Friday, June 06, 2014

अकेली औरत -सुधा अरोड़ा







"वरिष्ठ 
स्त्रीवादी रचनाकार सुधा अरोड़ा जी का नाम किसी परिचय  का मोहताज़  नहीं  है ! स्त्री-विमर्श के विभिन्न पहलुओं को लेखिका ने बहुत करीब से महसूस किया और उस पर अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया ​है ! स्त्री जीवन के संवेदनशील पक्ष को मनोवैज्ञानिक ढंग से परखकर उन्होंने अपनी  कहानियों और  वैचारिक लेखों में सूक्ष्मता से ​ढाला है ! कहानी  और विमर्श के अलावा कविताओं में भी उनका अलग नजरिया है बेहद सहज शिल्प में संवेदना से भरपूर कवितायेँ स्त्री के अलग अलग रूप को अपनी तरह उकेरती हैं ! मन्नू (भंडारी) जी को समर्पित उनकी पहली कविता से "जिन्हें वो संजोकर रखना चाहती थी ","अकेली औरत " श्रंखला और माँ पर लिखी कविता ​​के साथ कुछ भावभीनी  कविता​ओं की आप सब के लिए एक विनम्र प्रस्तुति --


 






१-जिन्हें वे संजोकर रखना चाहती थीं
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वे रह रह कर भूल जाती हैं
अभी अभी किसका फोन आया था
किसकी पढ़ी थी वह खूबसूरत सी कविता
कुछ अच्छी सी पंक्तियाँ थी
याद नहीं आ रहीं . . . .

दस साल हो गये
अजीब सी बीमारी लगी है जान को
रोग की तरह.... भूलने की
बस, कुछ भी तो याद नहीं रहता
सब भूल - भूल जाता है

वह फोन मिलाती हैं
एक क़रीबी मित्र से बात करने के लिए
और उधर से 'हलो` की आवाज़ आने तक में
भूल जाती हैं किसको फोन मिलाया था
वह हृ शर्मिन्दा होकर पूछती हैं,
'बताएंगे , यह नंबर किसका हैं?`
'पर फोन तो आपने किया है !`
सुनते ही वह घबराकर रिसीवर रख देती हैं

क्या हो गया है याद्दाश्त को
बार-बार बेमौके शर्मिन्दा करती है !

किसी पुरानी फिल्म के गीत का मुखड़ा
इतराकर खिलते हुए फूल का नाम
नौ बजे वाले सीरियल की कहानी का
छूटा हुआ सिरा,
कुछ भी तो याद नहीं आता
और याद दिलाने की कोशिश करो
तो दिमाग की नसें टीसने लगती हैं
जैसे कहती हों, चैन से रहने दो,
मत छेड़ो, कुरेदो मत हमें !
बस, यूं ही छोड़ दो जस का तस !
वर्ना नसों में दर्द उठ जाएगा
और फिर जीना हलकान कर देगा,
सुन्न कर देगा हर चलता फिरता अंग
साँस लेना कर देगा दूभर
याददाश्त का क्या है
वह तो अब दगाबाज़ दोस्त हो गयी है ।

कूरियर में आया पत्रिका का ताजा अंक
दूधवाले से लिए खुदरा पैसे
कहाँ रख दिए , मिल नहीं रहे
चाभियाँ रखकर भूल जाती हैं
पगलायी सी ढूँढती फिरती है घर भर में
एक पुरानी मित्र के प्यारे से खत़ का
जवाब देना था
जाने कहाँ कागजों में इधर उधर हो गया
सभी कुछ ध्वस्त है दिमाग में
जैसे रेशे रेशे तितर बितर हो गये हों ...

नहीं भूलता तो सिर्फ यह कि
बीस साल पहले उस दिन
जब वह अपनी
शादी की बारहवीं साल गिरह पर
रजनीगंधा का गुलदस्ता लिए
उछाह भरी लौटी थीं
पति रात को कोरा चेहरा लिए
देर से घर आये थे
औरतें ही भला अपनी शादी की
सालगिरह क्यों नहीं भूल पातीं ?

बेलौस ठहाके, छेड़छाड़, शरारत भरी चुहल,
सब बेशुमार दोस्तों के नाम,
उनके लिए तो बस बंद दराज़ों का साथ
और अंतहीन चुप्पी
और वे झूठ की कशीदाकारी वाली चादरें ओढ़े
करवटें बदलती रहतीं रात भर !

पति की जेब से निकले
प्रेमपत्रों की तो पूरी इबारतें
शब्द दर शब्द रटी पड़ी हैं उन्हें -
चश्मे के केस में रखी चाभी से
खुलती खुफिया संदूकची के ताले से निकली -
सूखी पतियों वाले खुरदरे रूमानी कागज़ों पर
मोतियों सी लिखावट में प्रेम से सराबोर
लिखी गयी रसपगी शृंखला शब्दों की
जिन्हें उनके कान सुनना चाहते थे अपने लिए
और आँखें दूसरों के नाम पढ़ती रहीं ज़िन्दगी भर !

सैंकड़ों पंक्तियाँ रस भीनी
उस 'मीता` के नाम
जिन्हें वह भूलना चाहती हैं
रोज़ सुबह झाड़ बुहार कर इत्मीनान से
कूड़ेदान में फेंक आती हैं -
पर वे हैं
कि कूड़ेदान से उचक उचक कर
फिर से उनके ईद - गिर्द सज जाती हैं
जैसे उन्हें मुँह बिरा - बिरा कर चिढ़ा रही हों।

......और इस झाड़ बुहार में फिंक जाता है
बहुत सारा वह सब कुछ भी
याददाश्त से बाहर
जिन्हें वह संजोकर रखना चाहती थीं,
और रख नहीं पायीं ........
अकेली औरत का हँसना

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अकेली औरत
खुद से खुद को छिपाती है।
होंठों के बीच कैद पड़ी हँसी को खींचकर
जबरन हँसती है
और हँसी बीच रास्ते ही टूट जाती है ......

अकेली औरत का हँसना,
नहीं सुहाता लोगों को।
कितनी बेहया है यह औरत
सिर पर मर्द के साये के बिना भी
तपता नहीं सिर इसका ....
मुँह फाड़कर हँसती
अकेली औरत
किसी को अच्छी नहीं लगती।
जो खुलकर लुटाने आए थे हमदर्दी,
वापस सहेज लेते हैं उसे
कहीं और काम आएगी यह धरोहर !

अकेली औरत
कितनी खूबसूरत लगती है ....
जब उसके चेहरे पर एक उजाड़ होता है

आँखें खोयी खोयी सी कुछ ढूँढती हैं,
एक वाक्य भी जो बिना हकलाए बोल नहीं पातीं
बातें करते करते अचानक
बात का सिरा पकड़ में नही आता,
बार बार भूल जाती है - अभी अभी क्या कहा था।

अकेली औरत
का चेहरा कितना भला लगता है ....
जब उसके चेहरे पर ऐसा शून्य पसरा होता है
कि जो आपने कहा, उस तक पहुँचा ही नहीं।
आप उसे देखें तो लगे ही नहीं
कि साबुत खड़ी है वहाँ।
पूरी की पूरी आपके सामने खड़ी होती है
और आधी पौनी ही दिखती है।
बाकी का हिस्सा कहाँ किसे ढूँढ रहा है,
उसे खुद भी मालूम नहीं होता।
कितनी मासूम लगती है ऐसी औरत !

हँसी तो उसके चेहरे पर
थिगली सी चिपकी लगती है,
किसी गैरजरूरी चीज़ की तरह
हाथ लगाते ही चेहरे से ऐसे झर जाती है जैसे कभी वहां थी ही नहीं .......



अकेली औरत का रोना

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ऐसी भी सुबह होती है एक दिन
जब अकेली औरत
फूट फूट कर रोना चाहती है।
रोना एक गुबार की तरह,
गले में अटक जाता है
और वह सुबह सुबह
किशोरी अमोनकर का राग भैरवी लगा देती है,
उस आलाप को अपने भीतर समोते
वह रुलाई को पीछे धकेलती है।

अपने लिए गैस जलाती है
कि नाश्ते में कुछ अच्छा पका ले
शायद वह खाना आँखों के रास्ते
मन को ठंडक पहुँचाए,
पर खाना हलक से नीचे
उतर जाता है
और ज़बान को पता भी नहीं चलता
कब पेट तक पहुँच जाता है।
अब रुलाई का गुबार
अंतड़ियों में यहाँ वहाँ फँसता है
और आँखों के रास्ते
बाहर निकलने की सुरंग ढूँढता है।

अकेली औरत
अकेले सिनेमा देखने जाती है।
और किसी दृश्य पर जब हॉल में हँसी गूंजती है
वह अपने वहाँ न होने पर शर्मिंदा हो जाती है
बगल की खाली कुर्सी में अपने को ढूँढती है ...
जैसे पानी की बोतल रखकर भूल गई हो
और वापस अपनी कुर्सी पर सिमट जाती है।

अकेली औरत
किताब का बाईसवाँ पन्ना पढ़ती है
और भूल जाती है
कि पिछले इक्कीस पन्नों पर क्या पढ़ा था ...
किताब बंद कर,
बगल में रखे दिमाग को उठाकर
अपने सिर पर टिका लेती है कसकर
और दोबारा पहले पन्ने से पढ़ना शुरु करती है ....

अकेली औरत
खुले मैदान में भी खुल कर
साँस नहीं ले पाती
हरियाली के बीच ऑक्सीजन ढूँढती है।
फेफड़ों के रास्ते तक
एक खोखल महसूस करती है
जिसमें आवाजाही करती साँस
साँस जैसी नहीं लगती।
मुँह से हवा भीतर खींचती है
अपने ज़िन्दा होने के अहसास को
छू कर देखती है ....

अकेली औरत
एकाएक
रुलाई का पिटारा
अपने सामने खोल देती है
सबकुछ तरतीब से बिखर जाने देती है
देर शाम तक जी भर कर रोती है
और महसूस करती है
कि साँसें एकाएक
सम पर आ गई हैं ......

......... और फिर एक दिन
अकेली औरत अकेली नहीं रह जाती
वह अपनी उँगली थाम लेती है,
वह अपने साथ सिनेमा देखती है,
पानी की बोतल बगल की सीट पर नहीं ढूँढती,
किताब के बाईसवें पन्ने से आगे चलती है,
लंबी साँस को चमेली की खुशबू सा सूँघती है,
अपनी मुस्कान को आँखों की कोरों तक
खिंचा पाती है,
अपने लिए नयी परिभाषा गढ़ती है।

अकेली औरत अकेलेपन को एकाँत में ढालने का सलीका सीखती है।
-गिरे हुए फंदे
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अलस्सुबह 
अकेली औरत के कमरे में 
कबूतरों और चिडि़यों 
की आवाज़ें इधर उधर 
उड़ रही हैं  
आसमान से झरने लगी है रोशनी
आंख है कि खुल तो गई है
पर न खुली सी ,
कुछ भी देख नहीं पा रही ।
छत की सीलिंग पर 
घूम रहा है पंखा
खुली आंखें ताक रही हैं सीलिंग 
पर पंखा नहीं दिखता 
उस अकेली औरत को 
पंखे की उस घुमौरी की जगह 
अटक कर बैठ गई हैं कुछ यादें !

पिछले सोलह सालों से
एक रूटीन हो गया है
यह दृष्य  ।

बेवजह लेटे ताका करती है ,
उन यादों को लपेट लपेट कर 
उनके गोले बुनती है !
धागे बार बार उलझ जाते हैं 
ओर छोर पकड़ में नहीं आता ।
बार बार उठती है 
पानी के घूंट हलक से 
नीचे उतारती है ।
सलाइयों में फंदे डालती है
और एक एक घर 
करीने से बुनती है ।
धागों के ताने बाने गूंथकर 
बुना हुआ स्वेटर 
अपने सामने फैलाती है ।
देखती है भीगी आंखों से
आह ! कुछ फंदे तो बीच रस्ते 
गिर गए सलाइयों से
फिर उधेड़ डालती है !
सारे धागे उसके इर्द गिर्द
फैल जाते हैं !
चिडि़यों और कबूतरों की 
आवाजों के बीच फड़फड़ाते हैं ।

कल फिर से गोला बनाएगी
फिर बुनेगी 
फिर उधेड़ेगी 
नये सिरे से !
अकेली औरत !




उसका अपना आप
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अकेली औरत , 
चेहरे पर मुस्कान की तरह 
गले में पेंडेंट पहनती है 
कानों में बुंदे , 
उंगली में अंगूठियां 
और इन आभूषणों के साथ 
अपने को लैस कर 
बाहर निकलती है 
जैसे अपना ऐश्वर्य साथ लेकर 
निकल रही हो 

पर देखती है 
कि उसके कान बुंदों में उलझ गए ,
उंगलियों ने अंगूठियों में अपने को 
बंद कर लिया 
गले ने कसकर नेकलेस को थाम लिया .....

पर यह क्या ..... 
सबसे जरूरी चीज़ तो वह
साथ लाना भूल ही गई 
जिसे इन बुंदों , अंगूठियों और नेकलेस 
से बहला नहीं पाई !
उसका अपना आप -
जिसे वह अलमारी के 
किसी बंद दराज में ही छोड़ आई ...... 




 शतरंज के मोहरे 
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सबसे सफल 
वह अकेली औरत है ,
जो अकेली कभी हुई ही नहीं
फिर भी अकेली कहलाती है ....

अकेले होने के छत्र तले 
पनप रही है
नयी सदी में यह नयी जमात -
जो सन्नाटे का संगीत नहीं सुनती ,
सलाइयों में यादों के फंदे नहीं बुनती ,
करेले और भिंडी में कभी नहीं उलझती ,
अपने को बंद दराज़ में नहीं छोड़ती ,
अपने सारे चेहरे साथ लिए चलती है ,
कौन जाने , कब किसकी ज़रूरत पड़ जाए ।

अकेलेपन की ढाल थामे ,
इठलाती इतराती 
टेढ़ी मुस्कान बिखेरती चलती है ,
अपनी शतरंज पर ,
पिटे हुए मोहरों से खेलती है ।
एक एक का शिकार करती ,
उठापटक करती ,
उन्हें ध्वस्त होते देखती है ।
उसकी शतरंज का खेल है न्यारा
राजा धुना जाता है 
और जीतता है प्यादा ।

उसकी उंगलियों पर धागे बंधे हैं ,
हर उंगली पर है एक चेहरा 
एक से एक नायाब 
एक से एक नशदार !
उसके इंगित पर मोहित है -
वह पूरी की पूरी जमात !
जिसने 
अपने अपने घर की औरत की 
छीनी थी कायनात ।

उन सारे महापुरुषों को 
अपने ठेंगे पर रखती
एक विजेता की मुस्कान के साथ 
सड़क के दोनों किनारों पर
फेंकती चलती है वह औरत ।
यह अहसास करवाए बिना 
कि वे फेंके जा रहे हैं ।

उन्हें बिलबिलाते रिरियाते 
देखती है 
और बायीं भ्रू को तिरछा कर 
आगे बढ़ लेती है ।
और वे ही उसे सिर माथे बिठाते हैं 
जिन्हें वह कुचलती चलती है !

इक्कीसवीं सदी की यह औरत 
हाड़ मांस की नहीं रह जाती ,
इस्पात में ढल जाती है ,
और समाज का 
सदियों पुराना ,
शोषण का इतिहास बदल डालती है ।

रौंदती है उन्हें ,
जिनकी बपौती थी इस खेल पर , 
उन्हें लट्टू सा हथेली पर घुमाती है 
और ज़मीन पर चक्कर खाता छोड़ 
बंद होंठों से तिरछा मुस्काती है ।

तुर्रा यह कि फिर भी 
अकेली औरत की कलगी 
अपने सिर माथे सजाए 
अकेले होने का 
अपना ओहदा
बरकरार रखती है । 

बाज़ार के साथ ,
बाज़ार बनती , 
यह सबसे सफल औरत है । 

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२-- सदियों के खिलाफ़ तैयार हो रहा है एक मोर्चा 
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बाज़ार भरा है नये से नये यंत्रचालित उपकरणो से
लेकिन कुछ भी नहीं है आधुनिक
कुछ भी नहीं है नया
न आय पॉड , न थ्री डी होम थिएटर , न टैब्लेट कम्प्यूटर !

सिर्फ लड़कियों का सिर उठाना है नया
सिर्फ उनका इनकार है नया !
सदियों की चुप्पी के खिलाफ़ बोलना उनका
जबरन कहला ली गई ''हां'' के खिलाफ़
उनका ''नहीं'' है नया !

तुम अपनी हिंस्त्र कामुकता को
लपेटकर प्रेम की चासनी में
अपनी आंखों की लिप्सा में आतुरता सजाकर
रचते हो प्रेम का सब्जबाग़ उनके लिये !
तुमने यही सीखा सहस्त्राब्दियों तक !

ठोकर मार देना एक लड़की का
तुम्हारे प्रस्ताव को
एकदम नया है !

तुम पचा नहीं पाते जब इस इनकार को
तो असलियत पर उतर आते हो
अपने चेहरे पर नकाब बांधे
फेंकते हो उसके मुंह पर तेजाब पीछे से
सामने आकर लड़ने का हौसला नहीं तुममें !

तुम अपनी आतुरता अपनी हिंसा
अपने प्रतिशोध के साथ खड़े रहो वहीं
जहां सदियों से खड़े हो ! 
क्यों कि जि़न्दा इंसान ही चला करते हैं आगे 
रचा करते हैं कुछ नया । 
तुम्हारी बर्बरता के खिलाफ लड़कियों का 
अपने लिये एक मुकाम बनाना है बिल्कुल नया !




3-कैसे लिखूँ तुम्हें !! 
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आखिर मैं कब आई होऊँगी तुम्हारे भीतर
गर्भ में धरने से पहले
क्या तुमने धरा होगा अपनी आत्मा में मुझे
जैसे धरा होगा तुम्हारी माँ ने तुम्हें
और उनकी माँ ने उन्हें
और एक अटूट परंपरा स्त्रियों की
वहाँ तक जहां बनी होगी दुनिया की पहली स्त्री

तुमने मुझे क्यों जना माँ
क्या एक चली आ रही परंपरा का निर्वाह करना था तुम्हें
या फैलना था एक नए संसार तक
और फिर देखना था अपने आप को मुझमें

तुम्हें देखती हूँ , अब भी वैसे ही संवारते हुये घर
सुबह सुबह हाथ में लिये एक डस्‍टर 
अपनी कमर की मोच में भी
पिता को चाय का कप थमाते हुए देखती हूँ तुम्हें
आँखों की उदासी में देखती हूं
और अपने दाँतों के बीच
विचरती हवा में महसूस करती हूँ तुम्हें
लिखना चाहती हूँ ढेर सारा जीवन लगातार
लेकिन अपनी खामोशी में देखती हूँ तुम्हें

क्या इसीलिए होती हैं माँएं धरती से बड़ी
कि हर कहीं उपस्थित रहें और बोलती रहें बेलफ़्ज़
सहस्राब्दियों से अनपढे आख्यान की तरह
जब भी उन्हें देखो तो झरने लगें ऐसी कथाएँ
जो कहने की बाट जोहती रहीं हमेशा
लेकिन जिन्‍हें कभी कहा नहीं गया

तुम इतनी खामोश क्यों थी माँ
क्‍या इसीलिये इतना बोलती थीं तुम्हारी आँखें
किस भाषा में कहना चाहती थी तुम अपना दुख
जिसे कभी हम समझ ही न पाये

क्या इसीलिए इतना पसंद था तुम्हें मेरा लिखना
तुम्हें उम्मीद थी कि लिखूँगी मैं तुम्हें भी एक दिन
बिना कुछ कहे चले गए अनंत यात्री की तरह
खोजूंगी तुम्‍हारी पीडा के रेशे
मुझे आजमाना चाहती थीं
क्‍या इसीलिये नहीं छोड़ा कोई भी सिरा अपने दुख का
जिसे थाम कर मैं आगे की पंक्ति लिखती

एक बहुत छोटी चौहद्दी में घटी हुई अंतहीन घटनाएँ
लगती हैं इतनी बेतरतीब और बिखरी हुई
कि लगता है बंध ही नहीं पाएगी कुछ शब्‍दों में
एक महाआख्‍यान भी कम पडेगा
क्यों मुझे लगता है कि शायद तुम यह कहना चाह रही थी
शायद यह .... शायद यह .......
हर बार जितना तुम्‍हें देखती हूं
लगता है , जितना दीखता है
उससे ज्‍यादा छूट गया है
न उस छूटे हुए को पकड पाई कभी
न लिख पाई तुम्‍हें  !!

5 जुलाई 2013 , माँ के पचा‍सीवें जन्‍मदिन पर मां की स्‍मृति में .....
                            
- सुधा अरोड़ा          


2 comments:

  1. सुधा जी की सभी कवितायें स्त्री मन का चित्रण हैं ………बेहद उम्दा और सार्थक

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