।

ब्रिटेन से एक अंग्रेज गवर्नर हिंदुस्‍तान आया और रात के नौ बजे महात्‍मा गांधी से मिलने गया। गांधी के चाकरों ने उसे दरवाजे पर ही रोक दिया। बोले, ''बापू सो रहे हैं।''
फिर गवर्नर रात के ग्‍यारह बजे मुहम्‍मद अली जिन्‍ना से मिलने पहुंचा। जिन्‍ना के दरबान ने उसे गेट पर ही रोक दिया। बोला, ''ये साहब के सोने का वक्‍त है।''
अब गवर्नर रात के दो बजे बाबासाहेब आंबेडकर से मिलने पहुंचा। बाबा साहेब ने खुद ही दरवाजा खोला। गवर्नर चौंक गया। बोला, "अरे, गांधी, जिन्‍ना सब तो सो रहे हैं और आप जाग रहे हैं।"
बाबासाहेब बोले, "उनके लोग जाग रहे हैं इस‍लिए वो सो रहे हैं। मेरे लोग सो रहे हैं, इसलिए मैं जाग रहा हूं। उन्‍हें जगाने के लिए।"

हमारी बहुत सारी बहनें, हजारों लड़कियां, औरतें, माएं - सब सो रही हैं। इसलिए हमें जागना होगा, उन्‍हें जगाने के लिए।"
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"मेरी मां गैंग रेप की घटना के बाद मुझे लेकर और ज्‍यादा डरने लगी हैं। दिन-रात फोन करके पूछती रहती हैं कि मैं कहां हूं, घर पहुंची की नहीं। उन्‍हें इस शहर पर भरोसा नहीं, मर्दों पर तो कतई नहीं। डरी हुई मेरी मां दिन-रात डर में जीती हैं और मुझे भी डराती रहती हैं।
लेकिन मैंने और हम सब लड़कियों ने तय किया है कि हम डरेंगे नहीं। न घरों से बाहर निकलना छोड़ेंगे, न अपनी आजादी, न अपना स्‍पेस। हम अपनी सुरक्षा के हर उपाय करना सीखेंगे, लात लगाना सीखेंगे, जूता चलाना सीखेंगे। लाल मिर्च पाउडर और चाकू अपने साथ लेकर निकलेंगे। लेकिन हिंदुस्‍तान के शूरवीर हरामियों के आगे सरेंडर नहीं करेंगे।"
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जिला बस्‍ती, उत्‍तर प्रदेश के मिश्रा जी बुढ़ा रहे हैं, लेकिन खुद जैसे-जैसे बुढ़ा रहे हैं, सोच रहे हैं कि उनकी बीवी जवान हो रही है। दिन भर ऑर्डर लगाते रहते हैं -

- चाय लाओ।
- पानी लाओ
- अखबार कहां है
- अरे मेरा चश्‍मा
- जरा वो गिलास तो उठा देना (गिलास उनकी पिछाड़ी जितनी दूरी पर टेबल पर रखा है, लेकिन उसे उठाने के लिए ससुर रसोई में बीवी को आवाज लगाते हैं)
- मेरे तंबाकू की डिब्‍बी कहां गई
- जरा तेल तो दो
- कंघी कहां है
- जरा बाम तो उठाकर देना
- (खाना खाते वक्‍त) अचार लाओ, चटनी लाओ, दही लाओ, पापड़ भी दे दो, एक हरी मिर्च देना

पत्‍नी डायबिटिक मिश्रा जी की दिलोजान से दिन-रात सेवा करती हैं। मिश्रा जी को फर्क ही नहीं पड़ता कि उनकी बुढ़ा रही बीवी मेनोपॉज के बाद के भयानक असर से जूझ रही हैं। हॉर्मोन से मिलने वाली ताकत बंद। लेकिन मिश्रा जी को क्‍या,
वो आदेश दिए जा रहे हैं और मिश्राइन दौड़ लगा रही हैं। पति परमेश्‍वर का रूप जो होता है।
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बहुत से पुरुष मुझसे ये सवाल पूछ रहे हैं कि क्‍या पढ़ी-लिखी, आत्‍मनिर्भर और अपना पैसा कमाने वाली आजाद औरतें किसी बेरोजगार पुरुष से शादी करना चाहेंगी, जैसेकि पढ़ा-लिखा, आत्‍मनिर्भर और अपना पैसा कमाने वाला पुरष बेरोजगार स्‍त्री से शादी करता है।

चलिए पहले बेरोजगार स्‍त्री के दिन भर के कामों की एक लिस्‍ट बनाते हैं-

1- सुबह सबसे पहले उठकर आपके लिए चाय-कॉफी बनाती है
2- आपके बच्‍चों को तैयार कर स्‍कूल भेजती है
3- फिर आपके लिए नाश्‍ता बनाती है, खाना बनाती है, आपका टिफिन बनाती है
4- आपको तो अपने तौलिए, मोजे, रूमाल और चड्ढी का भी पता नहीं होता। आपकी हर चीज औरत संभालती है।
5- दिन भर में एक हजार बार पसारा हटाती है, हर चीज संभाल-संभालकर जगह पर रखती रहती है।
6- आपको तो अपना गीला तौलिया सुखाना भी नहीं आता, आपके मोजे बदबू मारें। एक काम अपना या घर का आप तमीज से कर नहीं सकते। सब औरत करती है।
7- आपका बच्‍चा नौ महीने अपने पेट में रखती है, हजार तकलीफें झेलती है। आप फोकट में बाप बने इतराते हैं
8- ऑफिस से लौटकर आप टीवी देखते हैं, ज्ञानी हुए तो बेडरूम में साफ, सुंदर, सजीले बिस्‍तर पर टांग फैलाकर किताब पढ़ते हैं। (बेडरूम साफ, सुंदर, सजीला हवा में नहीं हो गया। किसी की मेहनत है उसके पीछे। )
9- औरत घर के सारे काम निपटाती है, बच्‍चों को सुलाकर सबसे आखिर में सोती है।
10- आपकी मर्जी हुई तो आपके सुख-आनंद का साजो-सामान भी जुटाती है। आप बिना ये पूछे- जाने कि उसे सुख मिला या नहीं, बेपरवाही से नाक बजाते सोते हैं।
11- सुबह सबसे पहले जागी औरत रात में सबसे आखिर में सोती है।
12- और इन सबके बावजूद घर में सबसे ज्‍यादा टेकेन फॉर ग्रांटेड वही है।

तो बेरोजगार पुरुषों, आपसे शादी करने में हमें कोई एतराज नहीं। शर्त यही है कि औरत के ये सारे काम आपको करने होंगे। और हां, आपको टेकेन फॉर ग्रांटेड तो जरूर ही लिया जाएगा।

मंजूर है ?
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शोषण और गैरबराबरी की हर लड़ाई में दुश्‍मन की साफ शिनाख्‍त जरूरी है।

1- वर्ग संघर्ष में दुश्‍मन साफ है। बुर्जुआ और सर्वहारा दोस्‍त नहीं हो सकते।
2- ऊंची जाति और रक्‍त शुद्धता के अहंकार में डूबा हुआ सवर्ण दबाए गए लोगों का साफ दुश्‍मन है।
उसके साथ जिंदगी बिताने की मजबूरी नहीं। उसे रिजेक्‍ट किया जा सकता है।
3- बहुसंख्‍यक हिंदू अपने घटिया दंभ में लहराते रहें। उन्‍हें दुत्‍कारा जा सकता है। मुसलमान कम से कम अपनी निजी जिंदगी में किसी सांप्रदायिक व्‍यक्ति को नकार सकता है।

लेकिन औरत का दुश्‍मन कौन है -
- उसे जन्‍म देने वाला पिता
- उसकी उंगली पकड़कर चलना सीखने वाला भाई
- उसके साथ रोज बिस्‍तर साझा करने वाला पति, प्रेमी, ब्‍वॉयफ्रेंड

औरत के इंसान बनने की राह में पुरुष सबसे बड़ी दीवार है, लेकिन एक दुश्‍मन के रूप में उसकी शिनाख्‍त मुश्किल है। वो दुश्‍मन भी है, लेकिन उसी के साथ रहने, जीने, सोने, प्रेम करने की मजबूरी भी।
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शोषण और गैरबराबरी की हर लड़ाई में दुश्‍मन की साफ शिनाख्‍त जरूरी है।
1- वर्ग संघर्ष में दुश्‍मन साफ है। बुर्जुआ और सर्वहारा दोस्‍त नहीं हो सकते।
2- ऊंची जाति और रक्‍त शुद्धता के अहंकार में डूबा हुआ सवर्ण दबाए गए लोगों का साफ दुश्‍मन है।
उसके साथ जिंदगी बिताने की मजबूरी नहीं। उसे रिजेक्‍ट किया जा सकता है।
3- बहुसंख्‍यक हिंदू अपने घटिया दंभ में लहराते रहें। उन्‍हें दुत्‍कारा जा सकता है। मुसलमान कम से कम अपनी निजी जिंदगी में किसी सांप्रदायिक व्‍यक्ति को नकार सकता है।

लेकिन औरत का दुश्‍मन कौन है -
- उसे जन्‍म देने वाला पिता
- उसकी उंगली पकड़कर चलना सीखने वाला भाई
- उसके साथ रोज बिस्‍तर साझा करने वाला पति, प्रेमी, ब्‍वॉयफ्रेंड

औरत के इंसान बनने की राह में पुरुष सबसे बड़ी दीवार है, लेकिन एक दुश्‍मन के रूप में उसकी शिनाख्‍त मुश्किल है। वो दुश्‍मन भी है, लेकिन उसी के साथ रहने, जीने, सोने, प्रेम करने की मजबूरी भी।
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ये फेमिनिस्‍ट आजादख्‍याल इमेज ही तो उन स्त्रियों की जीवन भर की कमाई है। वो ये कैसे दिखा दें कि-

1- घर के भीतर उनके साथ भी बहुत सेटल तरीके से यही सबकुछ होता है,
2- कि उनमें और एक पारंपरिक स्‍त्री में कोई बहुत बुनियादी फर्क नहीं है।

वो इतने सालों से यही इमेज बिल्डिंग तो कर रही हैं। दोस्‍त, आसपास के लोग, पड़ोसी, ऑफिस के सहकर्मी, सब यही समझते हैं कि ये इंडीपेंडेंट लड़की बिंदास और अपनी शर्तों पर जीती है।
अगर उसने बता दिया कि शर्तें तो मर्द की ही हैं तो उसकी सारी इमेज एक मिनट में मिट्टी हो जाएगी। जीवन भर की कमाई है ये इमेज। ऐसे कैसे बर्बाद कर दें।
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"सिर्फ सहमी हुई, पारंपरिक और परनिर्भर स्त्रियां ही अपनी पारंपरिक छवि को बचाए रखने के हजार जतन नहीं करतीं, हाइली एजूकेटेड, कमाने वाली, आत्‍मनिर्भर और फेमिनिस्‍ट इमेज वाली लड़कियां भी अपनी आजाद छवि को बचाने के हजार जतन करती हैं। क्‍या होगा अगर उन्‍होंने स्‍वीकार कर लिया तो कि उनका अपनी मर्जी से चुना गया दुनिया के सामने आजादख्‍याल जीवनसाथी भी
- घर के भीतर निहायत सामंती और कंटोलिंग है
- अधिकांश घरेलू काम अभी भी उसी के हिस्‍से में आते हैं
- साथ रहने के लिए अधिकांश समझौते उसे ही करने पड़ते हैं
- घर और साथ रहने की जिम्‍मेदारियों ने उसके मूवमेंट को सीमित कर दिया है, जबकि लड़का पहले की तरह छुट्टा घूमता है
फिर भी लड़कियां लड़के केा गेट आउट कहने का साहस नहीं कर पातीं। वो भी उतनी ही इनसिक्‍योर हैं, जितनी कि पारंपरिक परनिर्भर स्त्रियां।
और ये उत्‍तर भारतीय लड़कियों के साथ ज्‍यादा होता है। इनसिक्‍यारिटी और अकेलेपन का डर भयानक चीज है।"
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"मुझे मीना कंडास्‍वामी बहुत पसंद है। मुश्किल से 30 साल की यह लड़की - इतनी हिम्‍मती, आत्‍मविश्‍वास से लबरेज, मुंहफट, तेज-तर्रार, खम ठोंककर अपनी बात कहने वाली, किसी से न डरने वाली, न घबराने, न शरमाने वाली।
हिंदी बोलने और हिंदी में लिखने वाली उत्‍तर भारत की कोई एक लड़की बताइए, जिस पर ये सारी उपमाएं फिट बैठती हों।
उत्‍तर भारतीय और हिंदीभाषी समाज ज्‍यादा सामंती और कूढ़मगज है। यहां की लड़कियों की आजादी की लड़ाई ज्‍यादा कठिन होगी।
समझ रही हो न लड़कियों, तुम्‍हारा रास्‍ता ज्‍यादा कठिन है। तुम्‍हारा हाथ पकड़ने, तुम्‍हारे साथ चलने वाले लोग कम हैं। तुम्‍हारा सफर लंबा है। पीठ ठोंककर तैयारी कर लो।"

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देश की सारी लडकियां ऐसे घरों में पैदा नहीं होतीं कि ...

- शहर के सबसे अच्‍छे कॉन्‍वेंट स्‍कूल में पढने जा सकें।
- कि पढाई के साथ-साथ बचपन से ही टेबल टेनिस, स्विमिंग और घुडसवारी जैसे शौक पूरे कर सकें।
- स्‍कूल के महंगे पिकनिक पर जा सकें।
- घर में इतनी सुविधा और आराम हो कि उन्‍हें एक गिलास भी हिलाना न पडे।
- कि शहर के एक पिछडे, मामूली गरीब सबर्ब में उसका घर हो। बहुत सी मामूली इंसानी आजादी सिर्फ इसलिए न मिल पाए कि आसपास का मुहल्‍ला अच्‍छा नहीं है।
- महंगे हायर एजूकेशन की गारंटी सिर्फ इसलिए न हो कि पिता की जेब ही उतनी नहीं है।

और अगर ऐसा है तो 99 फीसदी संभावना यही है कि 25 बरस की उम्र तक अपनी जाति के किसी लडके से तुम्‍हारा ब्‍याह हो जाएगा। आगे की जिंदगी के बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं।

और अगर ऐसा है तो एक बेहतर, आत्‍मनिर्भर, अच्‍छी शिक्षा, संभावनाओं और आजाद फैसलों से भरी जिंदगी का सपना तुम्‍हारी आंखों में नहीं होगा तो किसकी आंखों में होगा।
(जीके टू और वसंत विहार में पैदा होने पर थोडी इंडीपेंडेंस तो अपने आप सुरक्षित हो ही जाती है।)
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लडकियों !

इंडिया गेट से लौटने के बाद तुम्‍हारा अगला एक्‍शन प्‍लान क्‍या है ?

1- स्‍कूल में पढने वाली लडकियों के एग्‍जाम सिर पर हैं। क्‍या तुमने सबसे अच्‍छे नंबरों से पास होने, टॉप करने का लक्ष्‍य बनाया है ?
2- अपने पैरों पर खडे होने, अच्‍छी नौकरी पाने की तुम्‍हारी अगली योजना क्‍या है ?
3- पापा अपनी जाति में तुम्‍हारे लिए सुयोग्‍य वर ढूंढ रहे हैं। क्‍या तुम उन्‍हें ''ना'' कहने वाली हो ?
4- तुम्‍हारी जाति और धर्म से इतर जो तुम्‍हारा ब्‍वॉयफ्रेंड है, पापा उससे तुम्‍हारी शादी के सख्‍त खिलाफ हैं। क्‍या तुम अपने फैसले पर डटी रहने वाली हो ?
5- पापा भाई की इंजीनि‍यरिंग की फीस और तुम्‍हारे दहेज के पैसे जोड रहे हैं। क्‍या सोचा है ? दहेज चाहिए या फीस ?
6- मामूली आय वाले पिता के पास एक ही बच्‍चे की इंजीनियरिंग की फीस भरने की औकात है। उन्‍होंने भाई को चुना है। तुम्‍हारा फैसला क्‍या है ?
7- तुम्‍हारे मां-पापा दोनों नौकरी करते हैं, लेकिन पापा घर के कामों में कभी मां का हाथ नहीं बंटाते। क्‍या पापा को भी जेंडर सेंसिटिव बनाने की जरूरत नहीं है। पापा से बहस करने वाली हो या नहीं ?
8- तुम्‍हारा अपनी मर्जी से चुना हुआ ब्‍वॉयफ्रेंड जेंडर सेंसिटिव नहीं है। वह तुम्‍हारे व्‍यक्तित्‍व को कुंद कर रहा है। क्‍या उसे अपनी जिंदगी से ''आउट'' कहने वाली हो ?
9- मोटा दहेज देकर और लेकर अपनी जाति में विवाह कहने वाले चाचा, मामा, ताया, बुआ आदि के लिए आज के बाद तुम्‍हारा जवाब क्‍या होगा ?

और अंत में -

इस बार कहां घूमने जाने का प्‍लान है ? क्‍यों न पांडिचेरी चला जाए। क्‍या ख्‍याल है ?
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लड़कियों !

1- अपने घरों से बाहर निकलो ।
2- पब्लिक स्‍पेस पर कब्‍जा करो। यकीन करो, धरती की हर इंच जगह तुम्‍हारी है और तुम्‍हें कहीं भी जाने-होने-रहने-जीने से कोई रोक नहीं सकता।
3- जान लगाकर पढो, टॉप करो और अपना कॅरियर बनाओ। (करियर टॉप प्रिऑरिटी पर रखो।)
4- अपने पैसे कमाओ, अपना घर बनाओ। अपना कमरा और अपना स्‍पेस।
5- एक गाडी खरीदो, दो पहिया या चार पहिया, कुछ भी चलेगा। और उस पर सवार होकर पूरे शहर में घूमो, दूर दराज के शहरों में भी। चाहो तो पूरे देश भर में।
6- अपनी जिंदगी की जिम्‍मेदारी अपने हाथों में लो। अपने फैसले खुद करो।
7- अमीर पति का ख्‍वाब छोड दो। अमीर पति से मिलने वाली सुविधाओं के साथ गुलामी भी आती है। ये पैकेज डील है। सिर्फ एक चीज नहीं मिलेगी।
8- प्रेम करो, अपना सेक्‍चुअल पार्टनर खुद अपनी मर्जी से चुनो।
9- सजो-संवरो और सुंदर दिखो।
9- किताबें पढो और अच्‍छा सिनेमा देखो। (प्‍लीज लड़कियों, सलमान खान को देखकर आहें भरना बंद करो।)
10- अपने कमाए पैसे जमा करो और उस पैसों से पूरी दुनिया घूमो। सुंदरवन के जंगलों और कन्‍याकुमारी के समुद्र तट पर अकेले जाओ। मेरी यकीन करो, अगर हम समझदार, बुद्धिमान और आत्‍मविश्‍वास से भरे हैं तो हमारे साथ कुछ नहीं होगा। और यदि कुछ बुरा हो भी गया तो इसका ये मतलब नहीं कि अगली बार हम सुंदरवन नहीं जाएंगे।

हम जो घरों से एक बार बाहर निकले हैं तो अब वहां लौटकर नहीं जाएंगे।

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"इंडियागेट और रायसीना हिल्‍स पर आज जमा हुई कितनी लड़कियां और लड़के भी इस बात की ठीक और साफ समझ रखते हैं कि -

1- लड़कियों के साथ होने वाली क्रूरता के अलावा क्रूरताएं और भी बहुत सारी हैं।
2- कि हम सब एक बहुत क्रूर समय में जी रहे हैं।
3- कि गरीबी किसी भी मनुष्‍य के साथ होने वाली सबसे भयानक क्रूरता है।
4- कि रात में शराब पीकर अपनी बीवी को पीटने वाला मजदूर खुद दिन भर सभ्‍य समाज की नृशंस क्रूरताओं का शिकार होता है
5- कि इस देश के मुसलमान बहुसंख्‍यक हिंदुओं की क्रूरता के निर्मम शिकार हैं
6- कि सैकडों सालों से दलित सवर्णों की भयंकरतम क्रूरताओं के शिकार हुए हैं
7- अश्‍वेत गोरों की क्रूरता का शिकार हैं
8- तीसरी दुनिया के देश अमीर देशों की बेशर्म क्रूरता के शिकार हैं

इन सारी क्रूरताओं के बारे में कोई बात क्‍यों नहीं करता।
लड़कियों ! ये सारी क्रूरताएं आपस में जुडी हुई हैं। सबसे आंख मूंदकर किसी एक क्रूरता के खिलाफ लडाई कभी नहीं जीती जा सकेगी।"
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"इंडियागेट और रायसीना हिल्‍स पर आज जमा हुई कितनी लड़कियां एक अमीर, खूबसूरत यूएस सेल्‍टल्‍ड सॉफ्टवेअर इंजीनियर पति का सपना नहीं देखतीं ?
कितनों ने अपने माता-पिता द्वारा अपनी जाति, धर्म, समुदाय में ढूंढे गए दुबेजी - तिवारी जी- मिश्रा जी पति को कहा - ''ना'' ?
कितनों ने अपनी जिंदगी के सारे फैसले अपने हाथ में लिए हैं और मर्दवादी समाज से मिलने वाली सुविधाओं और सुरक्षा को कहा - ''ना'' ?
लड़कियों ! आजादी, बराबरी और जीने का हक अपनी सुविधा के हिसाब से नहीं मिलता। कीमत भी चुकानी होती है।"

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